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Sahitya AajTak 2024: 'चाहे जितना संकट और कठिनाइयां आएं साहित्य रहेगा, हम साहित्य को बचाएंगे', बोले प्रियंकर पालीवाल

पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुए 'साहित्य आजतक' के कार्यक्रम में अमरनाथ शर्मा ने कहा कि बिना पढ़े ठीक साहित्य नहीं रचा जा सकता है, अगर साहित्यकार दुनिया को समझेगा नहीं, तो क्या लिखेगा. आज का सबसे बड़ा संकट है कि हमारे अंदर की संवेदनाएं खत्म हो रही हैं.

कोलकाता में साहित्य आजतक प्रोग्राम का दूसरा दिन कोलकाता में साहित्य आजतक प्रोग्राम का दूसरा दिन
जय प्रकाश पाण्डेय
  • कोलकाता,
  • 18 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 1:46 PM IST

Sahitya AajTak Kolkata 2024: पश्चिम बंगाल के कोलकाता में शब्द-सुरों के महाकुंभ 'साहित्य आजतक 2024' के दूसरे दिन का आगाज हो गया है. इस दौरान हुए 'समय और साहित्य पर संकट' सेशन में हिंदी साहित्य के लेखक और क्रिटिक अमरनाथ शर्मा, ऋषि भूषण चौबे और कवि प्रियंकर पालीवाल शामिल हुए. "उन का जो फर्ज है वो अहल-ए-सियासत जानें, मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे...", जिगर मुरादाबादी के इस शेर के जरिए अमरनाथ शर्मा ने साहित्य का मतलब बताया और कहा कि साहित्य का काम दया, ममता, प्रेम और करुणा का संचार करना है, यही साहित्य के मूल्य हैं. मनुष्य के अंदर मनुष्यता इन्हीं से आती है. उन्होंने आगे कहा कि साहित्य का दूसरा काम ये है कि साहित्य इसी संसार की चीज है, इससे बाहर की बात हम नहीं करते, इसको जितना बेहतर हम बना सकें...यही हमारा काम है. दिक्कत ये है कि आज साहित्य की दुनिया सिमटती जा रही है. जो साहित्य मनुष्य और मानवता के लिए सबसे जरूरी है, उसकी जगह सिमटती जा रही है. 

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इसके अमरनाथ ने फिलिस्तीन का जिक्र करते हुए कहा कि जाहिर है कि हम उन्हीं के पक्ष में खड़े होंगे, जो दलित और पीड़ित हैं. इजरायल का उद्देश्य हमास को खत्म करना है लेकिन वो पूरे फिलिस्तीन को खत्म करने पर आमादा है.

'मौजूदा दौर में अनुभूति का संकट'
लेखक ऋषि भूषण चौबे ने नए दौर पर बात करते हुए कहा कि हम अभी जिस समय में हैं, बहुत आगे बढ़ रहे हैं लेकिन जो मशीनी वातावरण है, ये हमें खत्म कर रहा है. मैं एक अध्यापक होने नाते महसूस करता हूं कि अनुभूति का संकट है. हमारे विद्यार्थी और हमारे आस-पास का वातावरण, चीजों के प्रति अनुभूति वाली स्थिति में नहीं है. वो देख रहा है लेकिन अनुभूति नहीं कर रहा है. इस संकट को हमारा वर्तमान साहित्य कितना दर्ज कर पा रहा है, ये सवालों के घेरे में है. उन्होंने आगे कहा कि हम रील कल्चर में आ गए हैं, हम तीस सेकंड में आ गए हैं. हमारे अभिव्यक्ति की क्षमता भी उसी में ढलती जा रही है. भाषा के मामले में हम लोग कमजोर होते जा रहे हैं.
 
'जो समाज पढ़ेगा नहीं...'
कवि प्रियंकर पालीवाल ने कहा कि ये संकट साहित्य का तो है ही लेकिन उससे ज्यादा ये हमारे समाज का संकट है. जब हम अपने देश और अपनी भाषा की बात करते हैं, तो एक इमोशनल जुड़ाव आ जाता है. उन्होंने आगे कहा कि व्हॉट्सएप पर मैसेज आते ही आप कुछ लोगों को फॉरवर्ड कर देते हैं, उसको ढंग से पढ़ते भी नहीं. जो समाज पढ़ेगा नहीं और इस तरह के समाचार पर भरोसा करेगा, तो वो हेत्वाभासों में फंसेगा. जो चीज दिखाई पड़ रही है, उसके भीतर नहीं जाएगा. 

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"चलता हूं थोड़ी दूर हर इक तेज-रौ के साथ, पहचानता नहीं हूं अभी राहबर को मैं", प्रियंकर पालीवाल ने मिर्जा गालिब का ये शेर पढ़ते हुए कहा कि हम जानते ही नहीं है कि हमें किधर जाना है. परिवर्तन इतने तेज हैं कि आदमी चकराया हुआ है और वो समझ नहीं पा रहा है.

