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सोशल मीडिया पर आप देखते होंगे कि जैसे ही किसी शायर, कवि या साहित्यकार के निधन की ख़बर आती है, थोड़ी देर बाद कुछ लोगों के संस्मरण दिखाई देने लगते हैं... हर कोई लिखने लगता है कि जब मैं उनसे मिला था... तो उन्होंने ये कहा था.. जब वहां टकराए थे तो ये बात हुई थी। हमने ये खाना खाया था, उनकी शादी में मिले थे वगैरह वगैरह... आप को असल बात बताऊं... ये नब्बे परसेंट पोस्ट झूठे होते हैं। क्योंकि ये मौका परस्त लोग सोचते हैं कि जिसके बारे में लिख रहे हैं, अब वो तो आकर बता नहीं सकता कि नहीं.. भई ये सब बातें झूठी हैं... मैं तो इस आदमी को जानता भी नहीं हूं। कौन है ये आदमी... इसी का फायदा उठाते हुए लोग... भर भर कर संस्मरण लिखते हैं... और अपना कद बढ़ाते, पढ़ने वाले सोचते हैं कि वाह इनका तो बड़े-बड़े लोगों के साथ उठना बैठना था।
अभी दो रोज़ पहले की बात है उर्दू अदब के एक बड़े शायर अज़ीम फैसलाबादी साहब का इंतकाल हो गया। काफी नामी शायर थे। दुनिया जहान में उनकी पहचान थी। अज़ीम साहब की जाने की ख़बर आई आई ही थी कि लीजिए पोस्ट्स की लड़ी लगने लगी। हमारे एक दोस्त हैं शुक्ला जी... जो लोकल न्यूज़पेपरों में अपनी शायरी छपवाते हैं, वो भी खुद पैसा देकर... ‘ज़ख्मी’ नाम से... यही तखल्लुस है उनका... यानि उपनाम.... तो जिस वक्त अज़ीम साहब का इंतकाल हुआ... थोड़ी ही देर बाद मुझे ज़ख्मी साहब का पोस्ट दिखाई दिया... लिखा था
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अभी नहीं जाना था अज़ीम साहब... अभी तो बहुत काम करना था आपको... पिछली बार जब झूंझनू में आपसे मुलाकात हुई थी तो आपने मुझसे कहा था कि ज़ख्मी तुम्हारी शायरी में जो वज़न है.... जो रंग है, जो धार है... वो इस ज़माने से बहुत आगे की है.... आज आपके जाने से मुझे लग रहा है जैसे मैं अकेले हो गया हूं... मुझे याद आ रही है वो मसूरी की सर्द शाम जब मुशायरे के बाद आपने मुझे अपना कलम देते हुए कहा था कि ज़ख्मी तुम ही मेरे बाद मेरी विरासत संभालोगे.... खलेगा आपका जाना अज़ीम साहब...
हक़ीकत ये है कि ज़ख्मी साहब ज़िंदगी में कभी अज़ीम साहब से नहीं मिले... इनकी तो उन्नाव में ठठेरे वाली गली में पुराने बर्तनों पर पॉलिश करने की दुकान थी। शायरी से ज़ख्मी साहब का रिश्ता बस इतना था कि मोहल्ले में पंद्रह अगस्त और 26 जनवरी को झंडा फहराने के बाद दो मिनट का भाषण देते थे जिसके आखिर में शेर कहते थे कि
मैं तो अकेले ही चला था जानिब ए मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
लोग तालियां बजाने लगते थे... बस इतना ही रिश्ता था इनका शायरी से... और दो चार शायरों का नाम जानते थे... लेकिन माहौल ऐसा बना रखा था ज़ख्मी साहब ने कि पूछिए मत.... मोहल्ले के सब लोग समझते थे कि ज़ख्मी साहब बहुत मशहूर हैं, इनकी बड़ी पूछ है। और समझते भी क्यों न... दोपहर हो या शाम किसी भी वक्त कोई उनके घर पहुंचकर आवाज़ दे
“अमां, ज़ख्मी साहब...” तो ज़ख्मी साहब जो लैट्रीन में बैठे फ़ारिग हो रहे होते थे... जल्दी से बाहर आते नाड़ा कसते और पास में रखी बीवी का शॉल लपेटते हुए बुज़ुर्गाना अंदाज़़ में खांसकर दरवाज़ा खोलते...
