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कहानी | ससुर जी का पुराना स्कूटर | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद कमर सिद्दीक़ी

उस रात मानव इतिहास में पहली बार एक अनोखा काम होने जा रहा था। एक आदमी जिसे खुद एक काम नहीं आता था वो आदमी वही काम दूसरे को सिखाने जा रहा था. वो काम था स्कूटर चलाना सिखाना. हमने सोचा था कि सिखाने में क्या मुश्किल है बस यही तो कहना है - सामने देखो-सामने देखो, बैलेंस बनाओ-बैलेंस बनाओ... चलाने वाला सीखता तो खुदी है... पर हम ग़लत थे उस रात कुछ ऐसा हो गया कि भुलाए नहीं भूलता - स्टोरीबॉक्स में सुनिए कहानी जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से

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जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
  • नोएडा,
  • 24 नवंबर 2024,
  • अपडेटेड 11:16 AM IST

कहानी : ससुर साहब का पुराना स्कूटर
राइटर : जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

हमने ज़िंदगी में बहुत बड़े बड़े काम किये हैं... बहुत बड़े बड़े... हमने अपने दोस्तों की अशिकी के चक्कर में दूसरे मोहल्ले के लड़कों की चपेटे खाई हैं, हमने ज़ंजीर खींच कर ट्रेन रोकी है, दुश्मन की खड़ी मोटर साइकल की पेट्रोल टंकी में चीनी डालकर उसका इंजन जाम किया है... प्रेमिका को मिलने के लिए कहीं बुलाकर खुद सोता रह गया हूं... और न जाने क्या क्या... जवानी के किस्से हैं... क्या क्या बताऊं आपको... जो बताने वाली बात है वो ये कि मैंने क्या नहीं किया है... और वो है... स्कूटर चलाना...

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जब हम बड़े हो रहे थे 90 के दशक में.... तब लड़के मोटरसाइकल पर घूमा करते थे तब हम भी सोचा करते थे कि काश स्कूटर चलाएं....  लेकिन ये एक ऐसी चीज़ है जो मैं कभी नहीं कर पाया... स्टैंड पर लगी स्कूटर पर बैठ कर भी मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ये खुद बा खुद स्टार्ट हो जाएगी और खुद स्टैंड से उतर कर चल पड़ेगी और रास्ते में जो आएगा उसे रौंदती चली जाएगी... बात अजीब है लेकिन मुझे स्कूटर फोबिया है... और इसलिए मैंने स्कूटर कभी नहीं चलाई... पर एक बार बुरे फंस गए थे। वही किस्सा है... (बाकी की कहानी नीचे पढ़ें और अगर इसी कहानी को अपने फोन पर जमशेद क़मर सिद्दीकी से सुनना हो तो ठीक नीचे दिए SPOTIFY या APPLE PODCAST के लिंक पर क्लिक करें)

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(बाकी की कहानी यहां से पढ़ें) मामला ससुराल का था... और हिंदुस्तान में आज भी दामाद घर आता है तो लगता है सुदामा के घर कृष्ण आ गए हों। तो हम भी ससुराल में हाथों-हाथ लिये जा रहे थे। उन दिनों फ्रिज तो हर घर में नहीं होती थी, इसलिए पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तव साहब के यहां से ठंडा पानी मंगाया गया। श्रीवास्तव साहब यूं तो ससुराल के पड़ोस में रहते थे लेकिन वो मेरे भी दूर के रिश्तेदार थे.. बल्कि ये रिश्ता उन्होंने ही लगवाया था।

तो घर का माहौल खुशनुमा हो गया था। सुमन के पापा, जो कि पुलिस डिपार्टमेंट से रिटायर्ड थे... कप्तान हुआ करते थे... तो कप्तान नाम से ही मशहूर हो गए थे। उनका घर, कप्तान साहब का घर ... कहलाता था...

