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कहानी | कभी मैं, कभी तुम | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीकी

कॉफी का रंग घुलने लगा था। बावर्ची खाने में आंखों के कोरों पर ग़म को पोंछते हुए ज़ैनब चाय की पत्ती का डिब्बा ढूंढने लगी। दूसरी शादी का पहला दिन था वो। सब कुछ कितना अजनबी लग रहा था वहां। वो दीवारें, वो शेल्फ़, वो बर्तन... जैसे वो किसी अंजानी सड़क से गुज़र रही हो और तमाम अजनबी आंखें घूर रही हों। एक मां के तौर पर भी उसे खुद से शिकवा था, इस रिश्ते के लिए उसने अपने बच्चे को छोड़ दिया था - सुनिए पूरी कहानी 'कभी मैं, कभी तुम' जमशेद कमर सिद्दीक़ी से

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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
  • नोएडा ,
  • 10 नवंबर 2024,
  • अपडेटेड 1:16 PM IST

कहानी - कभी मैं, कभी तुम
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

ज़ैनब ने आंखे खोलीं तो ज़िंदगी नयी नयी थी। उसने एक सरसरी नज़र पूरे कमरे पर घुमाई और वो कमरे को देखने लगी। नयी दीवारें, सामने रखी नयी दीवारें, नया माहौल... कल रात ही ज़ैनब इस घर में दुल्हन बनकर आई थी। उसकी आंखों पर चिपका चमकीला अफशां पूरी तरह मिटा भी नहीं था। हाथों में मेहंदी रची हुई थी। पर अगर घर को देखिए तो वो शादी वाला घर नहीं लग रहा था। सिवाए उस कमरे में रखे कुछ नए तोहफों के सब कुछ एक आम दिन जैसा लग रहा था। वो इसलिए भी था क्योंकि ज़ैनब और मीर की शादी सादगी से हुई थी। दोनों तरफ के घर वालों को लगता था कि दूसरी शादी में धूमधाम की क्या ज़रूरत है। दूसरी शादी तो बस एक समझौता होती है। उसने बिस्तर के दूसरी तरफ मुंह कर के लेटे मीर साहब को देखा, जो अभी तक सोए हुए थे। कान के पास उनकी कलमों पर कुछ सफेद बाल थे। ज़ैनब ने देखा और फिर उठकर बैठ गयी। उसने फोन उठाया और कॉल गया। दूसरी तरफ से आवाज़ आई
 “हैलो हां ज़ैनब बेटा… सब ठीक तो है ना”
“जी अम्मी। आदिल क्या कर रहा है” उसने पूछा और बात करते हुए बाथरूम में आ गयी।
“आदिल... अभी तो सो रहा है। थोड़ी देर में स्कूल के लिए तैयार करूंगी।” फिर ठहर कर बोलीं, “तुम फिक्र मत करना मैं और उसके नाना हैं उसकी देखभाल के लिए। तुम अब.. अब अपना देखो। ज़िंदगी सबको, दूसरा मौका नही देती बेटा, हां? बस तुम मीर का ख्याल...”
- “हां मम्मी..” ज़ैनब ने बात काटते हुए कहा, “अब मेरी ज़िंदगी में सिर्फ मीर ही तो हैं और सब तो ख़त्म हो गया”
- ऐसी बातें क्यों कर रही हो बेटा... – मीर बहुत अच्छे इंसान है... और फिर जिन हालात से तुम गुज़री हो, वो भी उसी से गुज़रे हैं, इसलिए समझेंगे तुम्हें। देख समझ कर ये रिश्ता किया गया है। और अभी कुछ दिन तो दो इस रिश्ते को... इतनी जल्दी मन बनाने लगोगी तो कैसे चलेगा.।  
इस एक रिश्ते के लिए ज़ैनब को क्या-क्या छोड़ना पड़ा था। अपनी ज़िद, पहले शौहर अदीब की यादें और... और चार साल का बेटा आदिल भी। (इस कहानी को आगे पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। और अगर इसी कहानी को जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनना हो तो नीचे दिये लिंक पर क्लिक करें)

