
कहानी - इश्क़ में कभी कभी
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
बात उन दिनों की है जब मेरे घर वालों को अचानक से ये महसूस हुआ कि मेरी शादी की उम्र निकली जा रही है। मेरी कानों के पास कलमों पर उतरी हल्की सफेदी उनके लिहाज़ से इस बात की घंटी थी कि मेरी एक्सपायरी डेट नज़दीक आ रही है इसलिए जितनी जल्दी हो सके मेरा बैंड बज जाना चाहिए। अब आप तो जानते हैं कि वैसे तो शादी के लिए बहुत कुछ चाहिए होता है, लेकिन अगर फिर भी बाकी ज़रूरतों को छोड़ भी दिया जाए तो कम से कम एक लड़की तो चाहिए ही चाहिए। बस इसलिए मच गयी ढुंढैया... एक लड़की की।
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अरे रुकसाना बाजी, बताइयेगा फिर हां... कोई लड़की हो नज़र में तो... बस नेक हो... और क्या चाहिए ... भई ऊपर वाले का दिया सब है ही अपने पास.... अम्मी हर घर आने वाले से इसी तरह की बातें करती मिलती थीं। उधर अब्बा भी जब शाम को नमाज़ पढ़कर घर लौटते तो चाय खानों पर रुकते रुकाते यही कहा करते थे... भई देखिए निज़ामी साहब, लड़का तो अपना हीरा है ही... अच्छा खाता कमाता है... पूरा घर संभाला हुआ है। इसलिए रिश्तों की वैसे कोई कमी नहीं है, हां, बस हम ज़रा चाहते हैं कि सुलझा हुआ कोई घर मिल जाए तो...
अब्बा जब किसी से ये कहते और बात मुझ तक आती तो लगता कि अरे भई, क्यों बिला वजह झूठ बोल रहे हैं... रिश्तों की लाइन तो छोड़िये यहां एक रिश्ता नहीं मिल रहा कायदा का। ख़ैर हम ने भी सब ऊपर वाले पर छोड़ दिया। अब जो होगा देखा जाएगा।
पिछली सर्दियों की बात है, कि एक शाम जब मैं घर में दाखिल हुआ तो आंगन में अम्मा अब्बा चारपाई पर बैठे कुछ कुछ मुस्कुरा रहे थे। मुझे मसला समझ नहीं आया...
क्या हुआ... सब ख़ैरियत?
दोनों ने मेरी तरफ देखा और एक तस्वीर बढ़ा दी। मैंने गहरी सांस ली... और कहा, अरे अब मैं क्या देखूं... आप लोगों ने देख ली है तो बस... अब मैं उसनें क्या ही... मैं कहता भी जा रहा था और जल्दी जल्दी लिफाफा खोलता भी जा रहा था। भई बहू आप की है, तो बस आपने देख लिया तो मैं... उसमे... आए... कहते कहते मैं रुक गया.... एक तस्वीर जो हाथ में आई तो दिल धक्क से रह गया। मतलब तस्वीर क्या थी साहब ये समझ लीजिए कि बस... ऐसा लगा जैसे अल्लाह मियां के पास जितनी खूबसूरती थी उन्होंने आधी पूरी दुनिया में बांट कर आधी इन मोहतरमा को दे दी थी। अरे साफ शफ्फाक चेहरा, खड़ी हुई नाक, आधे चेहरे पर गिरी हुई लट, किनारे वाले एक दांत पर चढ़ा हुआ दूसरा दांत... मतलब समझ लीजिए कि ऐसा चेहरा था... कि उसके लिए दुनिया से टकराया जा सकता था, पहाड़ को तोड़ा जा सकता था, नदी में कूदा जा सकता था.... और...
