
चंडीगढ़ मेयर चुनाव में इंसाफ हो गया है. फटाफट इंसाफ, लेकिन पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया के तहत. देश की सबसे बड़ी अदालत ने फास्टट्रैक कोर्ट से भी तेज फैसला सुनाया है - और इस बात का श्रेय मिलना चाहिये वायरल वीडियो को.
अगर सीसीटीवी फुटेज न होता तो ये सब हासिल नहीं हो पाता. बिलकुल नामुमकिन था. ये सीसीटीवी फुटेज ही है, जिसकी वजह से रिटर्निंग ऑफिसर ने भी आसानी से कबूल कर लिया कि कैमरे पर जो कारनामा हर कोई देख रहा है, अंजाम उसी ने दिया है.
ये तो एक छोटा सा नमूना था. छोटा सा चुनाव था. ऐसा चुनाव जिसे नतीजा आने के कुछ देर बाद ही लोग भूल जाते. राजनीतिक दल भी, और लोक सभा चुनाव 2024 की तैयारी में जुट गये होते - वो तो सब कुछ कैमरे पर रिकॉर्ड हो गया था, न जाने कहां कहां क्या होता है? किसे पता!
पूरे मामले में अनिल मसीह का चेहरा सामने है. लोगों की नजर में तो वो पहले ही चढ़ गये थे, अपने इकबालिया बयान के बाद तो बहुत कुछ सबके सामने आ चुका है, लेकिन ये सब कुछ तो नहीं है. अभी तो बहुत कुछ सामने आना बाकी है. बेशक, इस मामले में याचिकाकर्ता को इंसाफ हो चुका हो, लेकिन गुनहगार को सजा नहीं मिली है.
सवाल ये है कि क्या पूरे मामले में अनिल मसीह ही गुनहगार हैं?
कानून की नजर में तो ऐसा ही है, अनिल मसीह ही गुनहगार हैं - लेकिन राजनीतिक रूप से भी अनिल मसीह ही गुनहगार हैं?
फिलहाल, सबसे बड़ा सवाल यही है, जिसका जवाब शायद वक्त दे सके, शायद नहीं भी. वक्त भी दे देता तो बेहतर होता.
1. इंसाफ हुआ है, सजा मिलनी बाकी है
चंडीगढ़ मेयर चुनाव के आखिरी हिस्से में रिटर्निंग अफसर की हरकत का कैमरे में कैद हुआ वीडियो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था. जितना महत्वपूर्ण वीडियो का रिकॉर्ड होना था, उतना ही उसका बचे रहना भी. कई मामलों में तो मालूम होता है कि वारदात के वक्त सीसीटीवी भी सोया हुआ था - और उतना ही महत्वपूर्ण वीडियो का सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाना भी है.
वीडियो देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पहली राय यही थी, लोकतंत्र की हत्या तो हुई है. देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच का सवाल था, ये रिटर्निंग ऑफिसर क्या कर रहा है? हम नहीं चाहते कि देश में लोकतंत्र की हत्या हो... हम ऐसा नहीं होने देंगे... ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट आंखें बंद कर नहीं बैठा रहेगा.
और बेंच की टिप्पणी थी, रिटर्निंग ऑफिसर ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा कर काम किया... रिटर्निंग ऑफिसर ने अपराध किया है... उसके खिलाफ समुचित कार्रवाई हो.
फिर आदेश हुआ. नोटिस भेज कर. रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह हाजिर हों!
चुनाव से संबंधित सारे दस्तावेज भी मंगाये गये. वीडियो रिकॉर्डिंग. बैलट पेपर.
सुप्रीम कोर्ट में पेशी के दौरान अनिल मसीह ने बिना ना-नुकुर किये, सीधे सीधे मान लिया. वीडियो सही है. बैलट पर क्रॉस मार्क उनके ही लगाये हुए हैं. कैमरा झूठ नहीं बोलता, फोटोशॉप और कैमरे में असली फर्क यही है.
सुप्रीम कोर्ट की दखल से आम आदमी पार्टी के कुलदीप कुमार चंडीगढ़ के मेयर बन गये हैं. कुलदीप कुमार को तो इंसाफ मिल चुका है, अनिल मसीह को सजा मिलना बाकी है.
2. केजरीवाल की राजनीतिक लड़ाई को मिली है कानूनी जीत
आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के लिए चंडीगढ़ मेयर केस भी एक राजनीतिक लड़ाई ही थी. कानूनी जीत मिल जाने से हौसला जरूर बढ़ा होगा. ऐसी लड़ाई तो वो और उनके साथी और मोर्चों पर भी लड़ रहे हैं, लेकिन मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को तो अभी तक जमानत भी नहीं मिल पाई है. एक लड़ाई तो अरविंद केजरीवाल ईडी के साथ भी लड़ ही रहे हैं.
