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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे की वैधता के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. 7 जजों की पीठ में इसे लेकर गुरुवार को सुनवाई का तीसरा दिन था. एएमयू के मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक राष्ट्रीय संस्थान है, न कि अल्पसंख्यक संस्थान. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू से पूछा था कि उसका अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा आखिर किस तरह वैध है? अदालत ने यह भी कहा कि एएमयू की 180 सदस्यीय गवर्निंग काउंसिल में महज 37 मुस्लिम सदस्य हैं. आखिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को क्यों चाहिए अल्पसंख्यक दर्जा? इस बीच सोशल मीडिया पर कई दलित बुद्धिजीवी मांग कर रहे हैं कि इन अल्पसंख्यक संस्थानों का दर्जा खत्म किया जाए क्योंकि इन संस्थानों में दलितों और पिछड़ों को आरक्षण न प्रवेश परीक्षाओं में मिल रहा है और न ही नौकरियों में. फिलहाल अभी एएएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को खत्म करने की मांग हो हो रही है. पर बाद में ईसाई, जैन और सिख संस्थाओं के भी अल्पसंख्यक दर्जों के खत्म करने की मांग हो सकती है. दलित-पिछड़े ही नहीं कट्टर हिंदूवादी लोग भी नहीं चाहते कि माइनॉरिटी स्टेटस का दर्जा किसी भी संस्थान को मिले. तय है कि लोकसभा चुनावों के पहले ये बड़ा मुद्दा बनने वाला है. क्योंकि मामला दलितों- पिछड़ों और अल्पसंख्यकों और हिंदुओं सभी को प्रभावित करने वाला होगा.
दलितों का हक मारा जा रहा है?
सोशल मीडिया पर सक्रिय दलित विचारक और पत्रकार दिलीप मंडल अपने एक्स हैंडल पर लिखते हैं कि केंद्र सरकार से निवेदन है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का मुसलमान अल्पसंख्यक दर्जा ख़त्म करके वहां इसी साल से एडमिशन में एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण लागू करे और टीचर पदों पर इन कैटेगरी का बैकलॉग भी भरे. वो सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज से भी अल्पसंख्यक दर्जा खत्म करने की मांग करते हैं. मंडल चाहते हैं कि सरकार ऐसे यूनिवर्सिटी जो आरक्षण देने का विरोध करते हैं उनका बजट रोक दे. वो कहते हैं कि बजट सरकार का तो मर्ज़ी किसी समुदाय की कैसे हो सकती है? वो सरकार से संविधान का पालन करने की अपील करते हैं. मंडल कहते हैं कि माइनॉरिटी संस्थान सरकार से मदद मांग सकती हैं और पूरी तरह सरकार के बजट पर चलना है तो माइनॉरिटी दर्जा कैसे कहा जा सकता है?
मंडल कहते हैं कि आज़ादी के बाद जब बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी हिंदू यूनिवर्सिटी की तरह काम नहीं करती तो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मुस्लिम यूनिवर्सिटी कैसे है? दोनों भारत सरकार की यूनिवर्सिटी हैं. सरकार के पैसे से चलती हैं, बीएचयू में आरक्षण है, एमएमयू में चाहिए.
कपिल सिब्बल के तर्क, मुस्लिम समुदाय दलितों से भी पीछे
वरिष्ठ वकील और यूपीए सरकार में कद्दावर मंत्री रह चुके कपिल सिब्बल ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने की जरूरत है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के लोग अभी भी जीवन के कई क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं. कपिल सिब्बल ओल्ड बॉयज़ एलुमनी एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और उन्होंने सुनवाई के दूसरे दिन अपनी दलीलें रखीं. सिब्बल कोर्ट में तर्क देते हैं कि मुसलमान शिक्षा के मामले में अनुसूचित जाति से भी दयनीय स्थिति में है. मुस्लिम जनसंख्या को सशक्त बनाने का एकमात्र तरीका शिक्षा है, और अधिकांश लोकप्रिय पाठ्यक्रमों में अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व ज्यादा नहीं है, केवल बहुमत है. सिब्बल ने अदालत को बताया, मैंने रियाद में देखा कि एएमयू के सभी डॉक्टर शाह की सेवा कर रहे थे. मैंने दोहा में देखा कि अधिकांश सीए एएमयू से हैं.सिब्बल कहते हैं कि उन्हें भारत में नौकरी नहीं मिलती है और उन्हें अच्छा लगेगा वापस आकर देश के लिए काम करें.