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ज़ैनब की नम आंखों से कई उदास यादें बहने लगी। सामने बर्तन में उबलते पानी की तरह मन में बेचैनिय़ां उबाल मार रही थीं। कितनी खुश थी वो आदिल के साथ, ज़िंदगी कितनी खूबसूरत थी। छोटा सा घर, प्यार करने वाला शौहर और पेट में एक आठ महीने की जान। कितनी खुशरंग थी ज़िंदगी चार साल पहले। लेकिन... लेकिन सड़क हादसे में अदीब की मौत ने सब कुछ यूं मिटा दिया जैसे वक्त सजी हुई रंगोली पर पैर रखकर गुज़र गया हो।
कई हफ्ते रोते हुए, कई महीने उदासी में और कई साल इस फ़ैसले में साथ गुज़ारे थे ज़ैनब ने... कि वो दूसरी शादी नहीं करेगी और शायद करती भी नहीं, अगर मम्मी-पापा और रिश्तेदार ज़िद न करते।
“बहुत अच्छा रिश्ता है, बड़ी किस्मत वाली है ज़ैनब” मीर का रिश्ता आने पर चाची ये दसियों बार कह चुकी थीं। “सरकारी नौकरी है, बढ़िया कमाता खाता है। पहली बीवी छोड़कर चली गयी तो क्या, आजकल लड़कियां भी तो कितनी तेज़ हो गयी हैं। मैं तो कहती हूं फौरन हां कर दीजिए”
मम्मी-पापा बार-बार ज़ैनब की तरफ उम्मीद से देखते थे और ज़ैनब उनके चेहरे की मायूस सिलवटों को पढ़ने की कोशिश करती। जवान बेटी की फिक्र में मां-पापा अपनी उम्र से आगे चल रहे थे। बहुत मिन्नतें, तमाम गुज़ारिशों के बाद आख़िरकार ज़ैनब ने वही किया जो तमाम लड़कियां करती हैं, अपनों की खुशी के लिए अपनी ख्वाहिशों से मुंह फेर लिया।
 
