
उस दौर में जब साहित्यिक पत्रिकाएं दम तोड़ने के लिए जानी जाती थीं. वह दौर जब साहित्य छापने को ठंडा कर्म माना जाता था. उस दौर में रविंद्र कालिया ने हिंदी पत्रिका जगत में नई जान फूंकने का काम किया और वे हिंदी साहित्य के सुपर संपादक बन बैठे. वे धर्मयुग पत्रिका से अपना लोहा मनवा चुके था. फिर उन्होंने वागर्थ की किस्मत को भी बदला और उस पत्रिका को लोगों के हाथों तक पहुंचा दिया.
फिर जब उन्होंने दिल्ली के साहित्य परिदृश्य में दस्तक दी और नए ज्ञानोदय के संपादक होकर दिल्ली आए तो सब को लगा कि यह एक सामान्य साहित्यिक घटना है. लेकिन ये कयास गलत थे. उन्होंने नया ज्ञानोदय को एकदम से पंख लगा दिए और एक के बाद एक हिट अंक दे डाले थे. न सिर्फ पत्रिका की रीच को बढ़ाया बल्कि पत्रिका निकालने के काम को दिलचस्प कर्म में तब्दील कर दिया. उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वे बाजार को भी बखूबी समझते हैं और साहित्य के लोगों की दिलचस्पी को भी.
हिट अंकों के इसी दौर में सबसे क्रांतिकारी पल तब आया जब नया ज्ञानोदय का 2009 में प्रेम विशेषांक आया. इसके अंकों ने तो हिंदी साहित्य में हंगामा मचा दिया और हिंदी साहित्य में हड़कंप मच गया. जिसने उन्हें कई दोस्त दिए तो कई शत्रु भी पैदा कर दिए. फिर बेवफाई विशेषांक ने तो ऐसा हंगामा बरपाया कि साहित्य में खलबली ही मच गई. वे अपने अंतिम दिनों में भी वर्तमान साहित्य के सलाहकार संपादक रहे.
टेलीफोन पर वो बातचीत
2009 में उनके प्रेम वाले हिट अंक आ ही रहे थे कि मैंने देखा कि एक अंक में कुछ अनूदित कहानियां छपी हैं. देखा तो ये कहानियां मेरे द्वारा अनूदित किताब उसका प्रेमी से ली गई थीं. यह किताब संवाद प्रकाशन से छपी थी. इन कहानियों में न तो मुझे क्रेडिट दिया गया था और न ही संवाद प्रकाशन का ही कोई जिक्र था. मुझे धक्का पहुंचा. मैंने सोचा रविंद्र कालिया जैसे शख्स ऐसा कैसे कर सकते हैं. मैंने काफी सोचा और मन किया तो आखिर में उनको फोन घुमा ही दिया. दूसरी तरफ रविंद्र कालिया थे. मुझे अपने पसंदीदा लेखकों में से एक से पहली बार बात करना और वह भी इस तरह के मसले के लिए बहुत खराब लग रहा था.
लेकिन मैं इस अन्याय को भी कैसे झेल सकता था. सो, मैंने उन्हें बताया तो वे एकदम से सकते में आ गए. उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वे इस गलती को वे दूर कर देंगे और उनसे उनके साहित्य पर भी बात हुई. जिंदादिली से भरी बातचीत मुझे अच्छी लगी. आश्वासन मेरे लिए काफी था. मैं जानता था कि जरूरी नहीं कि वे ऐसा कुछ करें. लेकिन मैं उस समय हैरत में रह गया जब उन्होंने अगले ही अंक में मेरी बात रखी और उन कहानियों का क्रेडिट मुझे दिया. मुझे बहुत अच्छा लगा.
मैंने तुरंत उन्हें कॉल की और शुक्रिया कहा. उन्होंने कहा, 'अरे यार शुक्रिया कैसा हम से गलती हुई, हमने उसको सुधार दिया.' यही नहीं, कुछ दिन बाद कहानियों के लिए उनकी ओर से मनीऑर्डर भी आ गया. शनिवार को उन्होंने दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में अंतिम सांस ली. उन्हें लिवर में तकलीफ थी, जिस वजह से वहां भरती कराया गया था. उनका जन्म 11 नवंबर, 1939 को जालंधर में हुआ था. रंज तो उनसे न मिलने का है, और गालिब का यह शेर जेहन में कौंधता है.
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अगर और जीते रहते यही इंतजार होता...
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