फ़रीदगंज वाले बुखारी साहब ने रिश्ता लगाया है, कैसी है... अम्मी की आवाज़ ने मेरा ध्यान तोड़ा... मैंने कहा, आ.... औसत दर्जे की है, आप को पसंद है तो फिर मैं क्या कहूं
इनाया नाम है... अब्बा ने कहा.. तो मैंने बेफिक्री से कहा... अच्छा.... और कमरे में चला गया। दरवाज़ा बंद किया....और दरवाज़े से पीठ सटा ली।
इनाया...... नाम दोहराते हुए मेरे चेहरे पर शर्म की लाली छलक आई। कसम से कुछ तो था उस चेहरे में.... मैं यूं ही बावला नहीं हो गया था। उस चेहरे ने मुझे मेरे कॉलेज के दिनों की यादें ताज़ा करा दी थीं। जब मैं बीकेट के दौरान अपनी फोर स्ट्रोक मोटरसाइकल पर शहर की सड़कों को नापा करता था... टूटी फ्रूटी आइसक्रीम खाने के लिए रोज़ाना कॉलेज से बीस किलोमीटर दूर जाया करता था। हाय वो भी क्या दौर था... ऐसा लगा जैसे किसी ने पुराने दौर में वापस ला कर खड़ा कर दिया था।
अब इसके आगे की दास्तां क्या सुनाऊं.... बेकरारी थी... कि जल्दी से वो दिन आए जब हम उनके घर जाएं और जाकर इनाया से मिलें। उसको रूबरू देखें। दुवाओं का असर देखिए... वो दिन भी आ ही गया। मैंने हाई नेक
इतवार की सुबह भी आ गई। और हम चकाचक होकर ... बालों के सफेदी को काले रंग से छुपा कर, चेहरे पर तीन बार मसाज करवा के, नए जूते और नए कपड़े पहनकर चल दिए फरीगगंज की तरफ। कुछ पैंतालीस मिनट के टैक्सी कार के सफर के बाद हम लोग उस कॉलोनी के बड़े से मकान के बाहर खड़े थे। मेरी और अब्बा की नज़र मकान की भूरी नेम प्लेट पर थी। जिस पर लिखा था
रिटायर्ट पुलिस ऑफिसर
मोहमद हसन
मकान नं 302
302... मैंने और अब्बा ने एक दूसरे को ग़ौर से देखा। एक पुलिस वाले का मकान नंबर तीन सौ दो होना... क्या कोई इशारा है जो अल्लाह मियां हमें दे रहे थे? तभी ज़हन में इनाया का चेहरा कौंधा और हमने कहा,
अरे बेल बजाइये... क्या यहीं ख़ड़े रहेंगे क्या...
बेल बजी और दरवाज़ा खुला... सामने जो आदमी ख़ड़ा था उसे देखिए तो... वो रिटायर्ड पुलिस अफसर तो किसी कोने से नहीं लग रहा था.... हां, अगर कोई कहता कि ये किसी जेल में जल्लाद का काम करते थे और लीवर खींच कर लोगों के जिस्म से रूह निकालने का काम करते थे... तो झट से यकीन हो जाता। लाल लाल सुर्ख आंखे, रंग बादामी, मूछें घनी... और कद काठी ऐसी कि कभी फांसी का तख्ता मयस्सर न हो तो आदमी का गला बगल में दबाकर भी मार सकते थे।
अस्सलालेकुम अंकल मैंने चेहरे पर जितनी मुस्कुराहट मुमकिन हो सकती थी उतनी भरते हुए कहा।
वलैकुम असस्लाम... कहते हुए उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया... और मेरे हाथ को अपनी भरपूर हथेलियों के बीच ऐसे दबाया कि मुंह से पहला कलमा निकल गया।
अब्बा ये देखकर ख़ौफ में आ गए थे... उस आदमी ने जैसे ही अब्बा की तरफ हाथ बढ़ाया अब्बा ने बेहद चालाकी दिखाते हुए उनके गले से लग गए। कैसे हैं हसन भाई अब्बा की कहा ... तो वो बोले, बस अल्लाह का करम आइये... आइये आइये... अंदर तशरीफ लाइये।
हम एक पुराने ज़माने वाले मकान में, एक बड़े से दर से अंदर दाखिल हुए... जिसकी मोटी दीवारों पर ताक बने थे। मटमैला फर्श कहीं कहीं से टूटा था.. पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें वाले फ्रेम थे... बरामदे से होते हुए हम अंदर पहुंचे तो वहां एक सजा हुआ कमरा था... जिसमें नए चमकीले रंग के मेज़पोश वाली एक टेबल थी और किनारे सोफा और उसकी कुर्सियां। मेज़ पर खाने पीने की तमाम चीज़ें सजीं थी।
बैठिए... बैठिये... कहते हुए उन्होंने अब्बा के कंधे पर हाथ रखा तो अब्बा थोड़ा सा लुढ़क गए। हम सब लोग बैठे थे। आम तौर पर मेज़बान जब खाने की प्लेट बढ़ा कर कहता है कि लीजिए, ये खाइये... तो मेहमान कुछ न नुकुर करता है। लेकिन आज उन साहब की ताब ऐसी थी कि जैसे ही वो कहें... लीजिए... लीजिए... ये लीजिए... अरे ये क्यों नहीं ले रहे हैं भई... तो हम सब घबराकर प्लेट से बिस्कुट उठा लेते और जल्दी जल्दी खाने लगते।
हसन साहब ने अपनी सर्विस के वक्त के किस्से बताना शुरु कर दिया तो वो किसी तरह से रुक ही नहीं रहे थे... बोले ही जा रहे थे....