कॉफी का रंग घुलने लगा था। बावर्ची खाने में आंखों के कोरों पर ग़म को पोंछते हुए ज़ैनब चाय की पत्ती का डिब्बा ढूंढने लगी। सब कुछ कितना अजनबी लग रहा था वहां। वो दीवारें, वो शेल्फ़, वो बर्तन... जैसे वो किसी अंजानी सड़क से गुज़र रही हो और तमाम अजनबी आंखें घूर रही हों। मां के तौर पर भी उसे खुद से शिकवा था, इस रिश्ते के लिए उसने अपने बच्चे को छोड़ दिया।
असल में, शादी के वक्त मीर की मम्मी ने जब ज़ैनब के बेटे आदिल के बारे में सवाल किया तो ज़ैनब की मम्मी ने बिना ज़ैनब से पूछे, उन्हें कह दिया था कि आदिल को वो अपने पास ही रखेंगी। उन्हें डर था कि आदिल की वजह से हाथ आया रिश्ता निकल न जाए।
“काफ़ी का मग उधर है” तभी एक आवाज़ से ज़ैनब चौंक गयी। पलट कर देखा तो सिल्क का कुर्ता पहने मीर खड़े थे। “सलामवालेकुम” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा तो ज़ैनब ने सादा लहजे में कहा “वालेकुमसलाम
“ये लीजिए” मीर ने शेल्फ से उतारकर मग ज़ैनब को पकड़ाते हुए कहा “थोड़ी स्ट्रांग बनाइयेगा प्लीज़ सर घूम रहा है” उन्होंने कहा तो ज़ैनब के हाथ ठहर गए। यादों के ठहरे पानी में किसी ने पत्थर उछाल दिया जैसे। अदीब को स्ट्रांग काफी बिल्कुल पसंग नही थे... जब जैनब कॉफी बनाती तो वो बीच वाले कमरे से आवाज़ लगाते... अरे सुनो... काफी लाइट रखना... काढ़ा मत बना देना बिल्कुल
बात छोटी सी थी लेकिन उदास मन, उदासी की वजहें ढूंढता है। काफी मिकालते हुए ज़ैनब की आंखे पिघली जा रही थी। थोड़ी देर बाद दोनों एक बड़ी सी मेज़ के आमने-सामने बैठे थे।
“कूकीज़ लो” मीर साहब ने कहा तो उसने ना में इशारा कर दिया। “आदिल ठीक है?” उन्होंने सिप लेते हुए पूछा। ज़ैनब ने बस जी में सर हिला दिया।
ज़ैनब और मीर साहब के बीच कोई नाइत्तिफाकी नहीं थी लेकिन बस एक दूरी थी जो काफी वक्त गुज़रने के बाद भी बनी रही। उनके बीच एक तकल्लुफ था। दीवार पर लटके कैलेंडर पर तारीखें हफ़्तों में बदली जा रही थीं लेकिन ज़ैनब और मीर के बीच रिश्ता वैसा ही रहा। कमरों के दरवाज़ों, रसोई में खड़े हुए, वो एक-दूसरे के करीब से निकलते तो ऐसे निकलते कि छू न जाएं। वक्त फासलों को कम नहीं कर पाया था।
“ज़ैनब, आ.. वो मम्मी का फोन आया था...” एक दोपहर मीर साहब ने ज़ैनब से कहा जब वो अपने मोबाइल पर आदिल की तस्वीरें देख रही थी।
“जी?”  उसने हड़बड़ाकर कहा
“हां, वो.. आ.. वो कह रही थी कि हम दोनों को ... कहीं घूम आना चाहिए"
ज़ैनब कुछ देर उसकी आंखों में देखती रही। फिर “मन नहीं है अभी” कहते हुए उसने नज़र हटा ली “आई मीन, तबियत भी कुछ ठीक नहीं, तो....”
नाराज़गियां लफ्ज़ों में नहीं, लफ्जों के बीच छोटी-छोटी खामोशियों में दर्ज होती हैं। मीर जान गए थे कि वो नहीं चाहती उनके साथ कहीं जाना। मीर ने दोबारा इस बारे में बात नहीं की लेकिन चेहरे पर ये मलाल साफ़ दिखता था।
ज़ैनब के दिन खामोशी में बीत रहे थे। उस नए रिश्ते में, सब कुछ नया था, नए घर की तरह। काले-सफेद फर्श पर चलने पर ज़ैनब के तलवों में जो ठंड लगती थी, उसकी आदत नहीं पड़ी थी। फ्रिज का दरवाज़ा कितनी ताकत से बंद करना है, कि ज़ोर से आवाज़ न हो, वो अभी समझ रही थी। मोटा कंबल और पतला कंबल बेड के स्टोरेज में किस तरफ़ रखा है, याद नहीं हुआ था। और ये सब तो उसे धीरे-धीरे याद हो जाना था लेकिन मीर.. मीर के साथ उसकी नज़दीकियों को शायद बहुत, बहुत वक्त लगना था अभी।
फ्राइडे की एक शाम जैसे ही मीर ये बोलकर घर से निकले, “मैं आता हूं अभी, चौराहे तक जा रहा हूं। कुछ चाहिए हो तो फोन कर देना. ओके” ज़ैनब ने हां में सर हिलाया और उनके जाते ही दरवाज़ा बंद करके फ़ौरन मोबाइल उठा लिया।
“हैलो, मम्मी आदिल से बात करा दीजिए”
“कैसे हो मेरे बच्चे” आदिल की आवाज़ सुनकर ज़ैनब की आवाज़ कांपने लगी।
“आप कब आओगी मम्मी, मुझे मिलना है आपसे” दूसरी तरफ से आदिल की रुआंसी आवाज़ ने ज़ैनब का दिल निचोड़ दिया। “जल्दी आऊंगी बाबू, बहुत जल्द। तुम परेशान मत होना, ओके, और नाना-नानी को तंग मत करना” कहते हुए बहुत मुश्किल से उसने अपनी टूटती हुई सांसे संभाली “रात को सू-सू करके सोना ओके? मैं आऊंगी तो तुम्हारे लिए वो... वो बड़ा वाला जीआईजो लेकर आऊंगी, जैसा रिंकी के पास है ना, वैसा। प्रोमिस... ओके?
बेटे आदिल की रुआंसी आवाज़ ज़ैनब के मन में सिहरन पैदा कर रही थी, उसके कान गर्म हो गए थे और आंसू लगातार गालों पर लुढ़क रहे थे। एक रिश्ते की कीमत, कितने रिश्ते साबित हो रहे थे। वो जितनी देर आदिल से बातें करती रही उतना ज़्यादा गुस्सा उसके मन में मीर के लिए उमड़ने लगा। क्यों हां किया मैंने इस रिश्ते के लिए, क्या ये मुमकिन नहीं था कि मैं पूरी ज़िंदगी सिर्फ अदीब की यादों और आदिल के साथ काट देती, क्यों इंकार नहीं कर पाई मैं आखिर। ये सवाल उसके मन की तहों में फिर से उठने लगे थे।

