
भारत में महिलाओं को लेकर बहुत प्रचलित है कि घर में उनका स्थान देवी की तरह है. मगर ऐसा होता तो तेलुगु फिल्मों के सबसे बड़े सुपर स्टार और तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री के तमाम एक्टर्स के रिश्तेदार कहलाने वाले चिरंजीवी अपने बेटे रामचरण से एक अदद बेटे की गुहार क्यों लगाते? वे कहते हैं कि परंपरा तो बेटे ही आगे बढ़ाते हैं. अपने बेटे से एक अदद लड़के की चाहत जताकर साबित कर दिया कि बेटियां उनके लिए बेटों से कमतर हैं.
उनके बेटे रामचरण तेजा जो खुद बड़े स्टार बन चुके हैं ,उनको भगवान ने एक बेटी का पिता बनने का सौभाग्य दिया है. अगर यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता वाली बात पर जरा भी यकीन होता तो चिरंजीवी को अपनी विरासत संभालने के लिए एक बेटे की जरूरत नहीं महसूस होती. पर चिरंजीवी अपने बुढ़ापे में जाकर अगर इस तरह की बातें करने लगे हैं तो इसमें शायद उनकी कोई गलती नहीं है. गलती बस इतनी है कि उन्होंने अपनी इच्छा को सार्वजनिक क्यों किया. वो एक सुपरस्टार हैं. समाज उनके पदचिह्नों पर चलने की कोशिश करता है. तेलुगु समाज में तो फिल्म स्टार्स को देवताओं की तरह पूजा जाता है. इसलिए उनको समाज से इस तरह के विचार रखने के लिए माफी मांगनी चाहिए.
चिरंजीवी और उनकी पत्नी सुरेखा के एक बेटा और दो बेटियां हैं. फिर अगली पीढ़ी में बेटे राम चरण की एक बेटी है, जबकि उनकी बाकी दोनों बेटियों श्रीजा कोनिडेला और सुष्मिता कोनिडेला की दो-दो बेटियां ही हैं. यानी चिरंजीवी की एक पोती और दो नातिन हैं. तीसरी पीढ़ी में कोई बेटा नहीं है. लेकिन, क्या ये इतनी बड़ी कमी है कि चिरंजीवी बेचैन हो उठे हैं. आखिर इस मानसिकता के पीछे कारण क्या है...
केवल दहेज को कारण बताना पुरुषवादी मानसिकता का संरक्षण करना है
आम तौर पर बहुत से लोग लड़कियों के बदले लड़कों की चाह रखने के पीछे दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों को कारण मानते हैं. पर चिरंजीवी जैसे संपन्न व्यक्ति के लिए यह कारण तो बिल्कुल नहीं हो सकता. चिंरजीवी और उनके पुत्र राम चरण तेजा दोनों ही सबसे अधिक रकम लेने वाले तेलुगु सितारें हैं. इनके पास बड़ी गाड़ियों और बड़ी कोठियों की एक पूरी श्रृंखला है. ये लोग सैकड़ों गरीब लड़कियों की शादी भी कराते होंगे. पर अपने लिए ये लड़की नहीं चाहते हैं. दरअसल इसके पीछे केवल और केवल पुरुषवादी सामंती मानसिकता है. इस मानसिकता के विकसित होने के कई कारण हैं.