-“कौन हैं भई, अरे बाबू भाई आप”
-“जी, आदाब अर्ज़ है ज़ख्मी साहब, डिसटर्ब तो नहीं किया?”
-“नहीं डिस्टर्ब तो क्या, बस मेयर साहब से फोन पर बात चल रही थी। उन्होंने कोई किताब-विताब लिखी है। मुझसे कह रहे थे विमोचन पर आप का आना ज़रूरी है। अब देखिए जा पाता हूं या नहीं, इतनी मसरूफ़ियत है कि हालात इज़ाज़त नहीं देते। वैसे बड़े ज़िद्दी आदमी हैं मेयर साहब”
उन्नाव में बर्तन वाली दुकान चलाने वाले ज़ख्मी साहब झूठे ज़रूर थे लेकिन कभी किसी का नुकसान नहीं किया। झूठ सिर्फ बोलते थे ताकि जवानी का वो ‘बड़ा साहित्यकार बनने का ख़्वाब’ जो अधूरा रह गया, उसे फर्ज़ी ही सही, कुछ हद तक जी तो सकें। और सोशल मीडिया के दौर में ये मुश्किल भी नहीं था।
उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट को पान की वो दुकान बना रखा था जिसमें फ़िल्मी सितारे और नेताओं की, उसी दुकान पर पान खाती तस्वीरें होती हैं। अंदर की बात ये है, कि ये सब तस्वीरें फ़र्ज़ी थीं।
ज़ख्मी साब इतवार को सदरी की जेब में कई रंग के पेन लगा कर घर से निकलते और मोबाइल से पोस्ट डालते, “मुख्यधारा के प्रमुख साहित्यकारों के साथ ‘नई हिंदी के नए रूप’ विषय पर चर्चा में शामिल रहूंगा।” और फिर किसी दूसरे मोहल्ले में किसी दूर के रिश्तेदार के घर चले जाते ताकि कोई देख न पाए और सब समझे कि गोष्ठी में गए हैं। वहां बैठे बैठे फेसबुक पर किसी गुज़र चुके बड़े शायर या कवि के बारे में पोस्ट लिखते...
“उफ्फ़, फलां साहब आपका जाने की ख़बर सुनकर अबतक सदमें में हूं। पिछली सर्दियों में आपके साथ आपके मोहान वाले घर में हुई मुलाकात याद आ रही है। जब आपने मुझे भुनी हुई मटर की फलियां खिलाई थीं। काश, आपके बुलाने को मैं टालता नहीं, एक आख़िरी मुलाकात और हो जाती। अफ़सोस”
मगर एक बार का किस्सा है जब ज़ख्मी साहब बुरे फंस गए थे... बड़ा दिलचस्प किस्सा है... किस्सा उनकी शादी से पहले का है... जो आज की शुक्लाइन हैं... यानि उनकी पत्नी कावेरी जी... उनसे मुलाकात हुई थी कानपुर यूनिवर्सिटी में... हालांकि वो अलग डिपार्टमेंट में थीं... लेकिन शुक्ला जी यूनिवर्सिटी की लिटरेचर सोसाइटी के मेंबर थे... वहीं कावेरी जी भी मेंबर थीं... वहीं मुलाकात हुई... आंखे चार हुई... प्यार हुआ... इकरार हुआ... और दोनों ने साथ साथ शादी करने का फैसला कर लिया। अब मामला यूं था कि झूठ बोलने की आदत शुक्ला साहब की तब भी थी... उस ज़माने में कानपुर के चमन गंज से सवेरा नाम की एक मैगज़ीन निकलती थी... उसमें अपनी गज़ल आर्टिकल छपवाते थे रिश्वत देकर और जब छपने को हो जाती थी तब कावेरी जी को मुलाकात के लिए बुलाते और फिर जानबूझ कर नहीं जाते... शाम को कावेरी जी फोन करती...
