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कहानी - चलो एक बार फिर से
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
चीज़ें अच्छी या बुरी नहीं होती... बस अपनी और पराइ होती हैं। उसी तरह आदतें भी अच्छी या बुरी नहीं होती, वो बस वक्त की पाबंद होती हैं... जैसे रातों को देर तक जागना और सुबह देर तक सोना नौजवानी की निशानी है लेकिन धीरे-धीरे जैसे जैसे आप बूढ़ें होने लगते हैं आप सुबह की सैर के हिमायती हो जाते हैं... आप अपने से कम उम्र नौजवानों को सुबह उठने के फायदे गिनवाने लगते हैं। ये इस बात की बड़ी निशानी है कि आप की उम्र हो चुकी है.... जैसे मेरी। न जाने कितने साल हो गए मुझे सुबह-सुबह की सैर को जाते हुए.... पहले अपनी बीवी की साथ जाता था अब अकेले... बीवी के गुज़रने के बाद... यूं तो उसकी कमी ज़िदगी के हर मोड़ पर महसूस होती है लेकिन सुबह की सैर पर अकेले जाते वक्त मैं हर रोज़ उसे याद करता हूं शिखा नाम था उसका...
मुस्कुराता चेहरा, कलाई का तिल, मोटे फ्रेम वाला चश्मा, जिसे हर बार आस्तीन से साफ करने की ज़िम्मेदारी मेरी हुआ करती थी, झगड़े के दौरान भी। झगड़ते वक्त जब हम दोनों लोगों एक दूसरे पर चिल्ला रहे होते थे तो अचानक वो चश्मा उतार कर मेरी तरफ बढ़ाती और उतनी देर कमरे में खामोशी छा जाती और मैं उसका चश्मा आस्तीन से घिसता और उसे वापस करता... वो चश्मा लगाची और उसके बाद लड़ाई फिर से शुरु हो जाती। ईमानदारी से कहूं तो, शिखा के इंतकाल के बाद ही, मैं नौकरी से रिटायरमेंट ले लेना चाहता था। लेकिन मेरे बेटे विपिन ने ही मुझे समझाया और कहा कि मैं एक बार फिर से सोच लूं। उसने मुझसे कहा कि मैं आता-जाता रहूंगा तो मन लगा रहेगा, मुझे उसकी बात सही लगी थी। इस तरह कुछ साल और काम किया... लेकिन फिर बहरहाल जब फाइनली रिटायर हुआ तो अजीब सा खालीपन ज़िंदगी में महसूस होने लगा।
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मैं इसे तन्हाई नहीं कहूंगा.. मैं तन्हा नहीं था। नोएडा के जिस अपार्टमेंट में मैं रहता था। उसमें मेरे साथ... मेरा इकलौता बेटा विपिन, उसकी रशियन पत्नी स्वैतलाना और उन दोनों का बेटा मिखाइल, रहते थे। मैं तन्हा नहीं था सभी इर्द-गिर्द तो थे... लेकिन कभी-कभी लगता था कि सभी इर्द-गिर्द हैं, काश कोई साथ भी होता।
सोसाइटी से कुछ दूर पर एक बड़ा सा पार्क था। वहां तमाम लोग होते थे, मैं दोनों वक्त वहां जाता था, सुबह और शाम। घर से ज़्यादा वक्त वहीं गुज़रता था। इतना कि, मैं बता सकता था कि पार्क में कितने पेड़ यूकलिप्टिस के हैं, कहां बैठने पर ज़्यादा अच्छी हवा आती है और कौन पार्क में कब आता है। तकरीबन सभी चेहरे जाने पहचाने थे... लेकिन हां, बीते कुछ दिनों से एक नया चेहरा दिखने लगा था। कोई मोहतरमा थीं। उम्र दराज़ ही थी। बालों की सफेदी से अंदाज़ा होता था कि उम्र मुझसे चार-पांच साल कम ही होगी। बीते दो-एक रोज़ से उसी किनारे वाली पीली बेंच पर दिखती थी। एक बार उस तरफ से गुज़रा तो देखा हाथ में एक किताब थी, ऐसे पढ़ रही थी जैसे डूब गई हो उसमे।
