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उधर ब्रिटेन में...
मैं हार की ज़िम्मेदारी लेता हूं ब्रिटेन के पूर्व पीएम ऋषि सुनक ने ब्रिटेन के आम चुनाव में कंज़र्वेटिव पार्टी के सबसे खराब प्रदर्शन के लिए देश से माफी मांगी. फिर अपने प्रतिद्वंदी और ब्रिटेन के अगले प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर की जमकर तारीफ़ की.
इधर हमारे देश में,
सिंधुदुर्ग में 35 फीट ऊंची शिवाजी की प्रतिमा ढहने के मामले को लेकर महाराष्ट्र की सियासत में हंगामा मचा हुआ है. शिवसेना (UBT) और एनसीपी सहित तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे पर शिंदे सरकार को घेर रहे हैं. उनसे माफी की मांग कर रहे हैं. आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं. यहां तक कि नौसेना तक को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. लेकिन माफी कोई नहीं मांग रहा है.
सियासत में आखिर माफी इतनी महंगी क्यों है?
हमारे देश में कोई पॉलिटिशियन माफी क्यों नहीं मांगना चाहता है? क्षमायाचना करने में उसका क्या जाता है? सियासी इतिहास देखें तो लगेगा माफी कितना मुश्किल शब्द बन गया है. या कहें तो बना दिया है हमारे सियासतदानों ने... तो चलिए आज इसी माफी शब्द पर ही बात करते हैं बल्कि इसमें आम लोगों को भी शामिल कर लेते हैं. यह भी विचार करते हैं कि सियासतदानों और आम आदमी की माफी में क्या फर्क...राजनीतिज्ञ आखिर माफी क्यों नहीं मांगते?
क्या होता है माफी का मनोविज्ञान?
राजनेताओं की माफी की बात करें इससे पहले आइए जान लेते हैं कि माफी का मनोविज्ञान क्या होता है? प्रशांत भूषण के किसी एक मामले में सेफोलॉजिस्ट योगेंद्र यादव ने माफी को लेकर बहुत मार्के की बात कही थी. उन्होंने लिखा कि माफीनामे के लिए पांच शर्तों का पूरा होना जरूरी है. पहली शर्ते ये है कि सचमुच कुछ गलत हुआ हो. माफी मांगने के लिए बहुत जरूरी है कि कहीं कोई भूल-चूक हुई हो, कुछ ऐसा हुआ हो जो लगे कि भाई, नैतिक रूप से ये बात जायज ना कही जाएगी. ऐसा होने पर ही तो कोई अपनी भूल-चूक या नैतिक दोष के लिए माफी मांगेगा! दूसरी शर्त है मन में स्वीकार भाव का होना, पूरी साफगोई से ये स्वीकार करना कि हां, गलती हुई है. तीसरी शर्त है जिम्मेदारी के भाव का होना, इस तैयारी का होना कि जो गलती हुई है उसके चाहे जो नतीजों हों, जो भी नुकसान हुआ हो, उस सबका जिम्मेवार मैं ही हूं क्योंकि गलती मैंने की है. चौथी शर्त है पछतावे का भाव जो आपसे ये कहलाये कि जो गलती हुई उसको लेकर आपके दिल में दर्द है, आप गहरे अफसोस में हैं कि आह ! मुझसे ये क्या हो गया ! पांचवीं और आखिरी शर्त का रिश्ता एक संकल्प से जुड़ा है, मन में ये संकल्प होना चाहिए कि ऐसी गलती फिर कभी दोबारा नहीं होगी. यानी इसके निचोड़ के रूप देखें तो साफ समझ में आएगा कि माफी मांगने के लिए पछतावा होना जरूरी है. इसके अलावा मन में संकल्प शक्ति का होना जरूरी है.
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माफी के मनोविज्ञान को समझ लेने के बाद चलिए इस बात पर विचार करते हैं कि पॉलिटिशियन के मामले में क्या हो जाता है? वे किस बात से डरकर माफी मांगने से बचना चाहते हैं? कुछ कारणों पर विचार करें तो साफ दिखाई देगा कि सियासतदान माफी से इन वजहों से बचना चाहते हैं.
जबकि विचार किया जाए तो माफी नहीं मांगने के जितने खतरे हैं उसकी तुलना में माफी एक अद्भुत शब्द है. भारत से अमेरिका तक ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जब राष्ट्रपति से लेकर सामान्य राजनेता ने लोगों से माफी मांगी और जनता ने उस नेता का न सिर्फ माफ किया बल्कि अपने सर-माथे भी बिठा लिया. अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से बड़ी गलती हुई. उन्होंने लोगों से माफी माफी मांगी. लोग गलतियों पर माफी मांगने पर क्षमा करने पर तैयार रहते हैं. इमरजेंसी की याद करें तो इंदिरा गांधी के प्रति नफरत को भुला लोगों ने उन्हें दोबारा सत्ता सौंपी थी. इस तरह से देखा जाए तो माफी मांगने के बहुत से पॉजिटिव प्रभाव हो सकते हैं. कुछ की बात की जाए तो इससे...
