
लोकसभा में बुधवार को महिला आरक्षण बिल नारी शक्ति वंदन विधेयक (संविधान का 128वां संशोधन) पर बहस की शुरुआत कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के भाषण से हुई. सोनिया के बाद उनका जवाब देने आए बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे. जो आजकल बीजेपी की बातों को संसद में वजनदार तरीके से ऱखते हैं. शायद यही कारण है कि अविश्वास प्रस्ताव वाले दिन भी बीजेपी को सबसे पहले मोर्चे पर सलामी बल्लेबाज के रूप में इन्हें ही उतारा गया था.
निशिकांत ने अपनी स्पीच में यह साबित करने की कोशिश की कि महिला आरक्षण बिल को पारित करने की कांग्रेस में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था जिसके चलते यह अब तक पारित नहीं हो सका . इसलिए इस बिल पर कांग्रेस श्रेय न ले . सही मायने में यह बिल बीजेपी का है और पार्टी इसे हर हाल में लागू करने जा रही है.पर उन्होंने ये भी माना कि महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने में अभी करीब 5 साल और लग जाएंगे. कुछ कारणों का उल्लेख उन्होंने अपने भाषण में भी किया. आइये देखते हैं कि महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी का जिक्र क्यों नहीं है और इसे लागू करने में अभी इतना समय क्यों लगने वाला है.
ओबीसी को कोटा देने में संवैधानिक पेंच
बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने यह भी बताया कि क्यों महिला आरक्षण बिल में ओबीसी को कोटा नहीं दिया जा सका. निशिकांत दुबे ने कांग्रेस पर हमला करते हुए कहा कि पंचायत में महिलाओं को आरक्षण दिया पर आर्टिकल 243 (D) भी उन्हीं की देन हैं, जिसमें कहीं भी ओबीसी आरक्षण की बात नहीं की गई है. दरअसल संविधान में केवल अनुसूचित जातियों के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था की गई है. राजीव गांधी सरकार ने ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए सीट रिजर्व की पर कहीं भी ओबीसी महिलाओं के लिए अलग सीट रिजर्व करने की बात नहीं ऱखी. पंचायती राज कानून के आधार पर राज्यों ने अपने-अपने स्टेट में ओबीसी के लिए भी पंचायतों के लिए सीट रिजर्व की है.
दरअसल इन संवैधानिक और कानूनी प्रक्रियाओं का पालन न करते हुए अगर महिला आरक्षण बिल पास भी करा लिया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट के पास उसे खारिज करने का भी अधिकार है. यही कारण है कि निशिकांत दुबे ने अपने भाषण में कांग्रेस पर तंज कसा कि "हम कैसे फौरन लागू कर दें. क्या आप ये चाहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट खारिज कर दे और महिलाओं को आरक्षण न मिल पाए".
संविधान का ऑर्टिकल 82
निशिकांत दुबे ने संविधान के अनुच्छेद 82 का हवाला देते हुए कहा कि यह अनुच्छेद साफ कहता है कि 2026 के बाद हुई जनगणना के आधार पर ही लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन होगा. दरअसल अभी जो लोकसभा क्षेत्रों का परिसीमन है वो 1971 की जनगणना के समय का है. ये परिसीमन 2026 तक के लिए फिक्स किया गया था. हर दस लाख की आबादी पर एक संसदीय क्षेत्र का गठन किया गया था. कोरोना के कारण 2021 में होने वाली जनगणना नहीं हो सकी. अब इसे 2031 में होना है. पर सरकार चाहे तो कानूनी विचार विमर्श करके इसे पहले भी करा सकती है. अगर पहले जनगणना के लिए संविधान संशोधन करना आवश्यक हो जाए तो सरकार यह भी कर सकती है.पेच यह है कि परिसीमन का काम भी इतना आसान नहीं है.
परिसीमन इस बार बहुत मुश्किल टास्क
दरअसल परिसीमन का काम इस बार बहुत मुश्किल होने वाला है. क्योंकि देश में जनसंख्या वृद्धि की दर में बहुत विविधता है. कहीं जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है तो कहीं जनसंख्या में स्थिरता आ गई है. कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिनकी जनसंख्या वृद्धि दर माइनस में भी जाने वाली है.अभी तक परिसीमन का आधार आबादी ही रही है. उत्तर भारत के राज्यों में आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है और दक्षिण के राज्यों में बहुत तेजी से कम हुई है.सवाल यह है कि क्या जिन्होंने आबादी को नियंत्रित कर देशहित में अच्छा कार्य किया उन्हें इसके एवज में प्रतिनिधित्व घटाने का इनाम दिया जाए? दक्षिण के राज्यों का विरोध इस आधार पर जायज है.इसका हल निकालने में भी कई साल लग सकते हैं. भारतीय जनता पार्टी को दक्षिण के राज्यों में विस्तार पाना है वह कभी नहीं चाहेगी इन राज्यों में परिसीमन के नाम पर असंतोष पैदा हो.
आधे से अधिक राज्यों से अनुमोदन भी मुश्किल होगा
प्रतिनिधित्व से संबंधित सभी संविधान संशोधनों को लोक सभा और राज्य सभा के बाद देश के आधे राज्यों का अनुमोदन भी जरूरी होता है. बीजेपी को छोड़कर दूसरी पार्टियों की सरकार वाले राज्यों से कितना समर्थन मिलता है यह भविष्य में ही पता चल सकेगा. दक्षिण के राज्यों में अधिकतर में बीजेपी की सरकार नहीं है. परिसीमन का पेच सबसे अधिक दक्षिण में फंसने वाला है. अगर दक्षिण के राज्यों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है तो उनका विरोध करना स्वभाविक ही रहेगा.