“आ..अ.. मैं बैठ सकता हूं यहां” मैंने कहा था, तो उसने सर ऊपर उठाया, चश्मे से झांकती दो आंखें मेरी तरफ थीं। “जी?” उसने हैरानी से पूछा, शायद सुन नहीं पाई थी, मैंने दोहराया। “आ..मैंने कहा आपको ऐतराज़ ना हो तो बैठ जाऊं यहां” उसने पार्क की दूसरी बेंच की तरफ नज़र दौड़ाई, हर बेंच पर कोई ना कोई बैठा था। खिसकते हुए बोली – “हां ज़रूर, क्यों नहीं” वो बेंच के एक तरफ होकर वापस किताब पढ़ने लगी और मैं, शायद उसे।
किताब पढ़ते-पढ़ते उसका चेहरा कभी अचानक ग़मज़दा हो जाता, कभी हल्की सी हंसी खिल जाती, कभी भवें हिकारत से भर जातीं, कभी सुकून आ जाता। उसका चेहरे के तास्सुरात किताब के मुताबिक बदल रहे थे। मैं उसे देखता रहा। तकरीबन दो घंटे के बाद उसने किताब बंद करके, बैग में डाली और हल्के से सहारे के साथ उठने की कोशिश की, शायद घुटनों में दर्द था उसके...फिर वो धीरे-धीरे पार्क के मेन गेट की तरफ चली गई।
ये एक दिन बात नहीं थी, इस वाकिये के बाद ऐसा तीन-चार बार हुआ, वो आती उसी पीली बेंच पर बैठकर किताब पढ़ती और फिर वापस चली जाती। मैं पार्क की ठंडी ताज़ी हवा में होते हुए वो सुकून हासिल नहीं कर पाता था जो किताब पढ़ते हुए उसके चेहरे पर दिखता था।
“सुनिये, आप बुरा ना माने तो.. पूछ सकता हूं आप क्या पढ़ती रहती हैं” एक रोज़ मैंने पूछ ही लिया। वो मुस्कुराई, बोली, “ख़लील जिब्रान का नाम सुना है आपने” मैंने ना में सर हिलाया तो बोली, “बहुत खूबसूरत लिखा है उन्होंने... लेबनान की पैदाइश है उनकी... दा मैडमैन पढ़ रही हूं आजकल” आप ने पढ़ा है इन्हें....
आ... नहीं, मैंने तो बस प्रेमचंद पढ़ा है... मुझे वो पसंद हैं
- हां, हां, प्रेमचंद के तो कहने ही क्या... मैंने तो उनकी सारी कहानियां पढ़ी हैं... बल्कि आज़ादी से पहले के हिंदुस्तान को देखना समझना हो तो प्रेमचंद की कहानियों से बेहतर कुछ भी नहीं है... वैसे आप....
- “मैं... मैं यहीं, पास में रहता हूं, लेकिन ज़्यादातर वक्त यहीं गुज़रता हूं, रिटायर्ड इलेक्ट्रिकल इंजीनयर हूं।” अच्छा कहकर वो मुस्कराई तो मैंने ग़ौर किया कि उसके मुस्कुराने से चेहरे की झुर्रियां खिंच आती थी। बहुत गहरी मुस्कुराहट थी उसकी। “घुटनों में तकलीफ रहती है शायद आपके?” मैंने कहा तो वो किताब बंदकर के मेरी तरफ देखकर मुस्कुराई और बोली – “जी, अब इस दर्द ए घुटना ही दर्द हो सकता है, दर्द ए दिल तो होने से रहा” हम दोनों ज़ोर से हसे।
वो शायद हमारी पहली मुकम्मल मुलाकात थी। उस रोज़ के बाद हम एक-दूसरे को जानने लगे। शाज़िया नाम था उसका.... हमारी शुरु-शुरु की मुलाकातों के बाद... हम एक-दूसरे को एक दोस्त के तरह मिल गए थे। पार्क का खालीपन हमारी बातों से भरने लगा था।
हमारी जान-पहचान धीरे-धीरे गहरी हो गई। एक बेतकल्लुफी सी हो गयी थी हमारे बीच, जैसी दोस्तों में होती है। शाज़िया के हालात भी मेरे जैसे ही थे, पति के इंतकाल के बाद वो भी ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव पर अकेलेपन से जूझ रही थी। हालांकि उसने इस दर्द से लड़ने का तरीका किताबों में ढूंढ लिया था। एक बार यूं ही एक पेड़ की टेक लगाए हुए उसने मुझ से कहा– “पता है खलील जिब्रान साहब शादी के बारे में क्या कहते थे”
क्या...
