
2 December 1984 Bhopal Gas Tragedy: ''सच तो यह है कि हम न जान लेने वालों को सजा दिला पाए और न जान बचाने वालों को शाबासी...' ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर आई 'The Railway Men' के डायलॉग से भोपाल के कोहेफ़िज़ा में रहने वाले शादाब दस्तगीर काफी इत्तेफाक रखते हैं. लेकिन वेब सीरीज की कहानी और किरदारों को लेकर वह पूरी तरह सहमत नहीं हैं.
करीब 50 साल के शादाब दस्तगीर 1984 में भोपाल रेलवे स्टेशन के डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट रहे दिवंगत गुलाम दस्तगीर के सबसे छोटे बेटे हैं. शादाब का दावा है कि 'द रेलवे मैन: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ भोपाल 1984' में केके मेनन का किरदार पूरी तरह उनके पिता गुलाम दस्तगीर पर ही आधारित है.
1984 की उस काली रात (2-3 दिसंबर) की दास्तां सुनाते हुए शादाब बताते हैं, ''उस साल मैं करीब 13 या 14 साल का था. पुराने भोपाल के एक घर में हमारा पांच सदस्यीय परिवार रहता था. 2 दिसंबर की रात मां के साथ हम घर में तीन भाई थे. करीब 11 बजे पिता गुलाम दस्तगीर भोपाल रेलवे स्टेशन के लिए निकल गए थे. तभी आधी रात को हमारे मोहल्ले में चीख-पुकार मचने लगी. बाहर जाकर देखा तो लोग इधर-उधर भाग रहे थे और एक अजीब-सी गंध नथुनों में घुसी जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने मिर्ची के गोदाम में आ लगा दी हो या फिर गोभी को बड़े पैमाने पर उबाला जा रहा हो. गंध खतरनाक होती जा रही थी. कुछ समझ आ नहीं रहा था. किसी ने बताया कि ऊंचाई वाले स्थान पर जाकर ही जान बचाई जा सकती है. भागते-हांफते मां और तीनों भाई तमाम लोगों की तरह जेल पहाड़ी पर पहुंचे. लेकिन रातभर पिता की चिंता सताती रही.
भोपाल की हवा में जहरीली गंध थमने के बाद सुबह मां के साथ हम तीनों भाई घर लौटे तो देखा कि पिता अपनी ड्यूटी से वापस नहीं लौटे. अमूमन नाइट ड्यूटी खत्म करने के बाद पिता सुबह करीब 8 या 8:30 तक लौट आते थे. किसी अनहोनी की आशंका के चलते मैं अपने पिता को ढूंढने साइकिल से निकल पड़ा. लेकिन रास्ते का मंजर देख ठिठक गया.
बकौल शादाब, भोपाल की सड़कों पर बेतरतीब बिखरा हुआ सामान, जगह-जगह इंसानों और जानवरों की लाशें ही लाशें पड़ी हुई थीं. दिसंबर में शादियों का सीजन शुरू हो जाता है तो दूल्हे-बाराती और बैंड बाजे वाले तक सड़कों पर मृत पड़े हुए थे. जैसे-तैसे हिम्मत बनाकर मैं स्टेशन परिसर में दाखिल हुआ तो वहां भी कुछ ऐसा ही मंजर दिखा. यात्रियों के बैग, मुंह से झाग उगलते शव और चारों तरफ सन्नाटा. मतलब श्मसान घाट में तब्दील एक स्टेशन और लाशों में तब्दील लोग.
मैं जब अपने पिता की केबिन में घुसता हूं तो एक अंकल (संभवत: रेलवे कर्मचारी) बैठे दिखे. मैंने पतासाजी की तो उन्होंने बताया कि आपके पिता (डिप्टी सुपरिटेंडेंट) की हालत ज्यादा खराब थी और वह बेहोश पड़े हुए थे, तो रिलीफ टीम ने उनको एंबुलेंस से हमीदिया अस्पताल रेफर कर दिया. इसके बाद साइकिल उठाकर मैं हमीदिया पहुंचा तो वहां भी लाशें ही लाशें और जिंदगी-मौत के बीच जंग लड़ रहे लोगों को देख सिहर उठा. डॉक्टरों पर जैसा बन पड़ रहा, वैसा इलाज कर रहे थे, क्योंकि किसी को मालूम नहीं था कि हवा में उड़े जहर का सही इलाज क्या है? अस्पताल परिसर में अपने लोगों को गंवाने वालों का रुदन क्रंदन देख मैं हताश-निराश घर लौट आया.
