
27 फरवरी को राज्यसभा की 56 सीटों के लिए होने जा रहे चुनाव में बीजेपी ने तमाम समीकरण साधने की कोशिश की है. सूची पर राम मंदिर का प्रभाव भी देखा जा सकता है, तो बीजेपी की चुनावी और भविष्य की तैयारियों की झलक भी नजर आती है.
बीजेपी की सूची में कांग्रेस छोड़ कर आने वाले अशोक चव्हाण के नाम वैसे ही देखा जा सकता है, जैसे राज्यसभा के जरिये संसद पहुंचे और अब केंद्रीय मंत्री हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया. ऐसे नेताओं के लिए ये बीजेपी एक खास मैसेज भी लगता है.
अयोध्या के राम मंदिर को लेकर बने माहौल में अलख जगाये रखने के लिए गुजरात के हीरा कारोबारी गोविंद ढोलकिया को भी राज्यसभा भेजा जा रहा है. गोविंद ढोलकिया राम मंदिर के लिए 11 करोड़ रुपये का चंदा देने को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं.
गोविंद ढोलकिया का कहना है कि वो किसान परिवार से आते हैं, और किसान से कारोबारी बनने के अपने सफर को काफी सुखद बता रहे हैं. गोविंद ढोलकिया सूरत से हैं, और वो गुजरात की कई सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़े हैं.
गोविंद भाई ढोलकिया के मुताबिक केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने उनको राज्यसभा भेजे जाने की बात बताई है. और कहते हैं, अमित शाह ने बताया था कि वो और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिलकर राज्यसभा के लिए उनका नाम तय किया है.
एक और उम्मीदवार डॉक्टर अजीत गोपचड़े का नाम भी राम मंदिर आंदोलन से ही जुड़ा है. वो 1990 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा का भी हिस्सा रहे हैं. सोशल मीडिया पर वायरल तस्वीरों में डॉक्टर अजीत गोपचड़े को कारसेवकों के समूह में देखा जा सकता है. 1992 में वो 22 साल के थे और अपना एमबीबीएस कोर्स पूरा ही किये थे, तभी वो आंदोलन में शामिल हुए और अयोध्या पहुंच गये.
2023 के विधानसभा चुनावों जैसा प्रयोग
राज्यसभा चुनावों में भी बीजेपी कुछ वैसे ही एक्सपेरिमेंट कर रही है, जैसा 2023 के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला था. खासकर मध्य प्रदेश और राजस्थान चुनाव में. बीजेपी ने दोनों ही राज्यों में बड़े नेताओं, जिनमें केंद्रीय मंत्री भी शामिल थे, को विधानसभा चुनाव में उतार दिया था. बीजेपी का ये प्रयोग सफल भी रहा. अब लोक सभा चुनाव के लिए तो ज्यादा से ज्यादा फ्रेश चेहरे मोर्चे पर भेजने का बीजेपी ने बंदोबस्त भी कर लिया है.
राज्यसभा चुनाव में भी बीजेपी करीब करीब वैसा ही एक्सपेरिमेंट कर रही है, लेकिन तरीका थोड़ा अलग लगता है. शामिल तो कई मंत्री इस प्रयोग में भी हैं, लेकिन पहले वाले से ये प्रयोग इस लिहाज से भी अलग है, क्योंकि इसमें नेताओं को दिल्ली से सूबे की राजनीति में शिफ्ट करने की मंशा अभी नहीं लगती.
बल्कि, बीजेपी नेतृत्व की ये कोशिश लगती है कि अब तक राज्यसभा के जरिये राजनीति करने वाले नेता फील्ड में उतरें, और जमीनी राजनीति की हकीकत को भी समझ सकें. बेशक, ये नेता भी बीजेपी के बैनर तले ही लोक सभा चुनाव लड़ रहे होंगे. हो सकता है उनको मोदी लहर का फायदा भी मिले, लेकिन राज्यसभा जैसी जीत की गारंटी पहले से तो नहीं ही मिल सकती है.
बीजेपी ये प्रयोग कुछ हद तक पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को राज्यसभा की जगह लोक सभा चुनाव लड़ाने जैसी ही है. रविशंकर प्रसाद पहले बतौर राज्यसभा सांसद ही केंद्रीय मंत्री हुआ करते थे, लेकिन 2019 में बीजेपी ने उनको भी पटना साहिब से लोक सभा चुनाव में उतार दिया था. लोक सभा चुनाव जीत कर वो मंत्री भी बने, लेकिन बाद में हुए फेरबदल में वो कई नेताओं की तरह कैबिनेट से बाहर कर दिये गये. जरूरी नहीं कि राज्यसभा की जगह लोक सभा चुनाव लड़ने की हिदायत पाने वाले नेताओं के साथ भी ऐसा ही हो, क्योंकि ये तो उनके तात्कालिक प्रदर्शन का नतीजा होता है.
पूरी ट्रेनिंग लेकर मैदान में उतारे जा रहे बीजेपी नेता
बीजेपी नंबर के हिसाब से 27 राज्यसभा की सीटें जीत सकती है. और 1 ओडिशा में नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी के समर्थन से केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव का राज्यसभा पहुंचना निश्चित हो जा रहा है. यूपी और बिहार जैसे राज्यों में भी बीजेपी कुछ ऐसे प्रयोग कर रही है.