तो इसी तरह इन्होंने कावेरी जी को पटाया और शादी के लिए मनाया। कभी कभी यूनिवर्सिटी कैंटीन में इनसे पूछती “अच्छा सुनो, तुम वो आतिश साहब को जानते हो” खाने की मेज़ पर वो पूछती “अरे जो नज़्में लिखते हैं”
ये निवाला गटकते हुए एक्टिंग करते, “ओह... यू मीन खां साहब... अरे बिल्कुल, पुराने दोस्त हैं हमारे। आ रहे हैं अप्रैल में, मिलवा दूंगा”
“थैंक्यू, अच्छा उनको भी जानते हो क्या? वो...पंकज पुलकित.. लघु कहानी वाले”
- पंकज पुलकित… वो सर ऊपर करके याद करने की एक्टिंग करते हुए ठुड्डी खुजलाते... फिर कंफर्म करने के लिए पूछते, “ज़िंदा हैं?” वो कहती, “नहीं, दो-ढाई साल पहले इंतकाल हुआ” बस इतना सुनते ही बेफ़िक्र हो जाते
- “अरे अपने पंकज की बात कर रही हो।” चौड़िया कर कहते, “पंकज तो मेरे साथ ग्रेजुशन में था। बादशाहनगर से ‘गणतंत्र’ नाम का अख़बार निकालता था उन दिनों। अरे पीछे पड़ा रहता था कि कुछ लिख दीजिए, लिख दीजिए.. चटनी उठाना... बेचारा जल्दी चला गया”
ज़ख्मी साहब का तरीका गज़ब था। बस पता चल जाए कि कोई बड़ा लेखक ज़िंदा नहीं है, फ़ौरन उससे हुई मुलाक़ात के किस्से गढ़ लेते थे। शादी से पहले के उन्हीं दिनों में एक दिन इनको पता चला कि देश के मशहूर राइटर इंतखाब असलम साहब नहीं रहे।
शाम को उनका फोन बजा, “हैलो” दूसरी तरफ से कावेरी जी की सुबकती आवाज़ थी। “ये..ये मैं क्या सुन रही हूं। लोग कह रहे हैं कि इंतखाब असलम साहब नही रहे... अब ये हकीकत की बात ये थी कि ज़ख्मी साहब उन्हें नहीं जानते थे... लेकिन जब कावेरी जी ने पूछा तो बोले
अरे जानते क्या थे... हमारे बहुत अज़ीज़ थे... फतेहपुर में तो रहते थे... कई बार टेलीफोन पर बात हुई है। एक बार एक मुशायरे में मिले तो हमारे लिए वो पीला धारीदार स्वेटर लाए थे... वो पहनता नहीं हूं मैं जो... नीली धारियों वाला....
हां हां.. वो उनका दिया है
और क्या.... अरे बस अब क्या बताएं.... लग रहा है सब खत्म हो गया।
कावेरी बोलीं. काश मुझे पता होता... मैं... मैं बहुत बड़ी फैन थी उनकी... एक बार मिल लेती आपके ज़रिए...
अब वो क्या कहते हैं कि सयाना कव्वा कहीं जाकर गिरता है... वहीं वाली कहावत उस दिन सच हो गया। हुआ यूं कि थोड़ी देर में खबर आई कि असलम साहब के इंतकाल की खबर फर्ज़ी थी। वो सिर्फ अस्पताल में भर्ती हुए थे... पर अब ठीक हैं। लीजिए साहब ज़ख्मी साहब के लिए मुसीबत हो गयी। कावेरी जी कहने लगी... लगता है ऊपर वाले ने हमारी सुन ली... अब बताइये कि कब मिलवा रहे हैं...