घर में हम सभी भाई बेहद चिंतित थे, लेकिन कि एकाएक देखा कि पिता करीब सुबह 11:30 बजे दरवाजे पर लड़खड़ाते हुए आ गएए. अस्पताल से उनको प्राथमिक उपचार देकर घर के लिए रवाना कर दिया गया था. लेकिन जब हमने देखा कि पिता की आंखों का एरिया फूल के कुप्पा और लाल हो चुका था और शरीर भी लगभग पूरी तरह जवाब दे चुका था. गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी. बस, घर में घुसते ही वह सिर्फ इतना ही कह पाए, 'स्टेशन सुपरिटेंडेंट धुर्वे साहब भी नहीं रहे...' दोपहर होते-होते पूरे शहर को पता लग चुका था कि इस भयावह मंजर के पीछे कोई मिर्ची या गोभी की गंध नहीं, बल्कि कीटनाशक बनाने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस थी.
इसके कुछ दिन बाद थोड़ी बहुत सेहत ठीक होने पर खुद डिप्टी एसएस गुलाम दस्तगीर ने अपने परिजनों को उस काली रात की खौफनाक दास्तां बयां की. बेटे शादाब के मुताबिक, बेहद अनुशासन प्रिय और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित मेरे पिता 2 दिसंबर रात 12 बजे से पहले रेलवे स्टेशन पहुंचे चुके थे और रोजाना की तरह ही अपने केबिन में डायरी मेंटेन करने लगे. इसी दौरान, प्लेटफॉर्म पर भगदड़ जैसी आवाज सुनाई पड़ी. बाहर आकर देखा तो चौरतफा हाहाकार मचा हुआ था. लोग एक दूसरे पर रौंदते हुए आगे बढ़ जा रहे थे, तो तमाम लोग मौके पर ढह जा रहे थे. एक अजीब किस्म की गंध फैली हुई थी. लोग सांस नहीं ले पा रहे थे. देखते देखते भागते दौड़ते लोग लाशों में तब्दील होने लगे. कइयों के मुंह से झाग निकलने लगा और आंखें लाल हो गईं.
उधर, स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर-1 पर मुंबई-गोरखपुर एक्सप्रेस हजारों यात्रियों से लदी हुई खड़ी थी. ट्रेन का करीब 32 मिनट का हॉल्ट था. गाड़ी में बैठे यात्रियों के बीच भी चीख पुकार मची हुई थी. यह देख पिता (डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट) ने अपने कर्मचारी से ट्रेन का सिग्नल देने को कहा. लेकिन देखा कि सिग्लनमैन खुद मृत पड़ा हुआ था. यही नहीं, तत्कालीन स्टेशन सुपरिटेंडेंट हरीश धुर्वे समेत तमाम रेलवे अधिकारी और कर्मचारियों की कुछ ही घंटों में मौत हो गई थी. वहीं, कुछ जान बचाकर स्टेशन से भाग निकले थे.
ऐसे में गुलाम दस्तगीर खुद ही लोको पायलट के पास पहुंचे. लेकिन पायलट ने बिना किसी आधिकारिक आदेश के ट्रेन को आगे बढ़ाने से मना कर दिया. यह देख खांसते-छींकते और हांफते डिप्टी एसएस दस्तगीर ने दौड़-दौड़कर इंजन में बैठे लोको पायलट और ट्रेन के आखिरी छोर पर गार्ड को अपनी जवाबदारी पर हाथ इंडेंट लिखकर दिया. लोको पायलट और गार्ड ने आशंका जताई कि कि तय समय से पहले ट्रेन को आगे बढ़ाने पर कोई दुर्घटना भी हो सकती है, लेकिन डिप्टी एसएस ने कहा कि स्टेशन पर रहोगे तो हजारों यात्रियों की जान चली जाएगी. आखिरकार गुलाम दस्तगीर ने अपने जोखिम पर ट्रेन को रवाना करवाया.
आसपास के स्टेशनों पर ट्रेनों को रुकवाया
स्टेशन डीएसएस दस्तगीर ने भोपाल के दोनों ओर निकटतम बड़े रेलवे स्टेशनों इटारसी और विदिशा पर अपने सहयोगियों को संदेश भेजा और भोपाल की सीमा में दाखिल होने वाली ट्रेनों को रोकने के लिए कहा. आधिकारिक बाधाओं के बावजूद दस्तगीर अधिकारियों को ऐसा करने के लिए मनाने में कामयाब रहे.
