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सीट शेयरिंग पर ममता बनर्जी को ये रूप दिखाने के लिए कांग्रेस ने ही मजबूर किया है

ममता बनर्जी का कांग्रेस नेतृत्व को तेवर दिखाना, असल में पुराने जख्मों का हिसाब-किताब है. राहुल गांधी के क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लगातार नकारने के बावजूद AAP, RJD, SP, NCP और JDU जैसी पार्टियां तो बात भी कर रही हैं, तृणमूल कांग्रेस ने तो कांग्रेस पैनल से मिलने से भी इनकार कर दिया है.

ममता बनर्जी के साथ राहुल गांधी ने जो सलूक दिल्ली में किया, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ टीएमसी वही कर रही है. ममता बनर्जी के साथ राहुल गांधी ने जो सलूक दिल्ली में किया, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ टीएमसी वही कर रही है.
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 12 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 4:03 PM IST

ममता बनर्जी भी कांग्रेस नेतृत्व को वैसे ही आंख दिखा रही हैं, जैसे पहले अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल दिखा रहे थे. फर्क बस ये है कि अखिलेश यादव के तेवर थोड़े नरम पड़ गये हैं, और ममता बनर्जी धीरे धीरे अपनी जिद पर आ गई हैं - लेकिन दोनों दलों के बीच ये तल्खी महज कुछ दिनों में आई हो, ऐसा भी नहीं है. 

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देखा जाये तो कांग्रेस की तरफ से हाल फिलहाल जो कुछ मिला है, ममता बनर्जी वही सब थोड़े ब्याज के साथ लौटा रही हैं. जब ममता बनर्जी दिल्ली में विपक्ष को एकजुट करने में सक्रिय थीं, तो कांग्रेस से बर्दाश्त नहीं हुआ. सोनिया गांधी ने राहुल गांधी के साथ मिल कर ममता बनर्जी की ऐसी घेरेबंदी की कि तृणमूल कांग्रेस नेता को कोलकाता लौट जाना पड़ा, और खामोश होकर बैठ जाना पड़ा था. एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे वो पुरानी राह पकड़ चुकी हैं, जो बीजेपी के साथ एनडीए की ओर जाती है. 

वक्त सबका बदलता है. अब ममता बनर्जी की बारी है. हिसाब किताब तो होगा ही. ममता बनर्जी जैसा ही व्यवहार राहुल गांधी क्षेत्रीय दलों के साथ करते आये हैं. क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लगातार नकारने की कोशिश करते हैं. आखिर किस मुंह से राहुल गांधी तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की पार्टी पर परिवारवाद का आरोप लगाते हैं? राजनीति में जिन खूबियों की बदौलत राहुल गांधी आये हैं, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव की भी वही खासियत है - लेकिन ममता बनर्जी के साथ ऐसा बिलकुल नहीं है. 

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तभी तो बीजेपी पूरी ताकत झोंक कर भी ममता बनर्जी का बाल भी बांका नहीं कर पाती, और एक झटके में उद्धव ठाकरे को शिखर से शून्य पर पहुंचा देती है - राजनीति का जो अर्जित अनुभव ममता बनर्जी को हासिल है, वो न तो उद्धव ठाकरे कभी पा सके, न राहुल गांधी अब तक स्वाद ले पाये हैं.

क्षेत्रीय दलों के साथ रूखेपन से पेश आने के बावजूद आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, RJD, NCP और JDU जैसे दल तो सीटों के बंटवारे को लेकर बातचीत कर भी रहे हैं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने तो कांग्रेस पैनल से मिलने से ही इनकार कर दिया है.

सिर्फ ममता बनर्जी नहीं, सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस की सभी से ठनी है

जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ कर केंद्र की बीजेपी सरकार को 2024 के आम चुनाव में चैलेंज करने का ऐलान किया, तब ममता बनर्जी थक हार कर बंगाल में खुद को समेट कर बैठ चुकी थीं. कांग्रेस के रवैये से निराश ममता बनर्जी को थोड़ी उम्मीद जगी तो बोलीं, नीतीश कुमार और हेमंत सोरेन के साथ मिल कर बीजेपी की सरकार को 2024 में हराएंगे. ममता बनर्जी को तभी कांग्रेस से परहेज करते देखा गया था.

INDIA ब्लॉक  में कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर बिहार से महाराष्ट्र तक एक जैसी बातें सुनने को मिल रही हैं. आम आदमी पार्टी के साथ भी अभी सिर्फ दिल्ली को लेकर बात हुई है, पंजाब कांग्रेस कमेटी ने तो गठबंधन से ही इनकार कर दिया है. टीएमसी भी तो बंगाल में वैसा ही कर रही है. 