ये पहली बार नहीं है. दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर भी अरविंद केजरीवाल के लिए कई बार अदालतों के फैसले मददगार साबित हुए हैं. लेकिन आगे चल कर राजनीतिक दांवपेचों में उलझ कर ऐसी मदद भी अस्थाई ही साबित होती है. चंडीगढ़ के मामले में अभी तो वो राहत की सांस ले ही सकते हैं.
3. चुनाव प्रक्रिया पर उठने वाले सवालों को बल मिला है
चंडीगढ़ कांड से उन सवालों को तो बल मिला ही है, जो चुनाव प्रक्रिया को लेकर समय समय पर देश भर में विपक्षी दलों की तरफ से उठाये जाते रहे हैं. अब तक तो सवाल EVM को लेकर ही उठाये जाते रहे हैं - ये मामला तो बैलट पेपर से जुड़ा है, जिसे विपक्षी खेमे के कई नेता बेहतर विकल्प मान कर चल रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद प्रेस कांफ्रेंस कर अरविंद केजरीवाल कह रहे थे, सुनते तो थे कि बीजेपी वाले गड़बड़ करते हैं... बदमाशी करते हैं... वोटों की चोरी करते हैं... चंडीगढ़ चुनाव के वक्त सीसीटीवी में ये पकड़े गये.
दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल कहते हैं, ये केवल भारतीय जनतंत्र और माननीय सुप्रीम कोर्ट की वजह से संभव हुआ... हमें किसी भी हालत में अपने जनतंत्र और स्वायत्त संस्थाओं की निष्पक्षता को बचाकर रखना है.
ये देख कर तो लग रहा है कि बैलट पेपर का हाल तो और भी बुरा है. जैसे गुजरे जमाने में बूथ कैप्चरिंग होती थी. बूथ ही लूट लिये जाते थे.
4. बीजेपी की छवि खराब हुई है
हो सकता है अनिल मसीह ने ये सब अपने मन से किया हो. हो सकता है अनिल मसीह ने किसी के प्रभाव में ऐसा किया हो - लेकिन ऊपर से तो यही दिखाई दे रहा है कि बीजेपी दोषी है. बीजेपी की छवि खराब तो हुई ही है. चंडीगढ़ कांड के बाद बीजेपी बचाव की मुद्रा में तो आ ही गई है.
चंडीगढ़ कांड ने तो महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस के हड़बड़ी और कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के जबरन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के मामले को भी पीछे छोड़ दिया है. और उन शक शुबहों में हवा भर दी है जो काउंटिंग के वक्त कम मार्जिन से हार-जीत के मामलों में जाहिर किये जाते रहे हैं.
वैसे बीजेपी ने तो अपनी तरफ से पक्का इंतजाम कर ही लिया था. प्लान बी पर भी काम तो शुरू ही हो गया था. आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद बीजेपी में शामिल भी हो चुके थे. मेयर भी इस्तीफा दे चुके थे. बीजेपी के पार्षदों की संख्या 19 पहुंच चुकी है, और आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के पास नंबर 17 तक ही पहुंच रहा है.
लेकिन ये सब तो तब काम आता जब फिर से चुनाव कराये जाते - कई बार कानून के हाथ कल्पना से ज्यादा लंबे होते हैं!
5. कानून अपनी जगह है, अनिल मसीह राजनीतिक रूप से तो बेकसूर हैं
चंडीगढ़ मेयर चुनाव में रिटर्निंग ऑफिसर रहे अनिल मसीह को सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का तीन हफ्ते के भीतर जवाब देना है. अनिल मसीह पर कानूनी एक्शन तय है.
लेकिन ये सब तो उनके लिए दिक्कत वाली बात तब होती जब वो सरकारी मुलाजिम होते. नौकरशाह होते, या चुनाव आयोग की तरफ से नियुक्त किये गये होते.
अनिल मसीह के पास सच के साथ खड़े होने का एक बड़ा मौका था. सच के साथ बने रहने की जिम्मेदारी मिली हुई थी. ठीक वैसे ही जैसे छोटे मोट झगड़ों में किसी को सुलझाने के लिए मध्यस्थ या पंच मान लिया जाता है - और दोनों पक्ष आंख मूंद कर भरोसा करते हैं. अनिल मसीह यहीं पर चूक गये.
अव्वल तो अनिल मसीह बीजेपी के ही कार्यकर्ता हैं. मनोनीत पार्षद हैं, और चंडीगढ़ में बीजेपी के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते हैं - और वो बीजेपी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के सदस्य हैं.
देखा जाये तो अनिल मसीह तो बीजेपी के एक निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में अपना काम ही कर रहे थे. कानूनी रूप से भले ही ये गुनाह हो, लेकिन राजनीतिक रूप से तो वो बिलकुल बेकसूर लगते हैं. वो तो पूरी निष्ठा से अपना काम कर रहे थे - बीजेपी की छवि खराब होना तो बस एक हादसा है.