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दरवाज़े पर दस्तक हुई तो ज़ैनब ने दरवाज़ा खोला। मीर ही थे, उनके हाथों में कुछ पैकेट थे। “तुमने तो कुछ बताया नहीं”, पैकेट मेज़ पर रखते हुए मीर बोले “मैंने सोचा अब क्या खाना वाना बनाओगी, ले आया अपने हिसाब से, मटर-पनीर तो खाती हो ना” उन्होंने वाश-बेसन पर हाथ धोते हुए पूछा। ज़ैनब बिना जवाब, अंदर वाले कमरे में चली गयी।
“आओ, खा लेते हैं, वक्त तो हो ही रहा है”
“नहीं मुझे भूख नहीं है अभी, ज़ैनब ने जवाब दिया, “आप खा लीजिए... मैं थोड़ी देर में खाउंगी।”

ज़ैनब सर पर तकिया रखे जाने कितने आसुओं को ज़ज़्ब करती रही। बार-बार आदिल की रुआंसी आवाज़ याद आ रही थी। पता नहीं मम्मी उसका स्कूल बैग तैयार कर पा रही होंगी या नहीं। आते वक्त मम्मी को समझा कर आई थी कि फ्राइडे को कलर्स-बुक बैग में रखनी होती है और सैटरडे को स्टोरी बुक। पता नहीं वाइट कैनवस के जूते किसी ने धोए या नहीं। सब छोड़ आई थी इस रिश्ते के लिए... जहां सिवाए उदासी के, कुछ नहीं था।
बाहरी कमरे से मेज़ पर बर्तन खटकने की आवाज़ सुनाई देती रही। मीर शायद खाना खा रहे थे। फिर टीवी की आवाज़ आई और कई घंटों टीवी चलता रहा। ज़ैनब बिस्तर पर लेटी याद कर रही थी, कि जब कभी वो अदीब से नाराज़ होकर खाना नहीं खाती, तो शेखऱ इंतज़ार करते थे। वो तब तक नहीं खाते जब तक जाह्वनी मजबूर होकर, भले दो निवाले खाए, लेकिन खाती थी। दूसरी शादी की इमारत मुहब्बत पर कम, समझौते पर नींव पर ज़्यादा टिकी होती है, उसने सोचा। ज़िंदगी ने दूसरा मौका ज़रूर दिया, लेकिन ‘दूसरा’ तो ‘दूसरा’ ही होता है। वो पहले जितना खूबसूरत कहां बन सकता है।
कुछ देर बाद टीवी बंद हुई और कमरे की लाइट भी। मीर कमरे में दाखिल हुए तो ज़ैनब ने आंखे बंद कर ली। मीर खामोशी से उसके बगल में लेटे और साइड लैंप ऑफ़ कर दिया। करवट लेकर लेटी ज़ैनब बहती आंखों से जाने क्या-क्या याद करती रही, क्या-क्या भुलाती रही।
सुबह आंख खुली तो देर हो गयी थी। मीर बिस्तर पर नहीं थे। वो बरामदे की तरफ आई। तभी उसकी नज़र डायनिंग टेबल पर पड़ी, वो चौंक गयी। खाना तो अबतक वैसे ही पैक्ड रखा था। मेज़ पर प्लेट्स वगैरह सजे थे लेकिन जैसे किसी के इंतज़ार में खाली रह गए थे। उसने बरामदे में अखबार पढ़ रहे मीर की तरफ हैरानी से देखा।
“आ...आप ने.. आप ने खाना नहीं खाया?” ज़ैनब ने हड़बड़ाहट में पूछा तो वो मुस्कुराए “हां, आई वॉज़ वेटिंग फ़ॉर यू। तुमने कहा था थोड़ी देर में खाओगी तो सोचा साथ खा लूंगा। बट फिर तुम सो गयी तो... मैंने भी”
कभी-कभी खुद से हारने में हमारी जीत छुपी होती है। ज़ैनब ग़लत साबित हुई थी, उसे खुश होना चाहिए था पर उसके चेहरे पर झुंझलाहट छाने लगी। मीर आखिर क्यों अच्छे बनकर अदीब की जगह ले रहे थे, उनका ये एहसान उसे नहीं चाहिए था। बिल्कुल नहीं।
 