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तृणमूल कांग्रेस की तरफ से पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटें ऑफर की गई हैं. ये दोनों सीटें फिलहाल कांग्रेस के पास हैं. एक, बहरामपुर जहां से अधीर रंजन चौधरी सांसद हैं, और दूसरी, माल्दा दक्षिण जिसका प्रतिनिधित्व अबू हासेम खान चौधरी लोक सभा में करते हैं. दो सीटों के अलावा कांग्रेस माल्दा उत्तर, रायगंज, जंगीपुर और मुर्शिदाबाद जैसी कई और सीटें मांग रही है, लेकिन टीएमसी नेताओं की तरफ से साफ कर दिया गया है कि अगर कांग्रेस नेतृत्व खुद बात करे तो ममता बनर्जी एक सीट और दे सकती हैं. 

बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि जो सीटें कांग्रेस अपने बूते जीत रही है, उसमें ममता बनर्जी की मदद की जरूरत क्या है. अधीर रंजन चौधरी ने साफ कर दिया है कि पश्चिम बंगाल की उन दो सीटों के लिए कांग्रेस को ममता बनर्जी की किसी भी तरह की मदद की जरूरत नहीं है. कह रहे हैं, मैं ममता बनर्जी और बीजेपी से लड़ सकता हूं... मैंने ये साबित भी किया है... मेरे साथी और मैं अकेले दोनों सीटों पर लड़ सकते हैं.

कांग्रेस को दो से ज्यादा सीटें न देने के पीछे टीएमसी की दलील है कि 2019 में कांग्रेस ने 42 में से सिर्फ दो सीटों पर 30 फीसदी से ज्यादा वोट पाया है, बाकी 39 सीटों पर कांग्रेस को पांच फीसदी से भी कम वोट मिले थे. टीएमसी का कहना है कि 2019 के लोक सभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन को देखते हुए सीटें ऑफर की गई हैं. 

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राहुल गांधी को काफी दिनों से क्षेत्रीय दलों को उनकी विचारधार के लिए धिक्कारते देखा गया है. सीट शेयरिंग का मुद्दा ऐसा है कि जो भी राजनीतिक दल जहां मजबूत हैं, कांग्रेस को उसकी हैसियत दिखाने लगे हैं. कांग्रेस ने जो फसल बोयी है, वही काट रही है - ममता बनर्जी तो कांग्रेस को सिर्फ आईना दिखाने की कोशिश कर रही हैं.

ये पुराने जख्मों का हिसाब-किताब नहीं तो क्या है?

हो सकता है, कांग्रेस नेतृत्व के मन में ममता बनर्जी को लेकर पुरानी खीझ बरकरार हो. क्योंकि ममता बनर्जी ने कांग्रेस की मदद से ही पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार को हटा कर सत्ता पर कब्जा जमाया, लेकिन अपना काम बन जाने के बाद पल्ला झाड़ लिया. बहाना खोज कर केंद्र की यूपीए सरकार से भी नाता तोड़ लिया - और बाद में पश्चिम बंगाल के कांग्रेस नेताओं को भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया. एक तरह से पश्चिम बंगाल से कांग्रेस को खत्म ही कर दिया. 

अधीर रंजन चौधरी, दरअसल, कांग्रेस की उसी खीझ के प्रतिनिधि के रूप में दिखाई देते हैं. और जिस तेवर के साथ, जिस लहजे में अधीर रंजन चौधरी, ममता बनर्जी के खिलाफ जो कुछ बोलते हैं, वो एक तरीके से गांधी परिवार की ही भड़ास होती है. 

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जो बातें सोनिया गांधी और राहुल गांधी चाह कर भी ममता बनर्जी से नहीं बोल पाते या कह सकते, अधीर रंजन चौधरी सीधे सीधे सामने रख देते हैं. सीटों के बंटवारे में ममता बनर्जी अभी जो तेवर दिखा रही हैं, अधीर रंजन चौधरी भी उसी लहजे में जवाब दे रहे हैं. 

ये तो हुई 2011 के आस-पास की बातें. अब जरा 2021 के बाद की घटनाओं पर ध्यान दीजिये. 

ममता बनर्जी के लिए विधानसभा चुनाव जीतना करीब करीब नामुमकिन हो चला था. हालात ऐसे बने कि नंदीग्राम में अपने ही आदमी रहे शुभेंदु अधिकारी के खिलाफ चुनाव लड़ने को मजबूर होना पड़ा. आशंका तो पहले से रही ही होगी, ममता बनर्जी को हार का मुंह भी देखना पड़ा - लेकिन हार कर भी ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस की जीत पक्की कर दी थी. कुछ करिश्मा तो प्रशांत किशोर का भी रहा होगा. 

