
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने कांग्रेस के आगे कुआं पीछे खाई वाली स्थिति पैदा कर दी है. एक तरफ तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का बनाया वह कानून है जो 1986 में सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो वाले मामले में आए फैसले को पलटने के लिए बनाया गया था. दूसरी ओर आज की आधुनिक पीढ़ी, चाहे वह मुस्लिम ही क्यों न हो, इस फैसले पर खुश ही दिख रही है. हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय में इस फैसले का समर्थन करने वाले मुट्ठी भर ही लोग हों पर उनकी भूमिका निर्णायक हो चुकी है. इसके साथ ही कांग्रेस यह भी जानती है कि राजीव गांधी की उस गलती का खमियाजा किस तरह कांग्रेस को भुगतना पड़ा था. उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का लेबल लग गया था. लेकिन इसके साथ यह भी सत्य है कि 2024 लोकसभा चुनावों में मिली कांग्रेस की सफलता में बहुत बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आए वोटों का रहा है. उत्तर भारत हो या दक्षिण मुस्लिम वोट कांग्रेस की रीढ़ बन चुका है. भारतीय जनता पार्टी के हिंदू राष्ट्र वाले तेवर जितने तीखे होते जा रहे हैं उतने ही मुस्लिम वोट कांग्रेस के पक्ष में इकट्ठा हो रहे हैं.
क्या कांग्रेस फिर फैसले का विरोध करेगी?
राजीव गांधी ने शाहबानो वाले फैसले को पलटने के लिए जब कानून बनाया था. उस समय भी प्रगतिशील मुसलमानों के एक तबके ने इसका विरोध किया था. केरल के वर्तमान राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान तब राजीव मंत्रिमंडल में होते थे. राजीव गांधी के इस फैसले का विरोध करते हुए उन्होंने मंत्रिपद पद से इस्तीफा दे दिया था. तलाकशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता देने का रास्ता खोलने वाले फैसले के खिलाफ तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कानून तो बना दिया पर शायद शाहबानो की ऐसी हाय लगी कि उसके बाद कांग्रेस पार्टी कभी पूर्ण बहुमत में सरकार नहीं बना सकी. हालांकि देखा जाए तो पिछले 35 सालों में गंगा का पानी बहुत बह चुका है. देश में उदारीकरण के बाद कई तरह के सामाजिक परिवर्तन हुए हैं. फिर भी यह कहना मुश्किल है कि मुस्लिम समुदाय अब भी भरण पोषण दिए जाने के फैसले का स्वागत करेगा या नहीं. कई मुस्लिम स्कॉलर्स ने भी इस फैसले का विरोध किया है. इसलिए ऐसा लगता है कि अब भी मुस्लिम समुदाय इस तरह के कानून के लिए राजी नहीं है. मतलब साफ है कि खुद को सेक्युलर कहने वाली पार्टियों के लिए सेफ यही होगा कि वो इस फैसले का विरोध करें. शायद यही कारण है कि इंडिया गठबंधन के किसी भी दल की ओर से इस फैसले का स्वागत नहीं किया गया है. फिलहाल कांग्रेस ने भी अभी कहीं से किसी तरह का बयान नहीं आया है.
शाहबानो मामला बनाम राजीव गांधी बनाम वर्तमान फैसला
अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण राशि पाने के लिए शाहबानो नामक मुस्लिम महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था. जिला अदालत में शुरू हुई यह कानूनी लड़ाई 1985 में शीर्ष अदालत की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ तक पहुंची. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में आदेश दिया कि मुस्लिम महिलाएं भी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं. इस फैसले की वजह से मुस्लिम पतियों को अपनी तलाकशुदा पत्नी को इद्दत की अवधि तीन महीने से आगे भी भरण-पोषण की राशि देना अनिवार्य हो जाता. इसके बाद देश में मुस्लिम समुदाय में इस फैसले को लेकर हंगाम खड़ा हो गया.