मारे गए गुलफाम लेकिन अब रास्ता कुछ था नहीं.... क्योंकि कावेरी महीनों तक रोज़ाना ज़ख्मी जी से ज़िद्द करती रहती कि आज मिलवा दीजिए.. कल मिलवा दीजिए। पता चला कि अब वो इसी शहर में रहने लगे हैं... फिर तो और आफत हो गयी। मरता क्या ना करता, कुछ तो सोचना ही था। इनको एक रोज़ पता चला कि इंतखाब असलम साहब हर मंगल को अपने फैंस से मिलते हैं। बस उन्होंने सोचा कि ऐसा करेंगे कि उसी में चले जाएगे कावेरी को लेकर लेकिन वहां बिहेव ऐसे करेंगे कि जैसे इंतखाब असलम साहब से पुरानी दोस्ती है। पर ये बात आसान नहीं थी।
मंगलवार की ख़ासियत ये है कि हर हफ्ते आता है... कब तक टाला जाए... एक मंगलवार कावेरी जी शुक्ला जी उर्फ ज़ख्मी साहब को लेकर पहुंच गयी इंतखाब असलम साहब के घर। मंगल था इसलिए और भी फैंस आए थे। वो एक बड़ी सी पुरानी हवेलीनुमा इमारत थी जिसके आगे हरियाली वाला मैदान था। बाहरी दीवारों पर बड़ी-बड़ी खिड़कियां थीं। मुख्य दरवाज़े से एक लंबी सी गैलरी अंदर जाती थी जिसके दोनों तरफ़ रंग-बिरंगी तस्वीरें लगी थीं। गैलरी एक लॉबी में खत्म होती थी जहां बेंत की कुर्सियों पर मिलने आए प्रशंसकों के बैठने का इंतज़ाम था। सबसे आगे एक रिवॉलविंग कुर्सी खाली थी जिस पर इंतंखाब साब को बैठना था।
“ये, ये झूमर देख रही हो” ज़ख्मी ने गैलरी से गुज़रते हुए दीप्ती से कहा, “ये मैंने ही इन्हें तोहफे में दिया था... ज़र्मनी से मंगवाया था एक दोस्त से कह कर... मैं लाया तो बोले... अरे क्यों इतना महंगा ले आए.. अरे मैने काह आप से मंहगा थोड़ी है... कावेरी मुस्कुराई। दोनों लॉबी में पहुंच गए, जहां कुछ लोग पहले से थे।
सबसे आगे की सीट पर बैठे, वो दोनों इंतज़ार कर ही रहे थे कि मुंह में पान दबाए, कंधे पर शॉल ओढ़े इंतखाब साहब व्हील चेयर पर बैठे हुए नाज़िल हुए... पीछे एक लड़की उनकी कुर्सी ढकेल रही थी। सब खड़े हो गए। उन्होंने बैठने का इशारा किया।
“तो अब कैसी है तबियत” ज़ख्मी साहब ने कॉमन सवाल पूछा ताकि कावेरी को लगे जान-पहचान है।
इंतखाब साहब ने ऊपर की तरफ का इशारा किया.. शायद कहना चाहते थे कि सब ऊपर वाले के करम से ठीक है... जैसे ही उन्होंने ऊपर का इशारा किया... ये कावेरी से बोले...देखो... झूमर की तरफ इशारा कर रहे हैं... शुक्रिया कह रहे हैं...
फिर इंतखाब साहब ने सभी लोगों से कहा “बस आप लोगों की दुवाओं ने बचा लिया वरना अफवाहों के हिसाब से तो आप लोग मेरे चालिसवें में आए होते आज...”
हॉल में हलकी हंसी गूंजी तो सागर साहब अपनापन दिखाने के लिए ज़्यादा ज़ोर से हस दिए। “हेहेहे आप तो बिल्कुल नहीं बदले, इंतखाब साहब” सन्नाटे में आवाज़ तेज़ गूंज गयी। इंतखाब साब ने अबकी उनकी तरफ सवालिया नज़र से देखा तो घबरा गए, झेंपते हुए इधर-उधर देखने लगे।
ख़ैर, बातचीत आगे बढ़ी, तमाम लोगों से इंतखाब साब बात करते रहे। ये हर बात में “हां देखिए अब क्या ही किया जाए... हवा ही कुछ ऐसी चल रही है... या फिर अब भाई अज कल के हालात तो आपको पता ही हैं... इसी तरह के जुमले बोलते रहे... कुछ देर बाद लोग उनके ऑटोग्राफ लेने के लिए बढ़े तो कावेरी ने कहा...
मुझे भी चाहिए... चलो ना। ये सिटपिटाए। बोले, “अरे देखो, कितनी भीड़ है”… “अच्छा, धक्का मत दो, चल रहे हैं... वश रूम हो आएं”
ये वॉशरूम से वापस आए तो देखा कि कावेरी खुद ही इंतखाब साहब की व्हील चेयर के पास खड़ी थी... इनको भी जाकर खड़ा होना पड़ा... इनको देखती ही इंतखाब साहब से बोली... “आपके पुराने दोस्त ज़ख्मी बड़ी तारीफ़ करते हैं आपकी. फिर माहौल हल्का करने के लिए कहा अब देखिए न... आप के लिए झूमर ले आए... जर्मनी से... हमारे लिए तो आजतक एक फूल भी न लाए...