वो कहते हैं, जिन लोगों की शादी होती है, वो साथ ही पैदा होते हैं, और हमेशा साथ रहते हैं, और तब तक जब तक सफेद पंखों वाले मौत के फरिश्ते उन्हें अलग नहीं कर देते...
हम्म... मैंने मुतास्सिर होते हुए कहा... तो वो हंसते हुए बोली... लेकिन उन्होंने खुद कभी शादी नहीं की... हां बस एक बार सगाई हुई थी
कमाल है... मैंने कहा....वो मुझे जब इस तरह की कहानियां सुनाती तो मेरे पास कुछ नहीं होता, सिवाए ये बताने के कि एक बार दफ्तर में ऐसा हुआ ... वैसा हुआ... इस अधिकारी ने ये कह दिया फिर वो कह दिया। वो झुंझलाकर कहती, “अरे आप तो घुमा फिरा कर दफ्तर ही पहुंच जाते हैं... कुछ और बताइये... मैं कहता... आ... क्या बताऊं अब मुझे थोड़ी पता है खलील जिब्रान ने सगाई के बाद शादी क्यों नहीं की.... वो ज़ोर का हसीं फिर संजीदा होकर बोली... “शिखा के बारे में और कुछ बताइये, कहां मिले थे और क्या हुआ था उन्हें”
मैंने एक पल के लिए उसे ग़ौर से देखा और कहा, शिखा के बारे में क्या बताऊं... बस ये समझ लीजिए कि ज़िंदगी खत्म हो जाएगी उसकी बातें खत्म नहीं होंगी। हम पहली बार एक शादी में मिले थे... खानदान की ही शादी थी। शिखा उनकी पड़ोसी थी। मेरी नौकरी नई नई लगी थी। मुझे आज भी याद है कि मैंने शिखा को देखा था दुल्हन के ठीक बगल में खड़े हुए। पीले रंग की साड़ी में, हल्का सा मेकअप और गले में एक हार। उसके बालों की लटे बार बार उसके माथे पर झूलती थीं, जिसे वो कान के पीछे दबाने की कोशिश करती थी। जब दूल्हा-दुल्हन खाना खा रहे थे, तब भी मैं और शिखा वहीं थे... पहली बार हमारी बात वहीं हुई थी। फिर उस मुलाकात के बाद और मुलाकातें हुई... फिर इश्क हुआ.. और फिर शादी। एक-एक बात याद थी मुझे, जबलपुर में हमारी अरेंज मैरेज हुई, पहली बार घूमने ऊंटी गए, उसने मुझे लाल-काली धारियों वाला एक मफलर दिया था और मैंने उसे दो कंगन दिये थे।
मैंने शाज़िया को बताया शिखा ने वो कंगन पूरी ज़िंदगी पहने, बल्कि मौत से दो रोज़ पहले कहा था कि मेरे इस कंगन के साथ ही मेरा क्रियाक्रम कीजिएगा, मैंने शिखा के होठों पर हाथ रखते हुए कहा था – “कुछ नहीं होगा तुम्हें” मुझे एक-एक बात याद थी शिखा की, उसके चेहरे की झुर्रियां, माथे की शिकन, कलाई का तिल, बूढ़ी और सख्त हथेलियों की छुअन, जिनसे मौत से कुछ घंटों पहले उसने मेरा चेहरा छुआ था... सब याद था।
“अरे तुम तो रोने लगीं” मैंने शाज़िया की तरफ देखते हुए कहा तो वो आंखे पोंछने लगी। हम दोनों को पार्क से निकलते-निकलते देर हो गई। मैं घर पहुंचा तो विपिन के चेहरा पर गुस्सा था। शायद अलियाना और विपिन मुझे काफी देर से ढूंढ रहे थे।
“पापा... कहां थे आप... विपिन की आवाज़ आई हम लोग कितना परेशान थे... कुछ आइडिया है आपको... दस घंटे की शिफ्ट के बाद ऑफिस से आया हूं और अब आपको ढूंढ रहा हूं। आदमी काम के बाद आराम करे कि इसी सब में लगा रहे”
बेटा वो मैं असल में... मैं इतना ही कह पाया था कि विपिन बिना मेरी बात सुने अपने कमरे में चला गया। मैं कुछ देर वहा रहा फिर अपने कमरे में आ गया। मेरे पीछे स्वैतलाना आई... पानी का गिलास लिये... बोली, “डैड.. वी वर वैरी कंसर्न्ड अबउट यू... बट आई एम सॉरी ऑन विपिन्स बिहाफ” मैंने उससे कहा कि कोई बात नहीं, आ जाता है गुस्सा... वो भी परेशान होगा। वो मुस्कुरा कर चली गयी।
थोड़ी देर बाद मिखाइल मेरे पास आया... मिखाइल बोला...