इसके बाद सीआरपीसी की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण का भत्ता देने का विवादास्पद मुद्दा 1985 में राजनीतिक विवाद बन गया. मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का कड़ा विरोध किया और राजीव गांधी सरकार को उच्चतम न्यायालय के फैसले का विरोध करने के लिए मंत्री जेड ए अंसारी को मैदान में उतारा. इसके चलते आरिफ मोहम्मद खान नाराज हो गए और उन्होंने सरकार छोड़ दी. मुस्लिम वोटों को बिखरते देख राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 लाई. 2001 में डेनियल लतीफी मामले में सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को वैधता को बरकरार रखा.
अब यह मामला एक बार फिर सुर्खियों में है क्योंकि न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने बुधवार को दिए अपने फैसले में एक बार फिर यह मान लिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है. पीठ ने कहा कि शाहबानो मामले में सर्वसम्मति से यह माना था कि ऐसे पति का दायित्व उक्त संबंध में किसी भी ‘पर्सनल लॉ’ के अस्तित्व से प्रभावित नहीं होगा और सीआरपीसी 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प हमेशा उपलब्ध है.
क्या सीएए पर जैसी चुप्पी साधी थी कांग्रेस ,कुछ वैसा करेगी?
पिछले दिनों जिस तरह कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय से संबंधित मुद्दों पर बहुत सोच समझकर फैसले ले रही है. इसके साथ ही ऐसे मुद्दों पर पार्टी न खुलकर न विरोध के मोड में आती है और न ही समर्थन करते दिखती है. सीएए जैसे मुद्दों पर कांग्रेस का रुख कुछ ऐसा ही रहा. एक तरफ जहां बंगाल में ममता बनर्जी खुलकर इसका विरोध कर रही थीं, अरविंद केजरीवाल लगातार सीएए के विरोध में बयानबाजी करते रहे कांग्रेस पार्टी ने शांति बनाए रखी. हालांकि सीएए पर इस तरह का ठंढा रुख अपनाए जाने के चलते केरल में कांग्रेस को जमकर निशाना भी बनाया गया पर पार्टी टस से मस नहीं हुई.
सीपीआई की एनी राजा राहुल वायनाड में राहुल गांधी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी थीं . सीपीआई एम की पहले से ही योजना थी कि इस बार राहुल गांधी को सीएए के मुद्दे पर घेरना है. केरल के मुख्यमंत्री पिनराय विजयन राहुल और कांग्रेस पर निशाना साधते हुए वायनाड में कहते थे कि जब पांच साल पहले संसद में नागरिकता संशोधन विधेयक पर चर्चा हुई थी तो केरल से असहमति की तेज़ आवाज़ केवल एलडीएफ की थी. बाकी 19 यूडीएफ सदस्य क्यों चुप थे, क्या राहुल ने कुछ कहा? विजयन सवाल उठाते थे कि इस संबंध में कांग्रेस और भाजपा के रुख में क्या अंतर है? चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस पर हमला करते हुए वे कहते थे कि विधेयक को संसद की मंजूरी मिलने के कुछ सप्ताह बाद केरल विधानसभा सीएए विरोधी प्रस्ताव पारित करती है.क्या कांग्रेस ने मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों पर शासन करते हुए ऐसा कहा? सीएम विजयन बैक-टू-बैक आरोप लगाते हैं उन्होंने पूछा, 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी सीएए पर चुप क्यों रहे? क्या ये वामपंथी दल नहीं थे जो दिल्ली दंगों के दौरान पीड़ितों के साथ खड़े थे? जाहिर है कि कांग्रेस के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है. क्योंकि वो जवाब देना ही नहीं चाहती है.
मतलब साफ है कि जब सीएए जैसे मुद्दों पर इंडिया गठबंधन के अन्य साथी दलों के आवाज उठाने के बावजूद कांग्रेस चुप्पी साधी रही तो कोई दो राय नहीं हो सकती कि मुस्लिम महिलाओं को भरण पोषण के मुद्दे पर कांग्रेस इस तरह का रुख अख्तियार करे.क्योंकि आज तीन दिन हो गए अभी तक कांग्रेस की ओर से इस मुद्दे पर समर्थन या विरोध जैसी कोई बात सामने नहीं आई है.