हैं... इंतखाब साहब के चेहरे पर यही भाव थे... चेयर पर बैठे बैठे पान चबाते हुए इनका थोबड़ा ग़ौर से देखते हुए याद कर रहे थे कि कौन है ये चिलगोज़े जैसा आदमी... उन्होंने कहना शुरु किया.... देखिए.. माफ कीजिएगा... लेकिन मैंने आपको..प...
ओके... ओके... कावेरी कुछ हड़बड़ाई सी पीछे हो गयी....
ये जल्दी से इंतखाब साहब की व्हील-चेयर को चलाते हुए एक खंबे के पीछे ले गए.... वहां रोकी और उनके पैरों में गिर गए।
“सर, सर... बचा लीजिए सर.. बस... इज़्ज़त-बेइज़्ज़ती सब आपके ही हाथ में है इस वक्त”
“अरे, अरे कौन है आप उठिये” वो चीखे तो ये बोले, “हम, हम शुक्ला नाम है हमारा.. लोग ज़ख्मी ज़ख्मी कहते हैं” फिर इन्होंने पैरों पर लेटे-लेटे इंतखाब साहब को मामला समझाया। तभी कावेरी वहां आ गयी... “अरे ये.. ये क्या”
“अरे उस्ताद हैं हमारे” ज़ख्मी खड़े होकर कपड़े झाड़ते हुए बोले, “जब भी मिलता हूं ऐसे ही प्रणाम करता हूं।”
उन्होंने डरते-डरते इंतखाब साब की तरफ देखा। फिर ‘प्लीज़’ के इशारे में नाक सिकोड़ी। उनके चेहरे पर गुस्सा तमतमा रहा था। ज़ख्मी साहब को लगा कि आज तो गए काम से... भंडा फूटमे वाला है... लेकिन तभी इंतखाब साब की आवाज़ गूंजी.... “हां, लेकिन इतनी बड़ी बात तो नहीं थी... कि तुम मिलना ही छोड़ दो...
हाए.... ज़ख्मी साहब को ऐसा लगा जैसे सारे ज़ख्म भर गए। बोले, “अब क्या कहें... आप गुस्सा थे... तो ज़रा गुस्सा हमें भी आ गया। अच्छा छोड़िये... ये मेरी होने वाली पत्नी हैं... आपका ऑटोग्राफ चाहती हैं”
हां हां क्यों नहीं, ले लीजिए.... लाइये कागज़ लाइये...
उन्होंने ऑटोग्राफ दिया... कावेरी ने शुक्रिया बोला और कहा, आप लोग बात कीजिए. मैं पुराने दोस्तों की बातचीत के बीच खलल नहीं बनूंगी।
वो जैसे ही गयीं। इंतखाब साहब ज़ोर का ठहाका लगाकर हंसे... और बोले.. गज़ब ही कर दिया आपने हुज़ूर जो भी नाम है आपका... और हां, ये झूमर जर्मनी से नहीं, मैंने एक कबाड़ी वाले से खरीदा था। दोनों लोगों ने ज़ोर का ठहाका लगाया और कावेरी उन्हें दूर से देख कर मुस्कुरा रही थी। उन्हें लग रहा था कि पुराने दोस्त बहुत दिन बाद बीते दिनों को याद कर रहे हैं।
अगले दिन मैंने यूनिवर्सिटी की कैंटीन में ज़ख्मी साहब को किसी से कहते सुना था – नहीं, यार मैं तो समोसा नहीं खाउंगा... असल में कल... जो.. ये नहीं है... इंतखाब असलम साहब... उनकी तबियत कुछ नासाज़ थी हॉस्पिटल गए थे... तो मौत की झूठी खबर ही उड़ गयी थी। तो हमारे पुराने जानने वाले हैं... किसी से कहलाया कि भई मिलने आ जाओ... तो गए थे... खाना वगैरह वहीं खाया... पेट में कुछ बदहज़मी हो गयी... तुम लोग खाओ... मैं तो बस चाय पियूंगा... लाओ भाई चाय लाओ....
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