नाक पर गीला कपड़ा बांध बचाई जान
बेटे शादाब बताते हैं, अक्सर रेलवे कर्मचारी अपनी जेब में रुमाल रखते ही थे. उस रात मिथाइल आइसोसाइनेट रिसी तो किसी को कुछ पता नहीं था. लेकिन उस खतरनाक गंध से बचने के लिए लोगों ने अपनी अपनी मुंह और नाक को गीले कपड़े से ढंक लिया था. यही नहीं, ट्रेन को अपनी जोखिम पर स्टेशन से रवाना करने के बाद भी पिता नहीं रुके. उन्होंने पूरी रात गीले रूमाल की मदद से थोड़ी-थोड़ी सांस ली और हांफते-खांसते स्टेशन पर भाग दौड़ करके हजारों यात्रियों की जान बचाई. लेकिन हवा में घुले जगह ने आंखों को डैमेज करना शुरू कर दिया था. देखें ये Video:-
दिवंगत गुलाम दस्तगीर कमोबेश एक गुमनाम नायक बने रहे. हालांकि, अब यानी 39 साल बाद त्रासदी की दास्तां बड़े रूप में चित्रित की गई है, तो दस्तगीर परिवार इस बात से चिंतित और परेशान है कि उनके घर के दिवंगत मुखिया की भूमिका के साथ इस चित्रण में न्याय नहीं किया गया.
नाम बदलकर 'इफ्तेकार सिद्दिकी' कर दिया
aajtak.in से बातचीत में शादाब दस्तगीर कहते हैं, जिस तरह सर्वविदित हैं कि गैस त्रासदी का नाम लेने पर भोपाल का नाम ही लिया जाता है, तो उस रात स्टेशन पर हजारों लोगों की जान बचाने वालों में हमारे पिता और रेलवे अधिकारी गुलाम दस्तगीर का ही नाम लिया जाएगा. लेकिन वेब सीरीज के निर्माताओं ने इस गुमनाम हीरो का नाम बदलकर 'इफ्तेकार सिद्दिकी' कर दिया.
2 दिसंबर 2021 में 'The Railway Men' का टीजर रिलीज होने पर भोपाल में रहने वाले दस्तगीर परिवार ने प्रोडक्शन हाउस यशराज फिल्म्स (YRF) को कानूनी नोटिस भेजा. कहा कि सीरीज का मुख्य किरदार इफ्तेकार सिद्दिकी' (केके मेनन) का असल नाम 'गुलाम दस्तगीर' किया जाए. किसी फिल्म में फिक्शन चलता है, मगर फैक्ट से छेड़छाड़ नहीं. आप किसी की कुर्बानी को इस तरह नजरअंदाज नहीं कर सकते. यशराज फिल्म्स को जारी किए गए लीगल नोटिस में दस्तगीर परिवार ने कहा गया कि यह कहानी उनके पिता गुलाम दस्तगीर की कहानी है. इस पर फिल्म बनाने के अधिकार उन्होंने पहले ही स्मॉल बॉक्स प्रोडक्शन कंपनी को दे दिए थे.
आधी अधूरी जानकारी पेश की
शादाब दस्तगीर ने कहा, आधे अधूरे फैक्ट्स के साथ सीरीज के चार एपिसोड बना दिए. आखिरी एपिसोड में बताया गया कि 'स्टेशन मास्टर' श्मशान तक पहुंच जाते हैं, जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. हमारे पिता तो खुद चलकर घर तक आए थे. वाईआरएफ ने हमारे परिवार से मिलना तक उचित नहीं समझा. अगर निर्माता और निर्देशक हमारे परिवार से मिलते तो हम उन्हें बेहद दिलचस्प और करीबी तथ्यों से अवगत करवा देते. इसलिए यह वेबसीरीज उनके पिता की छवि को दर्शकों के सामने सही ढंग से पेश नहीं करती.
पब्लिक डोमेन की जानकारी से बनाई सीरीज: YRF
नोटिस के जवाब में YRF की ओर से दस्तगीर परिवार को कहा गया कि पब्लिक डोमेन से मिली जानकारी का इस्तेमाल करके यह फिल्म बनाई गई है. 50 सेकेंड के टीजर के आधार पर यह कैसे कह सकते हैं कि इससे आपके पिता या परिवार की छवि को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है? साथ ही यह तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट गुलाम दस्तगीर की बायोपिक नहीं है. वहीं, जुलाई 2021 में राइट्स किसी अन्य प्रोडक्शन हाउस को दिए जाने पर जवाब मिला कि यह सीरीज उससे पहले ही बनकर तैयार हो गई थी. इसलिए यशराज फिल्म्स और नेटफिलक्स ने किसी भी तरह का कोई उल्लंघन नहीं किया. हालांकि, अब पूरी सीरीज रिलीज होने पर दस्तगीर परिवार ने निर्माता यशराज फिल्म्स (YRF) पर मुकदमा करने और अदालत का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया है.