दादू, आप कहां चले गए थे... मुझे आपको बहुत ज़रूरी चीज़ दिखानी थी...
हां क्या दिखाना था बेटा.... तुम्हारा नया गेम?
नहीं.. ये... कहते हुए उसने अपनी हथेली खोली तो उसमें एक बैटरी सेल और उसपर लगा हुआ तार था... ओह तुमने ये बना दिया?
जी, अब देखिएगा... कहते हुए उसने मुड़े हुए तार का एक सिरा ऊपर और एक नीचे लगाया तो वो तार पंखे की तरह घूमने लगा....
मैं और मिखाइल... इस तरह की कई चीज़ें बनाया करते थे... घर की पुरानी टूटी फूटी चीज़ों से कुछ बनाना मैंने उसे सिखाया था।
जब मैं लेटा तो मुझे विपिन की डांट फिर याद आने लगी... औऱ मैं सोचने लगा कि विपिन की परवरिश के दौरान ऐसा कई बार हुआ जब मुझे उस पर किसी बात पर बेपनाह गुस्सा आया। लेकिन मैंने उसे डांटा नहीं... उल्टा गले से लगा लिया। मां-बाप की मुहब्बत बच्चों के लिए और बच्चों की मुहब्बत अपने मां-बाप के लिए कभी बराबर नहीं हो सकती। मां बाप अपने औलाद से जितनी मुहब्बत करते हैं, बच्चे उसका दसवां हिस्सा भी अदा नहीं कर सकते।
बहरहाल, दिन गुज़रते रहे और मैं और शाज़िया करीब आ गए। एक रोज़ मैं उसे शहर के एक हिस्से में बने रीडर्स कैफे ले जाने वाला था... ये एक जगह थी जो लाइब्रेरी और काफी हाउस का मिक्स था। मैं उस रोज़ बहुत खुश था। पता नहीं असर माहौल का था या वाकई कुछ था मैं रोज़ाना जैसा बूढ़ा महसूस नहीं कर रहा था। चाल में भी फुर्ती थी और मन में बुझा-बुझा नहीं था। गुनगुनाते हुए मैं रीडर्स कैफे पहुंच गया और रिसर्व वाली टेबल पर शाज़िया का इंतज़ार करने लगा।
आसमानी रंग की शलवार कमीज़ पहने वो कैफे में दाखिल हुई तो मैं उसे देखता रह गया। वो कितनी खूबसूरत लग रही थी। उम्र की झाइयां और वक्त की लकीरें उसके चेहरे पर किसी तरहरीर की तरह लग रही थी, जो उसकी खूबसूरती को कम नहीं कर रही थीं, बल्कि बढ़ा रही थी।
“अरे आज तो कयामत ढा रहे हैं आप...” उसने मुझे देखते ही मेरा मज़ाक उड़ाते हुए कहा... मैं भी उस दिन सूट वूट पहन कर आया था... उसके ये कहने पर ज़रा झेंप गया। कैफे की हवा में कॉफी वाली महक के बीच, आस-पास रखी कुर्सियों पर उठते-बैठते, आते-जाते लोगों का शोर था लेकिन एक किनारे, शीशे से लग कर रखी टेबल के आमने-सामने बैठे थे हम दोनों। मैं उसे देख रहा था... शाज़िया की ढीली पड़ चुकी खाल, जो गर्दन से लटक रही थी, अच्छी लग रही थी मुझे, उसकी