अरे मेरी जो छोटी बेटी जो सिविल रोड पर जॉब करती है... जब वो दफ्तर से लौटती थी...तो उसको कुछ दिन से एक बदमाश परेशान कर रहा था... ऐसा वैसा नहीं था... बड़ा ईनामी बदमाश था... मंझला शकील नाम है उसका... हम एक दिन पहुंच गए दफ्तर... और कॉलर पकड़ कर जो फटके मारे हैं उसको... सीधा थाने में ले जाकर ऐसा पटका... कि अभी कुछ दिन पहले ही छूटा है जेल से.... अरे आप लोग बिस्कुट क्यों नही ले रहे... लीजिए बिस्कुट... लीजिए ...
हम लोग जल्दी जल्दी बिस्किट खाने लगे। पर इस सब के बीच हमें जिस बात का इंतज़ार था वो अब होने वाली थी... सामने एक दरवाज़ा था जिस पर हल्के नीले रंग का पर्दा पड़ा हुआ था... जो बीच बीच में हवा से उठ जाता था। सोफे पर बैठे हुए मेरी नज़र पर्दे के उस तरफ खड़ी एक लड़की पर पर रही थी। वो इनाया ही थी या कोई और पता नहीं, पर कोई तो थी।
थोड़ी देर बाद... वो परछाई सी हिली... वो लड़की हाथ में ट्रे लिए हुए कमरे में दाखिल हुई।
अस्सलामवालेकुम
इनाया की अम्मी उसके बगल में आकर बैठ गयीं। वो मुझे स्वीट लग रही थीं। बोलीं, हमारी बिटिया, पढ़ाई में बहुत अच्छी है, गोल्ड मेडलिस्ट है... बैडमिंटन चैंपियन भी है। ज़ॉब का ऑफर था इसके पास बैंगलोर से लेकिन अब इनकी तबियत कुछ गड़बड़ रहती है तो रोक लिया... भई घर पर भी कोई होना चाहिए... भई घर में हम चार ही तो लोग हैं... ये दो बहनें हैं और हम मिया बीवी...
मैंने देखा कि इनाया की नज़रें ज़मीन पर थीं लेकिन वो कॉनफिडेंट थी। सर से दुपट्टा सरकने पर वो उसे ठीक से बराबर करके ओढ़ती थी। चेहरे पर हल्की सी शादाब मुस्कुराहट थी... पर वो चेहरा ... न जाने क्यों बार बार ऐसा लग रहा था जैसे मैं इनाया से कहीं मिला हूं। कहीं तो बात हुई है हमारी... लेकिन कहां,.. पता नहीं।
तभी मेरी नज़र सामने वाली एक दीवार पर लगी एक तस्वीर पर पड़ी। फैमिली फोटो थी वो। मैंने देखा कि एक हसन साहब खाकी वर्दी में पीछे खड़े थे, बगल में उनकी बीवी... आगे दो लड़कियां बैठी थीं। एक तो इनाया थी और... और दूसरी.... या खुदा... दूसरा चेहरा देखते ही ... बिस्कुट मेरे हाथ से छूट कर सीधे चाय में गिर गया।
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