
दिल्ली में फिर से साहित्य और कला का सबसे बड़ा मंच सज चुका है. मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में 'साहित्य आजतक' के छठे संस्करण का आज आखिरी दिन है. 3 दिन तक चलने वाले इस शब्द-सुरों के इस कार्यक्रम में कई दिग्गज शिरकत कर रहे हैं. आज कार्यक्रम के तीसरे दिन दिन के 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' सेशन में 'ये दिल है कि चोरदरवाजा' के लेखक डॉक्टर किंशुक गुप्ता पहुंचे.
'ये रिश्ता क्या कहलाता है' सत्र में Homosexuality पर बात की गई. सत्र की शुरुआत में लेखक डॉक्टर किंशुक गुप्ता से सवाल किया गया- मन की गिरहें खुल नहीं रही हैं आज भी. या समय बदला है? जवाब में उन्होंने कहा- मुझे लगता है कि समय तो बदला है और समय बदलने से गिरहें जरूर खुली हैं. लेकिन मन की गिरहें खुलने से बात नहीं बनने वाली. जबतक समाज की स्वीकार्यता आप नहीं दे पाएंगे तो मन की गिरहें अगर खुलेंगी भी तो उस साहस को उस प्रेम को जो शख्स जताना चाहता है वो नहीं जता पाएगा. तो मन की गिरहें खुली तो जरूर हैं लेकिन क्या सामाजिक स्वीकार्यता उसे मिली है? यह देखना जरूरी है.
डॉक्टर किंशुक ने कहा, ''मुझे लगता है कि Homosexuality को हमें दो तरह से देखने की जरूरत है. जब मेरी कहानी छपी 'मछली के कांटे' तो 70 साल के एक बजुर्ग का मुझे फोन आया. उन्होंने मुझे कहा कि पहली बार किसी के सामने यह स्वीकर कर रहा हूं कि मैं Homosexual था, जब मेरी शादी नहीं हुई थी. हालांकि, बाद में मेरी शादी भी हो गई और बच्चे भी हुए. लेकिन शादी से पहले मेरा एक पार्टनर था. लेकिन उस समय Homosexual को क्राइम ओफेंस माना जाता था. मेरे पार्टनर ने भी बाद में शादी कर ली. वो अपने परिवार के साथ बिजी हो गया और मैं अपने परिवार के साथ. लेकिन आज तक मैं उसे भूल नहीं पाया हूं.'' डॉक्टर किंशुक ने कहा कि Homosexuality कोई नई बात नहीं है. यह पहले भी और आज भी है. बस अब इस बात का जिक्र थोड़ा खुलकर होता है. हालांकि, गिरहें खुली जरूर हैं लेकिन फिर भी पूरी तरह नहीं खुली हैं.
उन्होंने कहा कि एक इंसान जो भी Homosexual होता है, उसके लिए पहले खुद यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि वो समलैंगिक है या नहीं. ऐसा इसलिए क्योंकि समाज की छाप हमारे मन में बसी होती है. हालांकि, समाज कुछ कह नहीं रहा, लेकिन फिर भी एक हिचक सी होती है. हमें खुद ये स्वीकार करना काफी मुश्किल हो जाता है कि हम Homosexual हैं.
किंशुक गुप्ता ने आगे कहा, ''मशहूर लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' ने 'उर्वशी' में कहा कि समाज के द्वारा ही समाज में मुखौटे लगाए बिना आने की मनाही है. तो वो मुखौटे जब खुलते हैं तो मन की गिरहें भी वहीं खुलती हैं. समाजिक स्वीकार्यता उन मन की गिरहों को खुलने में मदद कर सकती हैं. लेकिन एक व्यक्ति को अपने को मानने की लड़ाई लड़नी पड़ती है. समाज में समाज की तरह रहना आसान है. लेकिन समाज में अलग होकर रहना मुश्किल है. मैं तो कहना चाहूंगा कि समाज तो हमेशा से ही प्रेम के खिलाफ ही रहा है. चाहे जाति के लिहाज से देख लें या धर्म के लिहाज से. कभी भी समाज ने प्रेम को स्वीकार्यता नहीं दी. अगर आप शादी को प्रेम कहते हैं तो बता दूं कि वह प्रेम नहीं है. वो एक समाजिक व्यवस्था है. जब मनुष्य समाज से लड़ नहीं पाता तो शादी जैसे विकल्प को चुन लेता है.''