बीजेपी ने राज्यसभा के लिए 28 उम्मीदवारों की सूची जारी की है, जिसमें सिर्फ 4 प्रत्याशियों को फिर से भेजने भेजा जा रहा है, जबकि बाकी 24 नये चेहरे हैं. जिन लोगों को दोबारा राज्यसभा के लिए चुना गया है उनमें केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव की तरह एल. मुरुगन के अलावा बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा और प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी शामिल हैं.
बीजेपी नेतृत्व ने पहले ही साफ कर दिया है कि जो सीनियर नेता राज्यसभा के जरिये संसद पहुंचते रहे हैं, वे भी लोक सभा चुनाव के मैदान में उतरें. और यही वजह है कि केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, धर्मेंद्र प्रधान, मनसुख मांडविया, नारायण राणे, पुरुषोत्तम रुपाला, वी. मुरलीधरन और राजीव चंद्रशेखर को लोक सभा चुनाव जीत कर ही संसद लौटना होगा. ऐसे कुछ नेताओं को संगठन में भी भेजा जा सकता है.
सिर्फ केंद्रीय मंत्री ही नहीं, कई सांसदों को भी दोबारा राज्यसभा नहीं भेजा जा रहा है, जिनमें बीजेपी के राष्ट्रीय मीडिया प्रमुख अनिल बलूनी, बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सरोज पांडेय और बिहार से राज्यसभा भेजे गये सुशील कुमार मोदी के नाम शामिल हैं.
अगस्त, 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेताओं को सलाहियत रही कि सभी राज्यसभा सांसदों को लोक सभा चुनाव लड़ना चाहिये, ताकि उसकी तासीर को करीब से महसूस कर सकें. असल में, बीजेपी नेतृत्व चाहता है कि राज्यसभा के कंफर्ट जोन से निकल कर ये नेता लोक सभा के मैदान में उतरें और अपने अपने राज्यों में नये चेहरों के रूप में उभरने की कोशिश करें. नेतृत्व को धर्मेंद्र प्रधान से ऐसी उम्मीद ओडिशा में हैं. ओडिशा पर भी बीजेपी की नजर वैसे ही टिकी है, जैसे आंध्र प्रदेश पर. दोनों ही राज्यों के मौजूदा मुख्यमंत्री बीजेपी को सपोर्ट करते हैं, लेकिन सरकार तो अपनी नहीं होती. हो सकता है बीजेपी ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भी बिहार और महाराष्ट्र जैसे प्रयोग करना चाह रही हो, लेकिन हर जगह नीतीश कुमार और एकनाथ शिंदे तो मिलने से रहे.
वी. मुरलीधरन से अपेक्षा है कि वो केरल में बीजेपी की जमीन मजबूत करें. राजीव चंद्रशेखर चाहें तो केरल या कर्नाटक में कहीं भी काम कर सकते हैं. केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर मूल रूप से मलयाली हैं, लेकिन वो बेंगलुरू में जमे हुए हैं.
बीजेपी चाहती है कि मनसुख मांडविया और पुरुषोत्तम रुपाला भी गुजरात में पार्टी का चेहरा बनें ताकि वहां के नेता हमेशा ही मोदी-शाह के भरोसे न बैठे रहें. ये ठीक है कि गुजरात चुनाव की रिकॉर्ड जीत के चलते बीजेपी भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाये हुए है, लेकिन नये चेहरे भी तो उभर कर आने चाहिये. आनंदीबेन पटेल, विजय रूपानी और नितिन पटेल जैसे नेता तो मुख्यधारा की राजनीति से रिटायर ही हो चुके हैं. गुजरात चुनावों में बीजेपी की जीत के लिए तारीफ बटोरने वाले सीआर पाटिल मैदान में जरूर हैं, लेकिन काम करने वाले और नेता भी तो चाहिये ही.
भूपेंद्र यादव राजस्थान या हरियाणा में, किसी भी जगह बीजेपी के काम के हो सकते हैं. अमित शाह के बेहद भरोसेमंद भूपेंद्र यादव वैसे तो कई राज्यों में अपनी काबिलियत का लोहा मनवा चुके हैं, लेकिन बिहार में ज्यादा काम किया है. भूपेंद्र यादव की राजस्थान से ज्यादा जरूरत हरियाणा में लगती है, जहां मनोहरलाल खट्टर नेतृत्व के बेहद भरोसेमंद नेता के रूप में कामकाज देख रहे हैं, लेकिन काम काज से बाहर उनकी मौजूदगी उतनी प्रभावी नहीं समझी जाती है. पिछले चुनाव में तो वो बीजेपी को बहुमत तक भी नहीं पहुंचा सके थे, और दुष्यंत चौटाला को लेकर गठबंधन की सरकार चलानी पड़ रही है.
बीजेपी उम्मीदवारों की सूची देख कर तो यही लगता है कि राज्यों में ऐसे नेताओं को उतारने की पार्टी की तैयारी है जो मोदी-शाह के मिजाज के हिसाब से हर तरह के काम करने के लिए पूरी तरह ट्रेंड हो चुके हैं.