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कहानी | क़िस्सा नकली नोट का | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

कानपुर रेलवे स्टेशन पर रिज़र्वेशन की लाइन में खड़े एक शख्स ने जब खिड़की से पैसा अंदर बाबू की तरफ बढ़ाया तो उसने कहा कि ये नोट नकली है लेकिन नकली नोट की वजह से वो कैसे मिल गए अपनी उस मुहब्बत से जिसकी तलाश में सालों से यहां वहां मजनूँ बने घूम रहे थे - सुनिए स्टोरीबॉक्स में क़िस्सा नकली नोट का - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से

Storybox with Jamshed Storybox with Jamshed
जमशेद क़मर सिद्दीक़ी
  • नोएडा,
  • 02 जून 2024,
  • अपडेटेड 6:01 PM IST

कहानी - क़िस्सा नकली नोट का
राइटर - जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

ये क़िस्सा उस ज़माने का है जब मैं और ज़फर मियां दिल्ली में फ्लैट-मेट हुआ करते थे। उन दिनों ज़फ़र किसी काम से लखनऊ गए थे। अच्छा ये वो दौर था जब रेलवे का टिकट ऑनलाइन मिलने तो लगा था लेकिन क्योंकि इंटरनेट बहुत स्लो हुआ करता था इसलिए ज़फर जैसे लोग खिड़की पर जाकर ही टिकट लेते थे। उसमें होता ये था कि फार्म भर कर कांच वाले खिड़की में बने छोटे से गोले में हाथ डाल कर अंदर बैठे बाबू को फार्म देना होता था जो मुंह में पान दबाए बेहद इत्मिनान से फॉर्म को पढ़ता था... और फिर टिकट बुक कर के देता था... तो ऐसे ही चिलचिलाती गर्मी वाले मौसम में जब लग लग रहा था कि सूरज सर पर गिर पड़ेगा... एक दम आग बरस रही थी... अपने ज़फ़र भाई खड़े थे लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर... आए थे किसी काम से ... अब किस चक्कर में लखनऊ आए थे ये उन्होंने नहीं बताया... वैसे शरीफ आदमी हैं... तो कोई ऐसी वैसी बात नहीं है... तो ख़ैर... ज़फ़र भाई खड़े थे चारबाग स्टेशन में टिकट की लाइन में ... (बाकी की कहानी पढ़ने के लिए नीचे स्क्रॉल करें। या इसी कहानी को अपने मोबाइल पर लैपटॉप पर जमशेद क़मर सिद्दीक़ी से सुनने के लिए ठीक नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करें)

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"
अरे भैय्या, बढ़ते रहो भैय्या... ऐ... देखो... ये लाइन में घुस रहा है... अमा ये अलग लाइन कैसे बना रहे हो... हम लोग पागल हैं क्या... वो देखो हाथ घुस रहा है खिड़की में..." 
ये आवाज़ें गूंज रही थीं। सब लोग चौकन्ना थे कि कहीं कोई आदमी बीच लाइन में न घुस जाए। ज़फ़र भाई के आगे बस दो लोग थे और पीछे आठ दस होंगे। ज़फ़र हाथ में सफेद पर्चा लिये हुए खड़े थे कि बस नंबर आए तो फौरन मोखले से अंदर घुसा कर टिकट ले लें। चारबाग का रिज़र्वेशन सेंटर अगर आपने देखा हो तो स्टेशन के बिल्कुल आखिर में बना है, वहां जाने के लिए सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं और अंदर एसी बढ़िया चलता है। शोर भी काफी था कई आवाज़ें थीं लेकिन उसी शोर में एक आवाज़ उनके कानों में पड़ी “अरे जल्दी कीजिए भई... माई गॉड इट्स सो हॉट हियर” ज़फ़र मियां बताते हैं कि आवाज़ क्या थी भाई साहब, उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने शहद में रुह डुबोकर उनके कानों में घुसा दी हो। कहते हैं एकदम तड़प ही गये। ऐसी नाज़ुक आवाज़ कि जैसे कांच का गिलास टूटता है खामोश कमरे में छनाक से। जैसे सालों की तनहाइयां एक आवाज़ से दरहम-बरहम