बार-बार कह रहे थे – अरे बेटा ये कोल्ड ड्रिंक लो, और ये बर्फी तो खायी ही नहीं। हमारी सास बार-बार सर पर हाथ फेरती, और मसहरी के पैतियाने पर बैठा साला बंटी भी मोबाइल में घुसा था। उसे देख कर मुझे पता क्यों ये फीलिंग आती थी कि कोई देख ना रहा हो तो इसके कोने में ले जाकर दो कंटाप मारे... क्यों पता नहीं... लेकिन दिल करता था।

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तो साहब तमाम आवाज़े घर में गूंज रही थी, कोई कुछ बोल रहा था कोई कुछ, लेकिन हमारी नज़र तो सिर्फ सामने बैठी सुमन पर थी। दिलकश मुस्कुराहट थी हमाई नई नवेली बीवी की।

अरे बेटा तुम तो कुछ खा ही नहीं रहे हो, कप्तान साहब ने कहा तो मैंने चौंक कर बोले आ.नहीं बस बहुत खा लिया। कप्तान साहब यानि हमाए ससुर बोले–अरे तो आओ मेरे साथ, एक चक्कर लगा लेते हैं सड़क का, हाज़मा दुरुस्त हो जाएगा

मैं तो कुछ और देर सुमन को देखना चाहता था लेकिन तकल्लुफ में ना नहीं कह पाया। मन ही मन ससुर जी को कोसते हुए उठ गया।

बाहर लॉन में आए ही थे, कि ससुर साब ने कहा ओह हां, ये देखो नया स्कूटर लिया है, कैसा है। हम पहले ही खपे हुए थे कहा, हां ठीक-ठाक है, ये वाला सुना है धुंआ बहुत देता है, माइलेज भी खास नहीं है, मैनें काफी चलाया लेकिन मुझे पसंद नही आया।

कप्तान साहब ने नाउम्मीदी से कहा – अच्छा? ओह... फिर नार्मल होते हुए बोले चलो कोई बात नहीं, बंटी के लिए ली है, कुछ दिन चलाएगा, फिर निकाल देंगे. है कि नई?
मैंने शेखी बघारते हुए कहा अच्छा बंटी के लिए, हां, ख़ैर बच्चों के लिए तो ठीक ही है।

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इतना कहकर दोनों घर के मेन गेट से बाहर निकले ही थे कि अचानक कप्तान साहब ने कहा – बेटा तुम एक-दो रोज़ के लिए तो हो ही, बंटी को तुम ही थोड़ा बहुत सिखा दो। बेसिक्स तो समझा ही दो। लो जी हो गया काममैंने बड़ी मायूस नज़रों से स्कूटर को देखा – ऐसा लगा जैसे वो ज़ोर से ठहाके मारकर हस रहा हो औऱ कह रहा हो – धुआ देता हूं? हां, बच्चों के लिए हूं? अब चखाता हूं मज़ा

ये खुशखबरी बंटी को मिल गई थी कि जीजाजी उसे रात में स्कूटर चलाना सिखाने वाले हैं। इधर हमें लग रहा था कि बेइज़्ज़ती तय है। अरे आधी नौकरी गुज़र गई लेकिन दफ्तर से घर और घर से दफ्तर के फेरे तो हमेशा बस में लगाए। और आज अचानक स्कूटर? वो भी चलाना छोड़िये, सिखाना है।

जीजाजी-जीजाजी हम लोग स्कूटर चलाएंगे ना रात में बंटी जितनी बार ये कहता, मेरे दिल मे आता कि कान के नीचे दो लगाए लेकिन सारी खुदाई एक तरफ और... बाकी तो आप जानते ही हैं। इसलिए मुस्कुराकर कहते हां-हां बेटा क्यों नहीं।

तो शाम होने लगी थी, सुमन और मैं बरामदे में बैठे इश्क फर्मा रहे थे। मां बता रहा था कि इस दौरान मैंने सुमन को कितना मिस किया। वो भी कह रही थी कि वो मुझे कितना याद करती थी। मैं ज़रा करीब आकर बोला, सुमन, मेरे लिए गाना गाओ ना। उसने इतराकर कहा नही, मुझे नहीं आता। अरे गाओ ना, वो वाला ये रात ये चांदनी फिर कहां... सुन जा दिल की दास्तां... वो इठलाती, मैं इतराता, वो रूठती, ये मनाता। बरामदे में इश्क के नाज़ुक पल चल रहे थे।

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मैंने आखिरकार सुमन को मना ही लिया। उसने कहा अच्छा आप आंखे बंद कीजिए, फिर गाऊंगी। मैंने आंखे बंद की, सुमन ने गला साफ कियाऔर बरामदे में आवाज गूंजी