झुर्रियां ऐसे लग रही थी जैसे वक्त ने उसके चेहरे पर खलील जिब्रान की को कोई शॉर्ट स्टोरी हो, उसके मेज़ पर टिके कांपते हुए हाथों के कंपन्न से लग रहा था जैसे कोई संगीत पैदा हो रहा हो.. वो धुंधली आंखों से मुझे देखती रही और मैं उसे। वो हमारी दोस्ती का ऑफिशियल दिन था। लेकिन इस दिन के बाद से ही हम लोग एक दूसरे के लिए दोस्त से कुछ ज़्यादा होना शुरु हो गए थे। अब हम बहुत सारा वक्त साथ में गुज़ारने का दिल चाहता। वो मुझे किताबों के बारे में बताती, और जब उसके चश्मे पर धूल आ जाती तो मुस्कुराकर मेरी तरफ बढ़ा देती। मैं आस्तीन से चश्मा साफ करते हुए महसूस करता जैसे वक्त मुझे कोई सुनी-सुनी सी दास्तां सुना रहा है।
शायद इस उम्र में दोस्तों से ज़्यादा हमसफर की ज़रूरत होती है। हम दोनों भी चाहते थे, एक दूसरे के साथ वक्त बिताना, एक दूसरे का ख्याल रखना, एक दूसरे के बारे में और जानने की कोशिश करना। बची-कुची ज़िंदगी थी हमारी इसे वैसे जीना चाहते थे, जैसे जीने में खुशी मिले।
हम उम्र के जिस पड़ाव में था, वहां सोचने के लिए ज़्यादा वक्त नहीं था। जो करना था आज ही करना था, कल किसने देखा था। और इसीलिए एक शाम मैंने फैसला कर लिया। जब हम दोनों पार्क में बैठे थे तो मैं उसके सामने खड़ा हुआ... तो उसने मुझे हैरानी से देखा... कि मैं क्या करने वाला हूं। मैंने एक पैर मोड़ा और घुटने पर टिका कर कहा... “देखो शाज़िया, मैं ज़्यादा देर ऐसे नहीं बैठ सकता, इसलिए ऐसे पूछ रहा हूं – मेरी ज़िंदगी का जितना भी सफर बचा है उसमें मेरे साथ चलोगी?” शाज़िया चश्मे के पीछे से झांकती अपनी धुंधली आंखों से मुझे देखती रही, वो जानती थी कि जो मैं कह रहा था वो आसान नहीं था। वो मुस्कुराई और मैंने साफ देखा उसकी आंखों में उमड़ते आंसुओ को.... ये ज़िंदगी कितनी छोटी है ना... इस छोटी सी ज़िंदगी में जो कुछ भी आप करना चाहते हैं... कर लेना चाहिए... क्योंकि वक्त सब चुरा ले जाता है और आखिर में सिर्फ तन्हाई बचती है। शाज़िया ने अपना कांपता हुआ हाथ मेरे हाथ पर रख दिया।
उसके हाथ की छुअन से बहुत सालों बाद मैंने अपने अंदर एक सिहरन महसूस की थी। हम अपनी खुशियों का फैसला खुद कर रहे थे, लेकिन अक्सर हमारे फैसले हमारे नहीं होते। ये ज़माने के रवायतों के खिलाफ था कि मैं इस उम्र में,वो भी अपनी बीवी के गुज़रने के बाद उस तरह...