हो गयी हों। कहने लगे कि सीने के पार हो गयी आवाज़। फिर वो स्लो-मोशन में पलटे जैसे कोई हीरो पलटता है गर्दन जब एक सौ अस्सी डिग्री पर घुमाई तो जो देखा, समझ लीजिए कि ज़फ़र भाई की आंखें खूबसूरती की चमकार से चकाचौंध ही गयीं। इंतिहाई खूबसूरत बकौल ज़फ़र साहब कि उन्हें देखकर लग रहा था कि जब अल्ला मियां हुस्न बाट रहे थे 90 फीसदी उन्होंने इन्हीं को दे दिया और दस फीसदी बाकी दुनिया की तरफ उछाल दिया। नाज़ुक सी पतली नाक, होंठ जैसे कलकतिया पान पर करीने से लगाया गया गुलूकंद, आंखें ऐसी कि पूरी दुनिया डूब के मर जाए और आह तक न करे। होंठों के किनारे एक तिल और बाल ऐसे कि जैसे घटाएं, माथे पर पसीने की हल्की हल्की बूंदें, भवें कुछ तनी हुई जैसे परेशान हों - हार्ट अटैक का नाम सुना है आप लोगों ने बस वैसा ही कुछ हुआ था ज़फ़र भाई को। 
पता नहीं कितना वक्त लगेगा,  उफ्फ ये गर्मी.. उसने दोबारा कहा और ज़फ़र की तरफ हैरानी से देखा जो पागलों की तरफ मुस्कुराते हुए गर्दन पीछे घुमाए उसे देख रहे थे। हालांकि वो लाइन में काफी पीछे थी... इनके बाद पांच छ लोगो के बाद... और इनका नंबर बस आने ही वाला था... जब ये लगातार उसे देखने लगे तो उसने हाथ हवा में हिलाकर क्या... का इशारा किया... ये झेंप गए... आप लोग सोच रहे होंगे कि ज़फ़र ओवर रिऐक्ट कर रहे थे। मगर ऐसा नहीं है... बात ये है कि दिल्ली में अक्सर रात को जब ज़फ़र पढ़ाई वढ़ाई से फुर्सत पाकर ज़रा तफरीह बाज़ी के मूड में आते थे तो हमसे कहते थे कि पता है हमको कैसी लड़की चाहिए... हम कहते थे कैसी.. तो कहते थे ब्यूटी विद ब्रेन.. कहते थे कि अपन को सिर्फ ब्यूटी नहीं चाहिए... ब्रेन भी मंगता है। मैं कहता था यार... मंगता तो लोगों को ब्रिटनी स्पीयर्स है... मिलता वही है जो औकात में होता है... इस पर वो नाराज़ हो जाते थे... तो उस दिन उन्होने मुझे फोन किया कि बोले, जमशेद भाई वो... मिल गयी
मैंने कहा कौन मिल गयी...
बोले... वही... ब्यूटी विद ब्रेन वाली....
कहां मिली
लखनऊ स्टेशन पर... अमा बहुत ही खूबसूरत हैं भैय्या... ब्यूटी इतनी है कि दिल कर रहा इंजन के आगे कूद जाएं...
और ब्रेन...
मैंने पूछा तो बोले... ब्रेन का भी देख लेंगे... पता चल जाएगा
मैंने ज़ोर का ठहाका मारा... ख़ैर बात ख़त्म हो गयी।
ज़फ़र मियां अब बताते हैं कि उस दिन मेरे फोन रखते के बाद दस सेकेंड ही गुज़रे होंगे कि तभी उस खूबसूरत लड़की की आवाज़ सुनाई दी... अरे आप लोग जल्दी कीजिए... ट्रेन निकल जाएगी... थोड़ी देर बाद ज़फ़र भाई का नंबर भी आ गया... उन्होंने थोड़ी हीरो गिरी दिखाते हुए कागज़ मोखले से अंदर घुसाया और आवाज़ में थोड़ी खर्खराहट पैदा करते हुए टिकट बाबू से इस तरह कहा कि बाकी लोग भी सुन लें, जल्दी कीजिएगा... मेरे पीछे भी लोग हैं, उनको भी परेशानी नहीं होनी चाहिए... ज़फ़र ने फॉर्म अंदर घुसाया तो टिकट बाबू ने पहले फॉर्म को पढ़ा फिर पुराने ज़माने वाले ब्लैक एंड व्हाइट कंप्यूटर स्क्रीन पर दो तीन बार एंटर मारा और कुछ टाइप किया... फिर मुंह में पान दबाए दबाए बोले... चार सौ सत्तर रुपया... ज़फ़र ने पांच सौ का नोट बढ़ाया.... टिकट बाबू ने नोट ले लिया... अब ज़फ़र बड़ी अदा से पीछे पलट के लड़की और बाकी पब्लिक को दिखाने लगे, कि देखो मैं कितनी जल्दी काम निपटा रहा हूं। दो मिनट भी नहीं लगे। ज़फ़र देख रही रहे थे कि तभी टिकट बाबू की आवाज़ गूंजी...