सिब्बल ने कहा कि हम केवल अल्पसंख्यकों के लिए शिक्षकों की नियुक्ति से लेकर प्रवेश तक में केवल आरक्षण मांग रहे हैं और कुछ नहीं. हालांकि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने यह सवाल उठाया कि 'कोई गैर-अल्पसंख्यक संस्थान यह नहीं कह सकता कि मैं केवल कुछ छात्रों को ही प्रवेश दूंगा, लेकिन यह प्रवेश मानदंड केवल अल्पसंख्यक संस्थानों को दिया गया है.'
मुद्दे का राजनीतिकरण
एएमयू की ओर सुप्रीम कोर्ट में दलील दे रहे पूर्व कांग्रेस नेता और अब समाजवादी पार्टी के साथ राज्यसभा पहुंचे कपिल सिब्बल ने कहा कि देश में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक हालात दलितों से भी खराब है. अखबारों में कल यही सुर्खियां थीं कि कपिल सिब्बल के नाम से. इस लड़ाई से सीधा संदेश ये जा रहा है कि कपिल सिब्बल की प्रतिबद्धता दलितों के बजाय मुस्लिम समुदाय के साथ ज्यादा है. दलित वोटों के लिए संघर्ष कर रही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए यह एक तरीके से सेटबैक हो सकता है. कपिल सिब्बल के चलते कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से दलित और पिछड़े जरूर नाराज हो सकते है. अगर बीजेपी ने लोकसभा चुनावों से पहले इसे मुद्दा बनाया तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों को नुकसान हो सकता है.
क्या है विवाद
विवाद शुरू होता है 1967 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से. अजीज बाशा केस में में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को नहीं माना. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एमएमयू अल्पसंख्यक दर्जे का संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरे देश में मुसलमानों ने विरोध-प्रदर्शन किया. तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण को ध्यान में रखते हुए एएमयू अधिनियम में एक संशोधन करके इसके अल्पसंख्यक दर्जे को बहाल कर दिया. पर 2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा सरकार के कदम को गैरसंवैधानिक बता दिया. दरअसल एएमयू ने स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 50% सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कर दी थीं. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उसी वर्ष आरक्षण को खारिज कर दिया और 1981 के अधिनियम को रद्द करते हुए कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है.
2006 में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दाखिल हुईं जिनमें एक याचिका केंद्र सरकार की तरफ से थी. मनमोहन सिंह सरकार की ओर दाखिल अपील को 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार ने वापस ले लिया. सरकार ने दलील दी कि वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में किसी अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना करने का समर्थन नहीं कर सकती. 12 फरवरी, 2019 को, तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली एक तीन-न्यायाधीशों वालवी बेंच ने मामले को 7 जजों की बेंच के पास भेज दिया. यही सात जजों की बेंच आजकल सुनवाई कर रही है.
क्यों न अल्पसंख्यक दर्जे वाला कानून ही खत्म हो
संविधान का अनुच्छेद 30 के तहत सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार मिलता है.यह प्रावधान इसलिए बनाया गया ताकि अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को बढ़ावा दिया जा सके. इस कानून के आधार पर बने संस्थान इस बात की गारंटी देते हैं कि अल्पसंख्यकों को सहायता देने में भेदभाव नहीं होगा. पर धीरे-धीरे ये संस्थान इतने मजबूत होते गए कि बहुसंख्यकों को लगने लगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है. इन संस्थानों में एक तो भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त दलितों और पिछड़ों को आरक्षण नहीं मिलता. अल्पसंख्यक संस्थानों को मिलने वाले फायदों को देखते हुए देश भर में बहुत से समुदायों में अल्पसंख्यक बनने की होड़ लगी रहती है. हिंदू समाज के कई समुदाय अल्पसंख्यक संस्थानों का फायदा लेने के इरादे से अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल कर चुके हैं. कुछ समुदाय इसके लिए प्रयासरत हैं.