जीजाजी, जीजाजी, स्कूटर चलाएगे ना.. यही सड़क पर चलाएंगे कि मेन रोड पे।

मैंने आंखे खोली तो सामने बंटी था। खून खौल गया था उस वक्त लेकिन सुमन के सामने कहते भी क्या, नकली मुस्कुराहट देकर काम चलाया। सुमन वहां से उठकर चली गई। बंटी फिर बोला – जीजाजी, कहां चलाएंगे स्कूटर। मैंने दांय-बांय देखा और दांत पीसते हुए कहा– यहां आ बे। वो करीब आया तो बोले तुझे और कोई काम नहीं है क्या..हैं? लूमड़ हो गया है, तेरी उमर के लड़के सब कार दौड़ाते फिरते हैं, तू क्यों अनाड़ी बना घूम रहा है।
लेकिन आप ही ने कहा था कि..
अबे कह दिया था तो क्या.. ज़बान पकड़ लोगे
?..

अरे भई क्या बातें हो रही हैं जीजा-साले में – तभी बरामदे में कप्तान साब की आवाज़ गूंजी तो मैंने बंटी के सर पर हाथ फेरना शुरु कर दिया। बोले – हेहेहे, अरे कुछ नहीं बस यूं ज़रा हाल-चाल ले रहे थे।
बंटी भी चालाक था। समझ गया कि मौका अच्छा है। बोला, जीजाजी कह रहे थे कि रात में यहीं श्रीवास्तव साहब के घर के पास स्कूटर चलाएंगे।
कुल मिलाकर, मामला ये था मैं अब फंस चुका था, समझ नहीं आ रहा था कि करें तो क्या करें, किससे मदद लें, कहां जाएं.. तभी ज़हन में एक नाम सूझा पंडित जी.. अरे हां, वो किस दिन काम आएंगे।

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पंडित जी, एक तो ससुराल के पड़ोसी, ऊपर से हमारे दूर के रिश्तेदार। डबल-डबल रिश्ता था, मदद तो करना ही था। हमने रात के खाने से पहले ही श्रीवास्तव साहब से मदद लेने की सोची। सीधे उनके घर पहुंच गए।

श्रीवास्तव साहब घर के बाहर ही मिल गए, घर के दरवाज़े पर खड़ी अपनी नीली रंग की विटेंज कार धुलवा रहे थे। एक नौकर कपड़ा लिये, शीशे से लेकर बोनेट तक झाड़ रहा था औऱ वो उसे बोल रहे थे – हां, यहां भी हाथ मारो, अरे ज़रा हल्के.. पेंट ना उखड़ जाए.. वाइपर पर भी हां.. ऐसे ही।

मैंने देखा तो चौंक गए– अरे तुम यहां, आओ-आओ अंदर आओ। अंदर ले जाने के बाद श्रीवास्तव साहब ने बड़ी खातिर-तवाज़ो की। कुछ देर के बाद, मैंने कहा, पंडित जी, आप तो हमारे अपने हैं, आपसे क्या छुपाना, दरअसल आपके पास मदद लेने आए हैं
क्यों क्या हुआ, अरे हमसे बताओ
श्रीवास्तव साहब ने पूछा तो हमने एक सांस में सब कह डाला। पूरी बात जानने के बाद अपनी ढोडी खुजलाते हुए बोले – हम्म, तो ये मामला है, यार देखो पहली बात तो तुम्हें झूठ बोलना नहीं चाहिए था, लेकिन अब झूठ पकड़ा गया तो इंप्रैशन खराब होगा.. ससुराली मामला है तुम्हारा... हम्म .. कुछ तो सोचना पड़ेगा। चाय की चुस्कियां लेते हुए श्रीवास्तव साहब काफी देरतक सोचते रहे, फिर चाय का कप मेज़ पर रखते हुए बोले – देखो गुरु एक चीज़ हो सकती है।