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ई का है ... ये नहीं चलेगा भैय्या.. सहिल ने चौक पर उन्हें देखा और कहा, अरे सर ... चल जाएगा... थोड़ा सा मुड़ गया है बस.. जेब में था न तो...
अरे मुड़ा तुड़ा तो हम चला देते... इसमें तो गांधी जी दूसरी तरफ देख रहे हैं...
क्या...
औ का... नकली नोट लिए घूम रहे हो... बै...
कहते हुए उन्होंने नोट वापस ज़फ़र की तरफ फेंका... ज़फ़र ने नोट उठाया और उलट पुलट के देखने लगे। नोट वाकई नकली था।
अरे बाप रे बाप... ये कौन पकड़ा गया... ज़फ़र बुदबुदाया ही थे कि उनके ठीक पीछे खड़े एक चचा ने ज़फ़र की पीठ पर उंगली कोंचते हुए कहा... “भैय्ये, बहुत झोल चल्ला हैगा नकली नोट का... पूरी-पूरी फैमिली नकली नोट लिए लोगों को ढग रही है नखलऊ में... हम्म”
ख़ैर... अब ज़फ़र क्या करते... बटुआ खोला... तो देखा सिर्फ दो हज़ार का नोट और था।
लीजिए... कहते हुए उन्होंने नोट बढ़ाया तो चचा बोले...
अमा खुल्ले लाओ... वहां... ऐ... नहीं तो... एक टिकट ले रहे हो.. इत्ता बड़ा नोट लाए हो...
अरे खुल्ला है नहीं हमाए पास... ट्रेन निकल जाएगी... देख लीजिए थोड़ा...
अरे हैं नहीं भैय्या... कहां से देख लें...
उन्होंने अपनी मेज़ के नीचे वाली दराज़ खींच कर ज़फ़र को दिखाते हुए कहा और फिर पान चबाने लगे...
कुछ समझ नहीं आया... अब क्या करें... पलट कर लाइन में खड़े लोगों की तरफ आवाज़ दी... अरे भई किसी के पास दो हज़ार का खुल्ला है क्या... दिल्ली का टिकट चाहिए... ये नोट नकली निकल गया... और इसके खुल्ले नहीं हैं... किसी के पास हों तो... वो सबकी तरफ बड़ी उम्मीद की नज़र से देख रहे थे... पर उन दिनों दो हज़ार का नोट मायने रखता था... जल्दी लोगों को पास नहीं होता था। अब ज़फ़र समझ नहीं पा रहे कि करें तो करें क्या... बोले तो बोंलें क्या... कि ठीक उसी वक्त एक आवाज़ गूंजी...
सुनिए.... ज़फ़र पलटे तो देखा कि वही खातून अपनी लाइन से निकल कर उनकी तरफ चली आ रही हैं। ज़फ़र का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसे लगा कि वो आकर नाराज़ होंगी कि आप लोगों को चेंज लेकर चलने चाहिए... सबको परेशान कर रहे हैं. वो पास आई और बोली... क्या मसला है आपका भई... इतनी देर लगा रहे हैं... सबकी ट्रेन छुड़वाएंगे क्या...
ये बोले... वो मैं... माज़रत चाहता हूं.. दरअसल वो नोट हमारा नकली निकल गया और इनके पास दो हज़ार का खुल्ला नहीं है...
ज़फ़र ने ये कहा, तो वो कुछ सोचने लगी। फिर बोली... अच्छा एक मिनट ... और ये कहकर वो लाइन में पीछे की तरफ गयी.... इन्होंने देखा कि वो लाइन में पीछे खडे लोगों से बात करने लगी... फिर एक बुज़ुर्ग आंटी से कुछ पूछा और उनके साथ खड़े अंकल से बात की... ये हैरानी से देख रहे थे कि वो कर क्या रही है... फिर वो मुस्कुराई और इनके पास चलकर आई और बोली लीजिए... प्रॉब्लम सॉल्व्ड ...
