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राजस्‍थान में 'प्रयोग' से पहले BJP जरूर याद करेगी हिमाचल-कर्नाटक के नतीजे

ये बात जगजाहिर है. मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को न तो वसुंधरा राजे पसंद हैं, न ही शिवराज सिंह चौहान - लेकिन, सवाल है कि क्या पसंद नापसंद के चक्कर में मोदी-शाह राजस्थान को भी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की तरह गंवा देना चाहेंगे?

वसुंधरा राजे की नाराजगी की कीमत बीजेपी को येदियुरप्पा और धूमल की तरह चुकानी पड़ सकती है वसुंधरा राजे की नाराजगी की कीमत बीजेपी को येदियुरप्पा और धूमल की तरह चुकानी पड़ सकती है
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 29 सितंबर 2023,
  • अपडेटेड 8:34 PM IST

राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी की तरफ से वैसे ही कदम अपेक्षित समझे जा रहे हैं, जो मध्य प्रदेश के मामले में सामने आये हैं. बेशक बीजेपी दोनों राज्यों को लेकर जो प्रयोग करने जा रही है, वो 2024 के आम चुनाव की रणनीति का भी हिस्सा है. 

ये भी सही है कि लोक सभा चुनाव बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है. कहते हैं कि बड़ी चीजें हासिल करने के लिए छोटी चीजे गंवानी पड़ती है. ये देखा जा चुका है कि 2018 में राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद भी 2019 में बीजेपी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा था. 

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ये तो सही नहीं ही माना जाएगा कि लोक सभा चुनाव के लिए कोई भी राजनीतिक दल विधानसभा चुनाव में सरकार रहे या चली जाये, ऐसी परवाह नहीं करेगा. मान कर चलना चाहिये बीजेपी नेतृत्व भी ऐसा ही सोच और समझ कर चल रहा होगा.  

ये भी जगजाहिर है कि मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को न तो वसुंधरा राजे पसंद आती हैं, न ही शिवराज सिंह चौहान - लेकिन, सवाल है कि क्या पसंद नापसंद के चक्कर में मोदी-शाह राजस्थान को भी कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की तरह गंवा देना चाहेंगे? 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में तो ऐसा नहीं किया गया था. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी जिद पर अड़े रहे, और आलाकमान को तकरीबन उनकी हर जिद पूरी करनी पड़ी. कुछ ही दिन बाद जब हिमाचल प्रदेश में चुनाव हुए तो अलग रणनीति अपनायी गयी. और उसके कुछ दिन बाद कर्नाटक चुनाव में भी वैसा ही किया गया - और दोनों ही राज्यों के नतीजे एक जैसे रहे. दोनों राज्यों में पहले बीजेपी की सरकार रही और अब दोनों ही वो कांग्रेस के हाथों गंवा चुकी है.

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क्षत्रपों की परवाह न करने का खामियाजा भुगतना पड़ा है

हिमाचल प्रदेश के साथ ही गुजरात में भी चुनाव हुए थे. और हिमाचल की तरह ही गुजरात में भी कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार नितिन पटेल को चुनाव न लड़ने की घोषणा करनी पड़ी. विजय रुपानी ने भी उनकी ही तरह बीजेपी नेतृत्व से विधानसभा चुनाव में उनको टिकट न देने की अपील की थी. 

हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने भी चुनाव मैदान छोड़ने की घोषणा मिलते जुलते अंदाज में ही की थी. चुनावों के दौरान तो किसी को नहीं लगा, लेकिन नतीजे आने पर सब कुछ साफ हो गया. 

बीजेपी उस हिमाचल प्रदेश में चुनाव हार गयी थी, जहां से पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा आते हैं. जहां से बीजेपी के फायरब्रांड नेता अनुराग ठाकुर आते हैं. जिस अनुराग ठाकुर को बीजेपी दिल्ली और यूपी से लेकर जम्मू कश्मीर तक चुनावों में स्टार कैंपेनर बनाती है, कश्ती भी वहीं डूबी.

अब इससे बुरी हार क्या हो सकती है कि अनुराग ठाकुर के हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की 17 विधानसभा सीटों में से 12 कांग्रेस के हिस्से में चले गये हैं. सबसे बड़ी त्रासदी तो ये हुई कि हमीरपुर जिले की सभी पांच सीटें कांग्रेस के खाते में चली गयीं - और बीजेपी नेतृत्व चुपचाप देखता रहा. 

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कोई मुश्किल काम तो है नहीं ये सब समझना. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर जेपी नड्डा तक समझाते रहे कि बीजेपी और कांग्रेस में हार जीत का फर्क सिर्फ 0.9 फीसदी है, लेकिन ये सब तो मन बहलाने का गालिब ख्याल ही होता है. सच तो यही है कि हिमाचल प्रदेश की सत्ता बीजेपी के हाथ से फिसल गयी. 

ये सब हुआ सिर्फ इसलिए क्योंकि चुनाव न लड़ने की घोषणा के साथ ही प्रेम कुमार धूमल घर बैठ गये. अगर कहीं चुनाव प्रचार के लिये गये भी तो बेमन से. प्रेम कुमार धूमल, केंद्रीय अनुराग ठाकुर के पिता है और वो इलाका बीजेपी का गढ़ उनकी ही बदौलत बना था. जब इलाके के नेता को बेइज्जत किया जाएगा तो नतीजे भी वैसे ही आएंगे.