सुनिये, वो .... आप टिकट करवा लीजिए” एक दोपहर ज़ैनब ने कहा तो अलमारी में कुछ ढूंढ रहे मीर ठहर गए “आर यू श्योर?”
- “हां, आप का इतना मन है तो... चल लेते हैं” रूखे लहजे में कहते हुए वो चली गयी। नाराज़गी ज़ाहिर करने का ये भी तरीका होता है कि हम सामने वाले की हर बात मानते चले जाते हैं। वो नहीं चाहती थी मीर उसकी ये बात भी मानकर महान बन जाएं।
मीर उसके मिज़ाज को समझने की कोशिश करते थे। वो देख रहे थे कि ज़ैनब के बर्ताव में एक किस्म की झुंझलाहट शामिल हो गयी थी। ऐसी ही शोर मन में लिए एक शाम जब ज़ैनब ऊपर वाले कमरे की बालकनी पर खड़ी थी तो मीर की आहट से चौंक गई। “मैं सोचूं कहां चली गयी” कॉफी के दो मग लिये मीर ने कहा और फिर दोनों दीवार से टिककर कॉफी पीने लगे। कुछ देर चुपचाप कॉफ़ी पीने के बाद मीर बोले, “क्या हुआ है ज़ैनब, कुछ परेशानी है क्या” ज़ैनब ख़ामोश रही  तो मीर ने फिर कहा, “आदिल को मिस कर रही हो”
“क्या फर्क पड़ता है” ज़ैनब ने फिर झुंझलाकर कहा। “वैसे भी सब मेरी मर्ज़ी से तो हुआ” मीर उसका चेहरा देखते रहे। बोले “अदीब याद आता है तुम्हें? ” ज़ैनब इस बार हड़बड़ा गयी। उसने चौंककर मीर को देखा। “आता ही होगा, वो बोले कैसा बेवकूफी वाला सवाल पूछ रहा हूं” ज़ैनब ने नज़रें फेर ली जैसे चोरी पकड़ ली गयी हो।
पता है ज़ैनब, हम कहें ना कहें, खास रिश्तों की गर्माहट ज़हन में ज़िंदगीभर रहती है and, and there is nothing wrong about it. मेरी पत्नी तो मुझे छोड़कर गयी, फिर भी उसे याद करता हूं। और ऑनेस्टली बताऊं तो... तो तुम्हारे आने के बाद, कुछ ज़्यादा” ज़ैनब की सांसे अटकने लगी। कॉफी मग दीवार पर रखते हुए मीर बोले, “जब तुम किचन में चाय बनाते वक्त अदरक कूटती हो तो याद आता है कि अल्पना, इस तरह नहीं, कद्दूक-कश से अदरक घिसकर डालती थी। और.. और रात को जब तुम साइड लैंप बंद किए बिना सो जाती हो, तो याद आता है कि... कि उसे बिल्कुल अंधेरे में नींद आती थी। आ... आई एम सॉरी, ये सब शायद तुमसे नहीं कहना चाहिए मुझे... लेकिन कह रहा हूं... क्योंकि आई नो कि तुम समझती हो... कि ये कमपैरिज़न इनऐविटेबल है, हम इसे रोक नहीं सकते” ज़ैनब की हथेलियां कसी गयीं।
“पता नहीं, आ.. शायद तुम भी मुझमें अदीब को ढूंढती होगी, या शायद नहीं। मुझे इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं। बीकॉज़ आई नो कि दूसरा रिश्ता हमेशा पहले की कसौटी पर कसा जाता है। बट आई प्रॉमिस, कि जब मैं तुम्हें और तुम मुझे पहचानने लगोगे, तब, तब हम एक-दूसरे में सिर्फ एक-दूसरे को देखेंगे”
ज़ैनब बिना पलक झपकाए मीर को ग़ौर से देख रही थी। शायद मीर वो नही थे, जो वो उन्हें समझ रही थी। उन दोनों की तक़लीफ़ तो साझा थी।
 