कैसे – ज़फ़र ने हैरानी से पूछा तो बोली मैं, ये अंकल और आंटी - इनको भी डैल्ही जाना है.... तो अब हो गए चार लोगों के टिकट .. .आप ऐसा कीजिए... चार टिकट न्यू डैली के ले लीजिए... चार टिकट पर तो चेंज हो जाएगा ना... उसने क्लर्क की तरफ झांकते हुए पूछा तो वो बोले, हाँ चार में तो हो जाएगा... बनाएं...
जी बनाइये...
कहते हुए उसने मेरी तरफ देखा और कहा, बनवा लीजिए... मैं तीन के पैसे कलेक्ट करके आपको देती हूं.... ये कहकर वो उन बूढ़े अंकल आंटी के पास जाने लगी... और ज़फ़र उसी वक्त उसकी एक एक अदा पर फिदा हुए जा रहे थे। उस दिन ज़फ़र को यकीन हो गया था कि मानो या न मानों भगवान खुदा ग़ॉड - ये सब हैं। यूं ही नहीं ये दुनिया चल रही है... कोई ताकत है जो आपकी ख्वाहिशों को सुनती है... अब देखिए... जिस चेहरे को मैं बस देखने को तड़प रहा था... अब वो उनसे बात कर रहा था। कहने लगे कि शुक्र है उस नकली नोट बनाने वाले का जिसने उन्हें ये मौका दिया कि उ मोहतरमा से बात हो पाई।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका... आप ने बचा लिया... वरना बड़ी दिक्कत हो जाती
नहीं कोई बात नहीं, मुझे भी तो लाइन से जल्दी छुटकारा मिल गया।
ये कहते हुए उन्होंने तीन टिकट के पैसे जिसमें पांच पांच सौ के तीन नौट थे ... वो ज़फ़र मियां की तरफ बढ़ा दिए... ज़फ़र ने उनका शुक्रिया कहा और फिर कुछ देर बाद ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन में उनकी सीटें भी अगल बगल थीं। तो पूरे रास्ते ज़फ़र उनको बार बार बहाने से दिखते रहे... ताकि वो उनका चेहरा याद कर लें... दो बार चाय वाला आया तो चाय लेकर उसे ज़्यादा पैसे दिए ताकि वो समझ जाए कि वो कितने नेक दिल हैं।
ख़ैर ट्रेन गंगा के ऊपर से होती हुई... दिल्ली की तरफ बढ़ती रही... ज़फ़र बीच बीच में उनका दीदार करते रहे और बहाने से बार-बार नज़रें मिलने पर मुस्कुरा देते थे। ज़फ़र बताते हैं कि उन्होंने ग़ौर किया कि वो जब मुस्कुराती थी तो किनारे वाले एक दांत पर चढ़ा हुआ दूसरा दांत दिखाई देता था जो उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा देता था। ख़ैर, अगली सुबह जब ट्रेन दिल्ली पहुंची... अच्छा ये सोए रह गए... जब डिब्बे में कुछ आवाज़ें हुई तो इनकी आंख खुली... देखा तो ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर थी... काफी मुसाफिर उतर चुके थे... वो लड़की भी उतर गयी थी। ये हड़बड़ाए हुए ट्रेन से बाहर झांकने लगे। अब वो दिखे ना। काफी मुसाफिर उतर गए थे.. 
ख़ैर, थोड़ी कोशिश की पर वो नहीं मिली तो वापस अपना सामान उठाया और बाहर आ गए। अफसोस  तो था कि कम से कम नाम ही पूछ लेते लेकिन चलिए अब क्या ही हो सकता था। ख़ैर, एक रिक्शा रोका और सवार हो गए... थोड़ी देर में रिक्शे पर बैठे बैठे घर के पास वाली गली में दाखिल हुए... इत्तिफाक से मैं उस वक्त दरवाज़े पर ही खड़ा था।
देखा तो ज़फ़र साहब रिक्शे पर बैठे अटैची थामे चले आ रहे हैं। रिक्शा घर के सामने आकर रुका... नीचे उतरे... हमने हाथ मिलाया... मुस्कुराने लगे। हमने कहा, तो... कैसे मिलीं, बात कहां तक पहुंची...