मैंने अपनी ख्वाहिश जब बेटे विपिन को बताई तो घर में जैसे ज़लज़ला आ गया। समाज, रिश्तेदारी, लोग क्या कहेंगे, और ना जाने कौन-कौन सी दलीलें घर की दीवारों के बीच गूंजने लगीं। घर का हर कोना, हर दीवार मुझे किसी गुनाहगार की तरह घूर रहा था
“ये आप क्या कर रहे हैं पापा... .सोचा है आपने कि लोग क्या कहेंगे... हसेंगे आप पर कि इस उम्र आप....” विपिन चिल्ला रहा था और मैं उसे एकटक देख रहा था “कहीं आप ये सब इसलिए तो नहीं कर रहे ताकि शर्मिंदगी की चलते हम आपका मकान छोड़कर चलें जाएं” फिर पीछे हटकर बोला “ओह, अब समझा, लेकिन अब्बा आपको ये सब करने की ज़रूरत नहीं, हम खुद ही चलें जाएंगे.. बहुत जल्द” कहकर वो पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया।
वो रात मैं भूल नहीं सकता। जितनी लंबी थी उतनी ही काली भी। मैं बिस्तर के बगल में रखा ड्रावर खोला और गौर से देखा... वहां एक कंगन रखा था। हां, मैंने शिखा के दो कंगन में से एक ही कंगन उसकी अस्थियों के साथ बहाया था... क्योंकि दूसरा तो मेरे जीने का सहारा था। वो हमेशा मेरे पास रहा। मैंने उसे अपने हाथ में उठाया और देर तक उसे महसूस करता रहा।
सुबह साढ़े चार बजे अलार्म की आवाज़ से मैं रोज़ की तरह उठा लेकिन वो आम सुबह नहीं थी। खिड़की से टिककर बाहर देखा तो सूरज निकलने की तैयारी में था, परिंदे चहचहा रहे थे, सब कुछ नया था, जैसे आज ही बनाया गया हो। जैसे ये एक नई दुनिया का पहला दिन हो और इस पहली सुबह को देखना वाला मैं पहला शख्स।
तकरीबन डेढ़ घंटे के बाद मैं अपने अपार्टमेंट की से निकल रहा था, तो वही टाइम था जब मैं रोज़ाना सैर पर निकलता था, लेकिन आज मेरे हाथ में एक बैग भी था। मैं अपने नए सफर पर निकल चुका था, पार्क के अगले मोड़ पर शाज़िया मेरा इंतज़ार कर रही थी। दुनिया आज रोज़ाना से कुछ ज़्यादा खूबसूरत लग रही थी।
सुबह सवा सात बजे जब मैं और शाज़िया ऊंटी जा रही ट्रेन में बैठे थे। खिड़की से दिल्ली के प्लैटफॉर्म को पीछे छूटते हुए देख रहे थे, तो मैं सोच रहा था कि विपिन ने अबतक वो ख़त पढ़ लिया होगा, जिसे मैं टेबल पर छोड़ आया था, जिसमें लिखा था –
विपिन बेटा,
दुनिया में औलाद और मां-बाप की ये कहानी हज़ारों बार दोहराई जा चुकी है... पर ये कहानी है कि कभी पुरानी नहीं होती... ये कहानी तब तक दोहराई जाएगी जब तक औलादें उतनी मुहब्बत अपने मां-बाप से करना नहीं सीखेंगी... जितनी वो उनसे करते हैं। तुम्हें ये शक था कि मैं इस घर के लिए ये सब कर रहा हूं... तो फिक्र मत करो... घर तुम्हारे नाम कर दिया है बेटा... तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। मैं ही जा रहा हूं... और नाराज़ नहीं हूं... बहुत खुश हूं क्योंकि मैं वहां जा रहा हूं जहां मेरे साथ वो है जिसे मेरी खुशी की परवाह है... ज़माने के चार लोगों की नहीं।
मुझे उन चार लोगों की परवाह तब भी नहीं थी जब तुम ने एक रोज़ कहा था कि तुम एक रशिया की लड़की से शादी करना चाहते हो... जिसे न हमारे संस्कार पता थे, ना भाषा, ना तरीके... पर मैं तुम्हारे साथ था क्योंकि तुम उसे चाहते थे... तब इसी तरह के सवाल मेरे सामने भी थे, लोग क्या कहेंगे, दुनिया सवाल करेगी, वगैरह-वगैरह लेकिन मैंने वो किया था जिसमें तुम्हारी खुशी थी।
ख़ैर, अफ़सोस ना करना। कभी मन किया तो आ जाऊंगा, मिखाइल से मिलने। खुश रहो
विपिन के हाथ में वो कागज़ कांप रहा था... और एक ट्रेन तेज़ रफ्तार में धड़धड़ाते हुए कहीं चली जा रही थी जिसकी आमने सामने की दो सीटों पर दो मुस्कुराहटें एक दूसरे में अपनी बची हुई ज़िंदगी की खुशियां तलाश रही थीं... और एक कलाई में चमक रहा था एक पुराना कंगन... जो फिर नया-नया सा लग रहा था।
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