अमरनाथ शर्मा ने समय के संकट पर बात करते हुए कहा कि हम महसूस कर रहे हैं कि पूरी दुनिया एक बाजार बन गई है. दुनिया को समझने के लिए साहित्यकार को भी उतना ही पढ़ना पड़ता है, जितना एक दार्शनिक और वैज्ञानिक को समझना पड़ता है. बिना पढ़े ठीक साहित्य नहीं रचा जा सकता है, अगर साहित्यकार दुनिया को समझेगा नहीं, तो क्या लिखेगा. आज का सबसे बड़ा संकट है कि हमारे अंदर की संवेदनाएं खत्म हो रही हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक फिलिस्तीन में 70 हजार बच्चे ऐसे हैं, जिनके माता-पिता सहित कोई संबंधी नहीं बचा है. कोई भी ईमानदार साहित्यकार जनता के प्रति जवाबदेह होता है. इन बच्चों की तरफ साहित्यकार की निगाह जाएगी ही कि ये जो हैं, उनका कौन सा अपराध है, हम किस दुनिया में जी रहे हैं...ये संवेदनहीनता हो रही है. 
 
'हमें सोचना चाहिए कि हम कितना आजाद हैं?'
अमरनाथ ने भाषा के सवाल पर कहा कि जब दुनिया ग्लोबल हो रही है, तो ग्लोबलाइजेशन की भी एक भाषा होगी. मेरा मानना है कि भाषा का भी अपना एक चरित्र होता है, शासक और शासित वर्ग की अपनी अलग-अलग भाषा होती है. अंग्रेजी इस देश की किसी प्रांत की भाषा नहीं है लेकिन वो शासक वर्ग की भाषा है. उन्होंने कहा कि हमारे देश में चपरासी की भी नौकरी में अंग्रेजी अनिवार्य है, पच्चीस में से इक्कीस उच्च न्यायलों में प्रांत की भाषा में फैसला नहीं होता है, बंगाल की भाषा में बांग्ला नहीं चलती है, हमें सोचना चाहिए कि हम कितना आजाद हैं. अगर हम आम जनता की भाषा में लिखेंगे तो उसमें उसकी संवेदनाएं आएंगी और जनता उसको पढ़ेगी. 

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साहित्य पर संकट?
प्रियंकर पालीवाल कहा कि भारत शुरुआत से ही एक बहुलतावादी देश रहा है और लोगों इतने हजार सालों में मिल-जुलकर रहना सीख लिया है. हाल के समय में जरूर कुछ प्रयास हो रहे हैं कि हमें एक ही रंग दिखाई पड़ें लेकिन देश के मिजाज के मुताबिक ऐसा संभव नहीं है. ऐसे प्रयास सफल होने वाले नही हैं. अगर आप भारत में हैं, जहां आपस में विचार-विमर्श की परंपरा रही है, हमारा मुख्य संकट वो नहीं है. उन्होंने आगे साहित्य के संकट पर बात करते हुए कहा कि साहित्य हमेशा संकट में रहा है, कभी व्याप्त जैसी स्थिति में नही रहा है. आठवीं शताब्दी में भवभूति को निराशा थी कि मुझे कोई समझ नहीं रहा है. उन्नीसवीं शताब्दी में गालिब को संकट था कि हमें कोई कवि ही नहीं मानता है. रवींद्रनाथ ने भी अकेलापन महसूस किया होगा क्योंकि उन्होंने कहा था कि कोई आपके साथ ना आए, तो आपको अकेले ही चल पड़ना चाहिए. 
प्रियंकर पालीवाल ने आगे कहा कि हम हमेशा संकट में रहे हैं, ऐसी स्थिति में भी हमने अपनी रचनाशीलता को बचाकर रखा है और साहित्य की कसौटी भी यही है. चाहे जितनी संकट और कठिनाइयां आ जाएं, साहित्य रहेगा. जब तक मनुष्य के मन में प्रेम, करुणा और संवेदना रहेगी...साहित्य रहेगा. हम साहित्य को बचाएंगे और साहित्य हमको बचाएगा.

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ऋषि भूषण चौबे ने भाषा पर बात करते हुए कहा कि हिंदी को सिर्फ अंग्रेजी का सामना करने की रणनीति नहीं बनानी होगी, जो अन्य क्षेत्र की भाषाएं और बोलिया हैं उसको भी साथ लेकर चलना होगा. बोलियों को बचाइए और इनमें ज्ञान लाइए क्योंकि बोलियां समृद्ध और ताकतवर होंगी तो हम भी ताकतवर होंगे और हमारी पहचान भी ताकतवर होगी. 

प्रौद्योगिकी से भाषा पर क्या प्रभाव?
भाषा पर प्रौद्योगिकी के पड़ने वाले प्रभाव पर बात करते हुए प्रियंकर पालीवाल ने कहा कि प्रौद्योगिकी के प्रभाव में भाषा बदल रही है लेकिन ये सच्चाई है कि इससे भाषा दूर तक जा रही है. हमें ये देखना होगा कि क्या प्रौद्योगिकी के प्रभाव में हमारी भाषा के स्वरूप और संरचना में कोई अंतर आ रहा है, क्या हमारी भाषा की लाल रुधिर कणिकाएं कम हो रही हैं, क्या हमारी पारंपरिक शब्दावली बदल रही है...इन प्रश्नों पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा.
 

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