फिर माफी मांगने में कैसी शर्म? हम तो ऐसी उम्मीद ही कर सकते हैं कि आगे शायद कभी सियासतदानों का रवैया बदले और वे खुले दिल से माफी मांगने के लिए आगे आने लगें...जिस तरह से राजनीति बदल रही है. उम्मीद तो है कि यह दिन जल्द ही देखने को मिलेगा. आप क्या कहते हैं? बोल दीजिए न आमीन!!
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Extra shot…
इतने गंभीर विमर्श को आइए जरा एक व्यंग्य के माध्यम से हल्का करते हैं. काफी पहले मैंने आम आदमी की माफी को लेकर एक व्यंग्य लिखा था जिसमें उसकी बेचारगी को शिद्दत से महसूस करने की कोशिश की गई थी. यानी आम आदमी तो इस व्यवस्था में इतना बेचारा है कि उसके पास माफी मांगने के लिए कायदे से कोई विषय ही नहीं हैं...हालांकि वो बात अलग है कि वो हर बात पर माफी मांगने के लिए तैयार खड़ा है. उसके अंदर माफी मांगने के लिए जरूरी नैतिक साहस और संकल्प ज़िंदा है.
किस्सा एक मामूली आदमी की मामूली ख़्वाहिश का...
सॉरी कहने की बड़ी इच्छा हो रही है आज. किसे कह दूं? अब इच्छा है तो इच्छा है. माफी मांगना है सो मांगना है. डर भी लगता है साब लोग किसी मामूली आदमी की माफी को हिकारत की निगाह से ना देखें. मन में सोच न बैठें कि बेटा, पहले हमसे सॉरी कहने की औकात तो पैदा कर लें. और मान लो किसी से जबर्दस्ती माफी मांग ही लूं तो कहीं वो बंदा डांटने पे ही ना उतर आए. बेबसी देखिए साब, माफी मांगने तक की भी जुगाड़ नहीं बन पा रही है. नकली तो छोड़िए सॉरी कहने के लिए एक असली कारण तक नहीं मिल पा रहा है.
याद ही नहीं आ रहा है कभी किसी का दिल दुखाया हो। किसी से बदसलूकी की हो. किसी को हड़काने की जुर्रत की हो. कैसी कमतरी है ये? हम इतने गए गुजरे हैं क्या? जरा सी ख्वाहिश भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं अपनी. माफी मांगना तक डिजर्ब नहीं कर पा रहे? हाय! हाय! घोर निराशा का क्षण, आदमी के पास अपनी उल्लेखनीय बद्तमीजी का भी कोई किस्सा नहीं है?
निजी आघात के इन विकट क्षणों में मैं अपनी जिंदगी के फ्लैशबैक को भी टटोलने की कोशिश करता हूं. लेकिन टूटने-फूटने, व्यथित होने, हारने, हड़कने, अपमानित होने के सारे किस्से खुद के साथ ही पाता हूं. अपमान के इतने आंसू निकले हैं कि स्टॉक करें तो ठीक-ठाक सी टंकी में दो दिन के पानी का स्टॉक हो जाए। हाय! कैसा टुच्चा सा जीवन जीया है हमने! किसी से माफी मांगने की कोई सटीक वजह ही नहीं जुटा पा रहा हूं.
‘लगता है बेकार गए हम’ किस्म के शीर्षक मेरे दिमाग में चमकने लगे हैं. मेरा अदनापन अब बौनेपन की ओर बढ़ रहा है. इतनी घोर बेइज्जती, प्रभु! अदने आदमी के जीवन में कमीनेपने की कोई गतिविधि नहीं लिखी तूने?
लोगों से मिलो तो हर के पास दूसरों का दिल दुखाने के पर्याप्त किस्से हैं. मौके निकाले हैं लोगों ने इस क्षेत्र में. अपनी कमजोरी के चलते हमही चूक गए! क्या पशुवत जीवन जीया है हमने!
दूसरों को ठेस पहुंचाने के हर मौके पर सहमति बनाते रहे. कहीं राय नहीं रख पाए। कहीं विरोध का झंडा तक नहीं उठा पाए. कहीं गलत होता रहा तो टोक नहीं पाए. सौहार्दता बनाए रखी. नपुंसक सहमति किसी को आईना दिखा सकती है भला? बिना आईना दिखाए तो क्या ठेस पहुंचेगी. माफी मांगने के क्या कारण पैदा होंगे. अदने आदमी तेरी तो..सिगरेट के टोटे टाइप मसल देना चाहिए तेरी भलमनसाहत.
सो, एक मामूली आदमी की मामूली सी ख्वाहिश भी इन दिनों पूरी नहीं हो पा रही है. वैसे आपको क्या लगता है पहले कभी होती थी क्या, तो ऐसे सभी लोगों को आपकी तरफ से बोल दूं ना, माफ कीजिए भिड़ू..!
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