नंदीग्राम में ही ममता बनर्जी के पैर में चोट लगी थी. प्लास्टर भी चढ़ा था, और व्हीलचेयर पर बैठ कर वो चुनाव मैदान में डटी रहीं. चुनाव प्रचार के दौरान ही ममता बनर्जी ने ऐलान किया था कि एक पैर से बंगाल जीतेंगे - और दो पैरों से दिल्ली. बंगाल जीतने का चैलेंज पूरा करने के बाद ममता बनर्जी जब दिल्ली पहुंची तो कुछ भी उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ. 

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एनसीपी नेता शरद पवार मिलने तक को तैयार न हुए. विपक्ष की कोई मीटिंग भी नहीं बुलाई गई. ऊपर से राहुल गांधी विपक्षी दलों के नेताओं के साथ ताबड़तोड़ मीटिंग करने लगे. ममता बनर्जी निजी तौर पर विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मिलती रहीं, और आखिर में बड़े ही भारी मन से जाते जाते बताया कि शरद पवार से मुलाकात नहीं हुई, फिर भी वो दिल्ली आती रहेंगी. 

दिल्ली के बाद ममता बनर्जी ने मुंबई का कार्यक्रम बनाया. मंबई के कार्यक्रम में शामिल होना तो बहाना था, असली मकसद तो शरद पवार से मुलाकात थी. मुलाकात हुई. साथ में अभिषेक बनर्जी भी थे. ममता बनर्जी ने शरद पवार को तरह तरह से समझाने की कोशिश की. वो कांग्रेस को किनारे रख कर विपक्ष को एकजुट करना चाहती थीं. 

मुलाकात के बाद मीडिया के सवालों के जवाब में ममता बनर्जी ने यहां तक बोल दिया कि 'कौन यूपीए... कहां है यूपीए?' 

तब तो नहीं, लेकिन अब तो यूपीए नहीं ही है. और विपक्ष का जो गठबंधन INDIA खड़ा हो रहा है, वो भी यूपीए से काफी अलग है. सबसे बड़ी बात तो ये है कि INDIA ब्लॉक पर यूपीए की तरह कांग्रेस का कंट्रोल नहीं रह गया है. अगर नीतीश कुमार संयोजक बनते हैं, तो कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को INDIA ब्लॉक का चेयरमैन बनाया जा सकता है. 

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देखा जाये तो INDIA ब्लॉक में मल्लिकार्जुन खरगे की पोजीशन वही बनाने की कोशिश है, जो यूपीए में सोनिया गांधी की हुआ करती थी, लेकिन बाकी कुछ भी पहले जैसा नहीं रहने वाला है. कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग को लेकर जो रवैया क्षेत्रीय दल दिखा रहे हैं, रंग ढंग तो वैसा ही लग रहा है. 

अधीर रंजन चौधरी बिलकुल ठीक कह रहे हैं कि जब दो ही सीटों पर लड़ना है, तो ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में गठबंधन की जरूरत ही क्या है? लेकिन ममता बनर्जी को ऐसा करने के लिए मजबूर किसने किया है?

विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक्टिव होने से पहले ममता बनर्जी तो कांग्रेस के साथ ही खड़ी देखी जाती रहीं. तब भी वो सबको साथ लेकर चलने की बात करती थीं. अरविंद केजरीवाल को साथ लेने के लिए ममता बनर्जी ने न जाने कितनी बार पैरवी की, लेकिन गांधी परिवार पर तो फर्क ही नहीं पड़ता था. धीरे धीरे स्थिति ये हो गई कि ममता बनर्जी ने दिल्ली आने पर भी सोनिया गांधी से मिलना छोड़ दिया - और कांग्रेस से भी दूरी बना ली. क्योंकि वो 'एकला चलो' के रास्ते आगे बढ़ चुकी थीं. 

ये तो नीतीश कुमार की पहल रही जो ममता बनर्जी विपक्षी खेमें में लौटी हैं, और अरविंद केजरीवाल भी, लेकिन कांग्रेस के साथ जो रूखा व्यवहार ममता बनर्जी कर रही हैं, उसके लिए जिम्मेदार तो कांग्रेस नेतृत्व ही है - और वैसे भी सिर्फ ममता बनर्जी ही क्यों, सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ INDIA ब्लॉक के सभी नेताओं का व्यवहार तो करीब करीब एक जैसा ही है. जैसी करनी, वैसी भरनी. नतीजे तो भुगतने ही होंगे.

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