बोले,  “अमां बता रहे हैं, बता रहे हैं... थोड़ा रुको तो। फिर सामान उतारते हुए बोले... बस ये समझ लो जमशेद भाई कि लखनऊ जाना कामयाब रहा...” हमने कहा हां वो तो ठीक है लेकिन बात वात हुई कुछ” कहने लगे बात हुई? अमा इतनी बातें हुई हैं... कि पूछो मत... अब तुम अपने भाई को तो जानते ही हो... होने लगी बात.... मार इधर ईरान से लेकर तुरान तक की बातें हुईं। अपने घर का सब बताने लगीं... कितनी फूफी हैं कितनी खाला, कितनी से बात नहीं होती... कहां की पढ़ी है... अरे भैय्या मामला समझ लो फिट हो गया है...
- फिट हो गया?
- और नहीं तो क्या... अरे हमने जब जोक्स मारने शुरु किये तो एकदम हंस-हंस के लोट-पोट हो गए... मार हाथ-वाथ हाथ पकड़ लिया वॉश बेसन के पास... कहने लगीं.. जहां जा रहे हो... वहीं चल लेंगे... बड़ी मुश्किल से समझा बुझा के भेजा है... नहीं तो वो तो यहीं चली आ रही थीं। मतलब जमशेद भाई तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन जैसे हमने...
- ओ भैय्या... हमको पाइसा देव हम जाएं.. ईरान तुरान बाद में करना” ज़फ़र की बात काटते हुए बीच में रिक्शे वाले की झुंझलाई आवाज़ गूंजी... ज़फ़र ने बैग हमें पकड़ाया और जेब में हाथ डाल कर पांच सौ रुपए का नोट निकाला और रिक्शे वाले की तरफ बढ़ा दिया। फिर हमसे आगे बताने लगे...
- “अमां छोड़ ही नहीं रही थीं... अमा वहीं प्रोपोज़ मार दिया.... हमने कहा कि यार देखो... तुम हमें पसंद हो लेकिन देखो रिश्ते में एख दूसरे को समझना ज़रूरी है... जैसे हमें जो हमसफर चाहिए... हम चाहते हैं कि उसमें सिर्फ ब्यूटी न हो... ब्रेन भी हो... मतलब ये कि ”
- भैय्या.. यू का दे रहे हो... रिक्शे वाले की आवाज़ फिर गूंजी तो ज़फ़र रुक गए... हमने भी चौंक के रिक्शे वाले की तरफ देखा... कि क्या बोल रहा है... वो नोट हाथ में लिए लहराते हुए बोला, ये तो नकली नोट है...
- हैं... का भैया...
- नोट नकली है, गांधी जी ने चश्मा ही नहीं पहना है .... वो तार भी नही है... बीच में देखो...

रिक्शे वाले की आवाज़ गूंजी..... मैं और ज़फ़र चौंके... क्या ... नोट रिक्शे वाले के हाथ से छीना... और फिर गौर से देखा... नोट तो बिल्कुल नकली था। ज़फ़र को उसी वक्त याद आया कि जब वो लाइन में लगा था तो पीछे खड़े चचा ने उसे बताया था कि शहर में गैंग घूम रहा है, पूरा परिवार मिल के ठगी करता है अलग अलग मुसाफिर बन के...
ज़फ़र ने जल्दी से जेब में हाथ डाला और बाकी के दो नोट भी निकाले... देखा तो सब के सब नकली थे। तो इसका मलतब... वो लड़की और वो बूढ़े अंकल-आंटी सब मिले हुए थे...
क्या हुआ... हमने पूछा... बोले कुछ नहीं....इनको पैसे दे दो तो बताएं...हमने अटैची वापस ज़फ़र को पकड़ाई... और जेब से निकाल कर पैसे रिक्शे वाले को दिए। ज़फ़र अटैची पकड़े भारी कदमों से अंदर जाने लगे। हमने कहा, अरे पूरी बात तो बताओ... वो जो ब्यूटी वाली थी... उसमे ब्रेन भी था कि नहीं। ज़ीने चढ़ते हुए रुके, पलट कर मुझे देखा और बोले ब्रेन तो था... पर इतना ब्रेन नहीं चाहिए... सही खेल गयी... चलो चाय पिलाओ...

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