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क्या – मेरी आंखों में चमक आ गई
देखो बेटा, तुमने अभी मुझे बाहर गाड़ी धुलवाते हुए देखा था ना
? उन्होंने पूछा तो मैंने हां में सर हिलाया। उन्होने आगे कहा – लेकिन मुझे गाड़ी धोना नहीं आता। कुछ समझे?
मैं बोला – जी... आ... हम जब तक यहां हैं आपकी गाड़ी धो जाया करेंगे, आप बस हल बताइये। श्रीवास्तव साहब ने अपने माथे पर हाथ लगाते हुए कहा – धत्त तेरी की.... रहोगे वही जिसमें जमाते हैं दही... अरे, मैं जो कह रहा हूं उसका मतलब समझो.. मतलब ये है कि जो काम तुम करवा रहे हो उसका मतलब ये नहीं .. कि वो तुम्हें आना चाहिए... नहीं समझे... अरे बेवकूफ... मैं ये कह रहा हूं कि गाड़ी चलाना और बात है और गाड़ी चलाना सिखाना और बात। सिखाने के लिए खुद चलाना आना ज़रूरी थोड़ी है। तुमको थोड़ी चलानी है, बस उस बंटी के बच्चे को बिठा देना.. और कहते रहना – हां भई सामने देखो, गियर डालो.. हैंडल सीधा रखो.. बैलेंस बनाओ.. बस। चलाना होगा तो चलाएगा.. वरना भाढ़ में जाए... एक दो बार ज़मीन में लोट जाएगा तो खुद ही मना कर देगा.. बस अपना काम हो गया।

वाह क्या तरकीब थी। आहा, मुझे तो उस वक्त श्रीवास्तव साहब में फरिश्ता नज़र आ रहा था। एक पल में सारी टेंशन दूर हो गई, अब तो मुझे खुद रात का इंतज़ार था।

तो खैर मैं घर लौट आया... मिज़ाज बदला हुआ था, मैं अपने आप से कह रहा था कि बेकार ही घबरा रहा था। दरवाज़ा खोलते ही सुमन ने पूछा – अरे कहां चले गए थे, बता कर तो जाते।
अरे कहीं नहीं, बस सोचा ज़रा देख आऊं कि कौन सी सड़क बंटी को स्कूटर सिखाने के लिए सही रहेगी, अरे बच्चा है अपना.. सेफ्टी भी देखनी पड़ती है।
मैंने कहा तो सुमन और उसके पीछे खड़े उसके पापा यानि मेरे ससुर... कप्तान साहब के दिल में मेरे लिए इज़्ज़त कई गुना बढ़ गई।

ख़ैर खाने-वाने से निपटने के बाद, जब सब लोग सो गए तो बंटी मेरे पास आकर बोला – जीजाजी, चलें?, तो मैं बुदबुदाया बिना मुंह तुड़वाए मानेगा नहीं ये, हां हां चलो..
चप्पल पहनी और घर के बाहर आ गए। बंटी से कहा कि स्कूटर पैदल लेकर श्रीवास्तव साहब वाली सड़क तक ले आए।

कुछ देर बाद, बंटी स्कूटर घसीटते हुए वहां पहुंचा तो मैं वहीं खड़ा था। वो मंज़र बहुत खास था। मानव इतिहास में शायद पहली बार हो रहा था कि एक शख्स जो खुद, एक काम नहीं जानता, दूसरे को वही काम सिखा रहा था।

मैं उसके पास आया और किसी एक्सपर्ट की तरह बोला– देखो, ये ब्रेक है इससे स्कूटर रुक जाता है ठीक?और ये... बंटी उनकी बात काटते हुए बोले, ब्रेक? पापा तो कह रहे थे ये क्लच है..  मैंने झल्लाते हुए कहा अबे तो पापा से ही सीख लेते ना। वो चुप हो गया।

मेरी नज़र श्रीवास्तव साहब के मकान की खिड़की पर पड़ी तो देखा कि श्रीवास्तव साहब खिड़की पर खड़े मुस्कुरा रहे थे, जैसे कह रहे हों – देखा मेरा कमाल

मैंने बंटी कहा... इधर-उधर क्या देख रहे हो, स्टार्ट करो और ये जो देख रहे हो.. ये.. बब्लू ने कहा एक्सेलिरेटर ?.. हां हां वही, इसको घुमाना, बस चलने लगेगा, सिंपल तो है। बंटी ने स्कूटर स्टार्ट किया, श्रीवास्तव साहब अपनी खिड़की से गर्दन लंबी कर के बाहर झांकते हुए अपने तेज़ दिमाग पर फक्र कर रहे थे।

मैं स्कूटर के साथ-साथ तेज़ कदमों से चल रहा था। सुनसान सड़क पर मेरी आवाज़ गूंज रही थी, हां हां सामने देखो, अरे कोई मुश्किल थोड़ी है, हां-हां, बस-बस, बैलेंस बनाओ बैलेंस, अरे यार.. गियर बढ़ाओ.. हां हां, ब्रेक..आ..अ क्लच, अरे जो भी है दबाओ.. देखो संभाल कर, अरे-अरे..

