
मशहूर पंजाबी कथाकार करतार सिंह दुग्गल का जन्म 1 मार्च, 1917 को अविभाजित पंजाब के रावलपिंडी में हुआ था. उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिस्चियन कॉलेज से अंग्रेज़ी में एमए किया और आकाशवाणी में नौकरी कर ली. पर वह चर्चित एक लेखक के तौर पर ही हुए. पर वह केवल पंजाबी के कथाकार नहीं थे. उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी के भी माहिर लेखकों में उनकी गिनती होती थी.
हिंदी में उनकी लोकप्रियता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि जब साल 1965 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने टिप्पणी की थी कि 'मुझे यह जानकर ताज्जुब हो रहा है कि...(इन्हें) पंजाबी का पुरस्कार मिला है मैं तो अब तक उन्हें हिंदी का लेखक ही समझता रहा हूं.'
इसकी वजह थी, पंजाबी में छपने के तुरंत बाद उनकी कृतियां हिंदी में आ जातीं. भारतीय साहित्य में सरदार करतार सिंह दुग्गल का नाम उन गिने-चुने शीर्षस्थ साहित्यकारों में शामिल था, जिन्होंने प्रचुरता में लिखा और बेहद लोकप्रिय हुए.
भारतीय साहित्य के बौद्धिक विकास में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा. उनकी रचनाएं प्रबुद्ध पाठक भी उतनी ही रुचि से पढ़ता जितना कि सामान्य पाठक. लघु कथा, उपन्यास, नाटक में लेखन में उनका कोई मुकाबला नहीं था.
करतार सिंह दुग्गल ने सैकड़ों कहानियां और कविताएं लिखीं. उनकी रचनाएं दुनिया की कई भाषाओं में अनूदित भी हुई थीं. दुग्गल को भारत का विभाजन जीवन भर सालता रहा. ऊन्होंने अपनी रचनाओं में भी इस दर्द को उकेरा. यह पीड़ा उनके अंदर इतना गहरे कहीं बैठी थी कि एक बार उन्होंने अपने जिंदगीनामे में इस बारे में जिक्र करते हुए कहा था. 'मेरा जन्म रावलपिंडी से पांच मील दूर एक गांव धमाल में हुआ था. वह पोठोहार का इलाका था, जिसकी अपनी समृद्ध संस्कृति थी. बचपन से ही मैंने अपने इलाके में साझा संस्कृति देखी, इसलिए मैं विभाजन और उससे उपजे दंगे को कभी स्वीकार नहीं कर पाया.
'बचपन में एक बार मुझे त्वचा की बीमारी हो गई थी, जो वैद्य की जड़ी-बूटियों से ठीक नहीं हुई. फिर मुझे एक मौलवी साहब के पास ले जाया गया. उनकी दुआ की बदौलत मेरी बीमारी दूर हो गई. मैं वह चमत्कार कभी भूल नहीं सकता. एम.ए. करने के बाद मैं ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ गया था, जिसमें तब अमृता प्रीतम समेत पंजाब की कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां काम करती थीं.'
आएशा जाफ़री से अपनी शादी की चर्चा करते हुए उनके शब्द थे, 'आएशा से शादी करने के पीछे भी साझा संस्कृति के प्रति मेरा लगाव ही था. विभाजन से पहले समाज में कोई भेदभाव नहीं था. लेकिन विभाजन और दंगों ने सब कुछ उलट-पलट दिया. मैंने महसूस किया कि विभाजन ने किस तरह कौमों को अलग-अलग कर दिया.'
उनका दावा था कि 'विभाजन से भारतीय मुस्लिमों की हालत जहां पहले से खराब हुई, वहीं हिंदू और सिखों की सोच में भी बहुत बदलाव आया. मेरी कहानियों और उपन्यासों में पोठोहार की बोली-वाणी, संस्कृति और विभाजन का दर्द छिपा है, तो इसकी वजह यह है कि मैं इन सब का गवाह रहा हूं.'
भारतीय उपमहाद्वीप में औरतों की स्थिति को लेकर उनका कहना था कि जब भी मैंने अपने समाज की ओर देखा तो पाया कि अपने समाज में औरतों को दोयम दर्जा मिला हुआ है. ऐसे में, एक लेखक के तौर पर मेरा फर्ज बनता था कि मैं औरतों के दुख-दर्द के बारे में लिखूं. मेरा मानना है कि लेखक को हमेशा अपने समाज की गलतियों को सामने लाना चाहिए.' उन्होंने पूरे जीवन ऐसा ही किया भी.
करतार सिंह दुग्गल को उनके कहानी संग्रह 'इक छिट् चानण दी' के लिए साल 1965 में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया था. बाद में साहित्य अकादमी ने उन्हें अपने सबसे बड़े सम्मान साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप से भी नवाज़ा.
वह भारत सरकार में कई महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे और कई ऐसी संस्थाओं का निर्माण किया, जो आज भी देश की सेवा में लगी हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक और सूचना-प्रसारण मंत्रालय के सलाहकार के तौर पर उन्होंने पुस्तक संस्कृति को बढ़ाने में काफी योगदान दिया था.
दिल्ली में 'विश्व पुस्तक मेला' शुरू करने का श्रेय तो उनके खाते में है ही, देश में सबसे बड़ा पुस्तकालय आन्दोलन 'राजा राममोहन रॉय फाउंडेशन' स्थापित कराने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है. उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एंड इकोनॉमिक चेंज तथा जाकिर हुसैन शैक्षिक फाउंडेशन को बनाने में भी महती भूमिका निभाई थी.
अमेरिका की लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में उनकी 118 किताबें रखी हुई हैं. साल 1988 में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया था. भारत के राष्ट्रपति द्वारा वह राज्यसभा के सदस्य के तौर पर भी नामांकित हुए थे.
उनकी लोकप्रिय रचनाओं में हाल मुरीदों का, ऊपर की मंजिल, इंसानियत, मिट्टी मुसलमान की, चील और चट्टान, तुषार कण, सरबत्त दा भला शामिल है. 26 जनवरी, 2012 को इस महान लेखक का निधन हो गया.