इमाद और एक्सप्रेस बैंडिट जैसा कुछ नहीं
तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट गुलाम दस्तगीर के बेटे शादाब ने तथ्यहीन करार दिया. शादाब दस्तगीर ने कहा, वेब सीरीज में अहम किरदार (उनके पिता गुलाम दस्तगीर) की भूमिका को दबाने के लिए कल्पनातीत किरदारों को खड़ा किया गया. मसलन, इमाद (बाबिल खान) नाम का किरदार हकीकत में कभी नहीं था. आखिर रेलवे में जॉइनिंग के पहले दिन बिना ट्रेनिंग के किसको सिग्नल ठीक करने भेजा जाएगा और इंजन चलाने दिया जाएगा. वहीं, स्टेशन पर एक्सप्रेस बैंडिट (दिव्येंदु शर्मा) जैसा कोई चोर शख्स नहीं था. यही नहीं,
बड़े सम्मान तक से रहे आजतक मरहूम
अक्टूबर 1985 में मुंबई में रोटरी क्लब के सम्मान समारोह और उसके बाद भोपाल मंडल रेलवे प्रबंधक कार्यालय की ओर से दिए गए एक छोटे से प्रशस्ति पत्र के अलावा भोपाल स्टेशन के तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट को कोई कोई मान्यता या सराहना नहीं मिली. उनके बेटों ने राष्ट्रपति को एक पत्र लिखकर त्रासदी में निभाई गई अपने पिता की भूमिका को मान्यता देने की मांग की. हालांकि, राष्ट्रपति भवन को ओर से पत्र रेल मंत्रालय को भेज दिया गया. लेकिन मंत्रालय ने परिवार को जवाब दिया कि यह मध्य प्रदेश सरकार से संबंधित मामला है. तब से परिवार ने कोई कोशिश नहीं की. एक मन में टीस लिए दिवंगत दस्तगीर के बेटे शादाब वेबसीरीज में ही बोले गए उसी डायलॉग को दोहराते हैं कि 'न जान लेने वालों को सजा मिली, और न जान बचाने वालों को शाबासी.'
2003 में हुआ इंतकाल
जहरीली गैस की वजह से गुलाम दस्तगीर बीमार रहने लगे थे. हादसे के चार साल बाद यानी 1988 में रिटायमेंट ले लिया था. उनका ज्यादातर समय अस्पतालों के चक्कर काटते ही बीता. बता दें कि साल 2003 में परिवार के मुखिया और भोपाल गैस त्रासदी के हीरो गुलाम दस्तगीर की MIC की वजह से हुई गंभीर बीमारियों ने जान ले ली.
उधर, गैस हादसे में शिकार होने के बाद से डिप्टी एसएस गुलाम दस्तगीर को देखभाल और इलाज जरूरी हो गया था. इसमें परिवार लगा रहा. बच्चों की पढ़ाई भी पूरी तरह प्रभावित हो गई थी. मुआवजे के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा की तरह राहत राशि दी गई. हालांकि, संघर्षों से जुझते हुए बहादुर और कर्तव्यनिष्ठ रेलवे अधिकारी के बच्चों साहब दस्तगीर, नायाब दस्तगीर और शादाब दस्तगीर ने अपने पैरों पर खड़े होकर घर को संभाला.
जानिए, क्या हुआ था उस रात
गौरतलब है कि 2 दिसंबर 1984 को भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से Methyl Isocyanate (MIC) गैस लीक हो गई थी. इस जहरीली गैस ने शहर की बड़ी आबादी को अपनी चपेट में ले लिया था. हवा में फैले जहर ने ऐसा तांडव मचाया कि आज तक उसके घाव भर नहीं सके हैं. गैस पीड़ितों की आने वाली पीढ़ियां तक तमाम बीमारियों से जूझ रही हैं. सरकारी आंकड़ों में भोपाल गैस त्रासदी में मरने वाले लोगों की संख्या करीब 2000 से 3000 है. वहीं, तकरीबन 6 लाख की आबादी को प्रभावित किया.
मुख्य आरोपी को नहीं मिल पाई सजा
भोपाल गैस हादसे के जिम्मेदार आरोपियों को कभी सजा नहीं हुई. उस वक्त UCC के अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन मामले का मुख्य आरोपी था. लेकिन मुकदमे के लिए पेश नहीं हुआ. 01 फरवरी 1992 को भोपाल की कोर्ट ने एंडरसन को फरार घोषित कर दिया. सितंबर, 2014 में एंडरसन की अमेरिका में मौत हो गई.