श्रीवास्तव साहब खिड़की से बालकनी पर आ गए और स्कूटर देखने के लिए बालकनी की रेलिंग से लगभग लटक गए। इधर बंटी स्कूटर से जूझ रहा था और मैं उसके पीछे-पीछे भागा। लेकिन तभी.. ना जाने कैसे बंटी ने स्पीड अचानक बढ़ा दी.. अरे देखो, संभाल के की आवाज़ हुई और स्कूटर सीधे जाकर, गेट के सामने खड़ी श्रीवास्तव साहब की विटेंज कार में धड़ाम की आवाज़ के साथ टकरा गई। वही कार जिसे वो अपनी जान से ज़्यादा चाहते थे उसमें एक बड़ा सा डेट आ गया...

श्रीवास्तव साहब के चेहरे की मुस्कुराहट घबराहट में बदल गई – अरे कमबख्तों कहकर वो भी नीचे भागे।

हालांकि बंटी के सिर्फ घुटने छिले थे, लेकिन पूरे घर में एक शोर मचा हुआ था। कोई उसके दवा लगा रहा था, कोई डॉक्टर के यहां चलने को कह रहा था, कोई कह रहा था देखो हड्डी तो नहीं टूटी, और कोई स्कूटर को कोस रहा था। इधर मैं श्रीवास्तव साहब से मिन्नतें कर रहे था कि मैं कार की मरम्मत करा दूंगा, बस घर पर कुछ ना बताइयेगा। ख़ैर, श्रीवास्तव साहब शरीफ आदमी थे, उन्होने भी दूर की रिश्तेदारी का लिहाज़ किया।

मैं घर पहुंचा तो सुमन नाराज़ थी – अरे कैसे सिखा रहे थे, चोट लगा दी। मैंने कहा, अरे मैं कह रहा था, धीरे चलाओ-धीरे चलाओ, ये सुने तब ना। फिर जानबूझ कर बंटी से बोले, कोई बात नहीं, अब कल संभाल कर चलाना। बंटी की अम्मी बोली, अरे भाड़ में गया स्कूटर, नहीं चलाना स्कूटर-पिस्कूटर.. मैंने राहत महसूस की... और मन ही मन इतना खुश हुआ कि बता नहीं सकता... ऐसा लग रहा था कि जैसे दुनिया की कोई जंग जीत ला हो... अपने ऊपर फख्र हो रहा था कि वाह क्या पैंतरा चलाया... सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी... वाकई दिमाग हो तो दुनिया में क्या नहीं जीता जा सकता.... मैंने सोचा और मैं पलंग से उठकर जाने लगा कि तभी पीछे से आवाज़ आई....

सुनो बेटा.... आवाज़ मेरी सास साहिबा की थी... यानि बंटी की मम्मी... मैंने कहा जी... बोलीं... बेटा आज तो तुम थे तो तुमने इसको बचा लिया जैसे तैसे... चलो भई ज़्यादा चोट नहीं आई...

मैंने इतराते हुए कहा, अरे भई वो तो मेरा फर्ज़ था... अब ऐसी भी क्या बात है... बच्चा है अपना... और ये बच्चे तो शरारत करते ही हैं... बच्चे अगर बड़ों की मानने लगें तो फिर वो बच्चें कहां रह जाएंगे... यही तो मैं कह रही हूं... वो बोलीं... मैंने कहा मतलब?
उन्होंने आगे कहा... बेटा मैं ये कह रही हूं कि ये बच्चे आजकल सुनते हैं नहीं किसी की... अब स्कूटर घर में रहेगी तो चाहे जितना मना करो पर ये बंटी चलाएगा ज़रूर और चोट खाएगा... भई हमेशा तुम थोड़ी रहोगे उसे बचाने के लिए... तो ऐसा करो कि कल ये स्कूटर लेकर अपने साथ ले जाओ... यासमीन को लेकर इसी स्कूटर से वापसी कर लेना... और इसको वहीं रखो... ठीक है ना

मेरे चेहरे पर फाख्ता, तोते, कैव्वे सब उड़ने लगे.... मैंने सुमन की तरफ देखा... वो मेरा हाल समझ गयी थी... उसने ज़ोर का ठहाका लगाया और दूसरे कमरे में चली गयी... और मैं वहीं खड़ा सोच रहा था कि लो बेटा... अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे.

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