पूरी दुनिया का इतिहास और वर्तमान भरा पड़ा है बेटियों को कमतर मानने से
भारत ही नहीं पूरी दुनिया का इतिहास और वर्तमान भरा पड़ा बेटियों पर होने वाले अत्याचार और अन्याय से. दुनिया भर के सबसे विकसित समाजों में भी बेटियों को अवसर और मौके कम दिए जाते हैं. अमेरिका में अभी कुछ साल पहले तो राष्ट्रुपति का चुनाव लड़ने तक का अधिकार नहीं था महिलाओं को. टेनिस के जितने ग्रैंड स्लैम खेले जाते हैं वहां लड़कियों की पुरस्कार राशि पुरुषों की पुरस्कार राशि से कितनी कम है? भारत में पुरुष क्रिकेटर के सामने महिला क्रिकेटर कितनी महत्वहीन है यह किसी से छिपा नहीं है. सिनेमा जगत में नायिका प्रधान फिल्मों की हीरोइन भी हीरो के मुकाबले आधी पारिश्रमिक नहीं वसूल पाती है. आज की तारीख में भी महिलाओं के लिए उत्तराधिकार अधिनयम पुरुषों जितने सरल नहीं है. महिलाओं को आज भी अपने पैतृक या ससुरालियों से हक लेने में दुनिया भर की जद्दोजहद का सामना करना पड़ता है.
चिरंजीवी हो या बच्चन, कोई नहीं चाहता कि उनके परिवार की लड़की फिल्मों में आए
चिरंजीवी के परिवार में करीब दर्जन भर लोग फिल्म इंडस्ट्री में हैं, पर इनमें लड़कियां कितनी हैं? दरअसल सिनेमा जगत हमेशा से पुरुष प्रधान रहा. जिसमें महिलाओं से बदसलूकी और शोषण की कहानियां सामने आती रही हैं. जो लोग इस इंडस्ट्री के इस स्याह चेहरे से वाकिफ हैं, वे कभी नहीं चाहते कि उनके परिवार की बेटियां फिल्मों में काम करें. एक समय कहा जाता था कि कपूर परिवार की बहू-बेटियां फिल्मों में काम नहीं करती हैं. परिवार की महिलाओं पर यह अंकुश सिनेमा जगत से जुड़े परिवारों ही नहीं, पूरे समाज में व्याप्त रहा. यही कारण है कि महिलाओं को आजादी नहीं मिली, और उन्हें एक जिम्मेदारी माना गया. जबकि पुरुष को सभी शक्तियों का मालिक और परिवार की परंपरा आगे बढ़ाने वाला माना गया. जिसका इशारा चिरंजीवी अपने बात में करते भी हैं.
लेकिन, अब वक्त बदल रहा है. इसलिए चिरंजीवी के विचार समाज को चौंका रहे हैं. क्योंकि, अरसा हो गया कपूर खानदान की लड़कियों को फिल्मों में काम करते हुए. बेटियां खुद अपने पैरों में पड़ी जंजीरें तोड़ रही हैं. हां, कई जगह उनका संघर्ष चल रहा है. लेकिन, वे हार नहीं मान रही हैं. एक समय था कि महिलाएं लड़के की चाह रखने वाले अपने ससुराल और समाज के दबाव में तब तक बेटियों को जन्म देती चली जाती थीं, जब तक कि गोद में बेटा न आ जाए. ऐसे ही समाज में गर्भ के लिंग परीक्षण का धंधा भी खूब पनपा. लेकिन, अब सब बदल रहा है. कुछ तो लोगों की सोच बदली है और कुछ आर्थिक दबाव है कि एक बच्चे की ठीक से परवरिश हो जाए, वही बहुत है. फिर वो बेटा हो या बेटी.
चिरंजीवी जैसे पिछली पीढ़ी के कुछ लोग अभी हमारे बीच हैं जो बेटा-बेटी की बहस को जिंदा रखे हुए हैं. कई राजनीतिक परिवारों के नेतृत्व को लेकर फैसलों में भी इस दकियानूसी मानसिकता की झलक दिखती है. बेटों को आगे बढ़ाने के लिए तेजतर्रार लड़कियों को पीछे कर दिया जाता है. क्योंकि, विरासत तो लड़का ही संभालता है न. लेकिन, टैलेंट को कौन रोक पता है? बेटे-बेटी को लेकर खास तरह का पूर्वाग्रह रखने वाले लोग अब समाज के सामने खोखले उजागर हो रहे हैं. चिरंजीवी ने अदाकारी में भले तमाम रिकॉर्ड बनाए हों, लेकिन उनका यह ताजा कमेंट भी याद रखा जाएगा.