और बिलकुल वही चीज कर्नाटक में भी हुई. कर्नाटक में बीजेपी को सत्ता सिर्फ और सिर्फ बीएस येदियुरप्पा की बदौलत हासिल हुई थी. बीजेपी में ऑपरेशन लोटस के जनक भी वही रहे हैं. राजनीति में साम-दाम-दंड-भेद से इतर भी बहुत सारी चीजें होती हैं, येदियुरप्पा जिसके मास्टर रहे हैं. 

येदियुरप्पा को हटा कर बीजेपी ने बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया. येदियुरप्पा जहां लिंगायतों के लोकप्रिय नेता रहे हैं, बोम्मई में उनके पिता वाली कोई काबिलियत नहीं नजर आई. न ही कहीं कोई उनका प्रभाव ही नजर आया. उनके इलाके तक में तो बीजेपी उपचुनाव हार जाती रही. 

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जब मोदी-शाह को लगा कि येदियुरप्पा को साइडलाइन करने का नुकसान उठाना पड़ सकता है, तो बीजेपी के संसदीय बोर्ड में लाया गया. यहां तक कि जब भी प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक जाते येदियुरप्पा को काफी सम्मान के साथ पेश किया जाता. 

लेकिन उनके समर्थक समझ चुके थे कि येदियुरप्पा का मामला अब यूज एंड थ्रो टाइप का रह गया है. 2013 में येदियुरप्पा ने अपनी अलग पार्टी बनायी थी, वो कोई खास प्रदर्शन तो नहीं कर पाये, लेकिन बीजेपी 40 सीटों पर सिमट जरूर गई थी. नरेंद्र मोदी को जब 2014 के लिए बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया, नाराज येदियुरप्पा को मना कर पार्टी में लाया गया. और बीजेपी के इस कदम का आम चुनाव में फायदा भी मिला. 

2014 में जब नरेंद्र मोदी को बीजेपी ने पीएम उम्मीदवार बनाया, तो येदियुरप्पा को फिर से पार्टी में लाया गया. येदियुरप्पा के आने का बीजेपी को 2014 के आम चुनाव में फ़ायदा भी मिला - वही हुआ जो सबके साथ होता है. खुदा जब हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है - मोदी और शाह की जोड़ी ने बीजेपी को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना दी और येदियुरप्पा को भुला दिया. 

कर्नाटक का हाल ये रहा कि बीजेपी के पास येदियुरप्पा जैसा लोकप्रिय कोई नेता नहीं था जो वोटर को खींच सके, हिमाचल प्रदेश की स्थिति थोड़ी अलग मानी जा सकती है - लेकिन राजस्थान का हाल तो बिलकुल कर्नाटक जैसा ही है. 

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महंगा पड़ सकता है वसुंधरा राजे को नजरअंदाज करना?

कर्नाटक की ही तरह राजस्थान में भी वसुंधरा राजे के कद का बीजेपी के पास कोई नेता नहीं है. ऐसा कोई भी चेहरा नहीं है जो राजस्थान की एक छोर से दूसरे छोर तक बीजेपी को वोट दिला सके. 

राजस्थान में तो बारी भी बीजेपी के ही सरकार बनाने की है. कांग्रेस के पांच साल के शासन में ज्यादातर वक्त तो झगड़ा ही चलता रहा है. सत्ता विरोधी लहर भी अशोक गहलोत सरकार के ही सामने है. मतलब, सत्ता में वापसी का बीजेपी के पास पूरा मौका है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि बीजेपी के लिए क्या महत्वपूर्ण है वसुंधरा राजे को सबक सिखाना या राजस्थान में सरकार बनाना.

अभी अभी बीजेपी की परिवर्तन यात्रा खत्म हुई है, जिसमें पार्टी को निराशा हाथ लगी है. लोगों से जो उम्मीद थी. भीड़ की, नहीं जुटी. एक यात्रा की शुरुआत के वक्त वसुंधरा राजे मौजूद थीं, लेकिन बाकी यात्राओं से दूरी बना ली थी. दिसंबर, 2022 में जन आक्रोश यात्रा में भी ऐसा ही हुआ था. यात्रा का नेतृत्व सतीश पूनियां कर रहे थे, लेकिन लोगों में कम उत्साह देखने को मिला था. कुछ दिन बाद कोविड महामारी का बहाना बना कर बंद कर दिया गया. 

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सिर्फ यात्राएं नहीं, 2018 से अब तक राजस्थान में 9 उपचुनाव हुए हैं और बीजेपी सिर्फ एक जीत पायी है, जबकि कांग्रेस को 7 सीटों पर जीत मिली. सीट बचा सकी है. कांग्रेस ने अपनी चार सीटें तो बचायी ही, तीन सीटों पर अलग से जीत हासिल की है. 

सार्वजनिक तौर पर वसुंधरा राजे को नजरअंदाज जरूर किया जा रहा है, लेकिन संगठन में अब भी उनका दबदबा बना हुआ है. वसुंधरा राजे के समर्थक देवी सिंह भाटी का केस इस बात का मिसाल है. बीजेपी में कुछ दिनों से वसुंधरा के समर्थकों को भी ठिकाने लगाने का खेल देखा जा रहा है, लेकिन देवी सिंह भाटी की घर वापसी वसुंधरा राजे के दबाव के चलते ही संभव हो पायी है. बताते हैं कि वसुंधरा राजे की अमित शाह और जेपी नड्डा से खास मुलाकात हुई थी - और 24 घंटे बाद ही देवी सिंह भाटी फिर से बीजेपी नेता बन चुके थे. 

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