ज़िंदगी हमें रिश्तों पर पहला या दूसरा लिखकर नहीं देती, उसे दूसरा-तीसरा हम बनाते हैं। हम भूल जाते हैं कि हर रिश्ता एक नई शुरुआत है। उस नई सुबह की तरह, जिस पर गुज़र चुकी रात का कोई निशान नहीं होता।
ऐसी ही नई सुबह की हलकी रौशनी ज़ैनब के चेहरे पर पड़ी तो आंख खुल गयी। वो रात में बालकनी के पास रखी पुरानी चारपाई पर ही सो गयी थी। कब नींद आ गयी, पता नहीं चला। मौसम में ठंड की हलकी चुभन थी। धुंधलाई रौशनी में उसने सोए हुए शहर पर नज़र डाली, सामने हाईवे पर इक्का-दुक्का गाड़िया दिख रही थीं।
तभी ज़ैनब की नज़र पैरों पर गयी। उसके पैरों में ये मर्दाना मोज़े कैसे आ गए? वो सोई थी तब तो.... किसने आखिर... ज़हन में मीर का मुस्कुराता चेहरा घूम रहा था।
गुड मार्निंग...” कुछ देर बाद ज़ैनब सीढ़ियों से संभलते हुए नीचे आई तो किचन में चाय बना रहे मीर ने कहा। इस बार ज़ैनब ने भी जवाब दिया “गुड मॉर्निंग”
“फ्रेश हो जाओ, ब्रेकफास्ट कर लो और हां, लंच के बाद आदिल से मिलने चलेंगे” उन्होंने कहा तो ज़ैनब मुस्कुरा दी। आगे बढ़ी ही थी कि मीर ने डायनिंग टेबल पर रखे कुछ कागज़ों की तऱफ इशारा करते हुए बोले “और हां टिकट्स करवा लिये हैं, प्रिंटआउट टेबल पर है... डेस्टिनेशन इज़ सरप्राइज”
ज़ैनब ने टिक्ट्स उठाए.. कागज़ पर पैसंजर लिस्ट में दो नहीं, तीन नाम थे मीर, ज़ैनब और ज़ैनब का बेटा आदिल।
ज़ैनब की आंखे के किनारों भीगने लगे। होंठ कांप रहे थे। कागज़ को चेहरे पर रखकर ज़ैनब बिन आवाज़ सिसकने लगी। नज़र मीर पर गयी तो वो उसे देखकर मुस्कुरा रहे थे। पास आए और बोले, “एक बात पूछनी थी, आदिल का फेवरेट कलर क्या है?
 

ज़ैनब ने हैरानी से देखा। वो बोले, “कमरे की दीवार का रंग करवाना है.... क्योंकि लौटने के बाद वो हमारे साथ ही रहेगा”
ज़ैनब की आंखे बरसने लगी थी। ये अजनबी घर अब उसे कुछ कम अजनबी लग रहा था... वो मीर साहब की तरफ बढ़ी और गले लग गयी। उस कमरे में दो अजनबी एक दूसरे के गले से लग गए थे और उनके बीच दूरियां लम्हा-लम्हा कम हो रही थीं। 

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