
केंद्र सरकार एक बार फिर मुश्किल में है. किसान आंदोलन का साया देश की राजधानी दिल्ली पर एक बार फिर मंडरा रहा है.केंद्र की तमाम कोशिशों के बावजूद भी किसान संगठन सुनने को तैयार नहीं हैं. पंजाब से लगातार किसानों का जत्था दिल्ली की ओर कूच कर रहा है. पंजाब और हरियाणा से दिल्ली की ओर आने वाले रास्तों को ब्लॉक किया जा रहा है.पर लोकसभा चुनावों के ऐन पहले शुरू हो रहे इस आंदोलन का प्रभाव बीजेपी कितना पड़ सकता है? आंदोलन की टाइमिंग यह बताती है कि कहीं न कहीं आंदोलन का उद्देश्य बीजेपी को लोकसभा चुनावों में कमजोर करना है. पर वास्तव में जमीन पर आंकड़े क्या बता रहे हैं? बीजेपी नीति केंद्र सरकार किसान आंदोलन को लेकर एक्शन में तो है पर घबराहट में नहीं है. केंद्र सरकार को क्यों ऐसा लग रहा है कि इस बार किसान आंदोलन ज्यादा नहीं टिकने वाला है.आइये देखते हैं?
1- पंजाब में बीजेपी को कोई चुनावी रिस्क नहीं है
किसान आंदोलन इस बार भी पंजाब सेंट्रिक होता जा रहा है. जिस तरह पंजाब से ट्रैक्टरों का हुजूम आ रहा है उससे यही लगता है कि इस बार भी किसान आंदोलन पंजाबी किसानों का आंदोलन बनकर रह जाएगा.पंजाब में बीजेपी का कोई स्टैक नहीं है. पंजाब की राजनीति आज भी कांग्रेस , आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल के ही इर्द गिर्द घूम रही है.बीजेपी अच्छी तरह इस बात को समझ रही है. अभी हाल ही आए इंडिया टुडे ग्रुप के एक सर्वे (मूड ऑफ द नेशन) के अनुसार आगामी लोकसभा चुनावों में पंजाब की 13 सीटों पर 5-5 सीट कांग्रेस और आप को मिल रहा है. 2 सीट शिरोमणि अकाली दल को भी मिल सकती है. बीजेपी को केवल एक सीट ही मिलती दिख रही है. पिछली बार 2019 के लोकसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल के साथ मिलने के बावजूद बीजेपी यहां 3 सीटों पर चुनाव लड़ी पर केवल 2 सीट ही चुनाव में जीत सकी थी. इसलिए किसान आंदोलन जोर पकड़े यहां नहीं पंजाब में बीजेपी को कोई असर नहीं पड़ता नहीं दिख रहा है.
2- वेस्ट यूपी में पिछले आंदोलन का कोई असर नहीं पड़ा, इस बार तो आरएलडी भी साथ
2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव किसान आंदोलन के साये में हुआ था. फिर भी भारतीय जनता पार्टी के चुनावों में कोई खास प्रभाव नजर नहीं आया था.भाजपा ने 2022 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 15 सीटें हारने के बावजूद क्षेत्र लगभग 70 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों पर जीत हासिल कर ली थी. जबकि समाजवादी पार्टी और रालोद ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. इसके बावजूद जाटों और किसानों में अच्छा प्रभाव रखने वाली रालोद केवल 9 सीटों पर ही अपना सिक्का चला सकी. बीजेपी ने आगरा, मथुरा, गाजियाबाद और गौतम बौद्ध नगर जैसे कुछ जिलों में सभी सीटों पर जीत हासिल की. 2022 में विपक्षी गठबंधन जिसे किसान संगठनों का समर्थन हासिल था, ने शामली और मुरादाबाद में सभी सीट जीतने में कामयाब हुए और मुजफ्फरनगर और मेरठ में अच्छा प्रदर्शन किया. पर अब स्थितियां बदल चुकी हैं. लोकसभा चुनावों में रालोद और बीजेपी एक साथ चुनाव लड़ रहे हैं तो उम्मीद की जा सकती है कि वेस्ट यूपी में किसान फैक्टर का असर नहीं पड़ने वाला है.
3-दिल्ली कूच से चढूनी सहित कई संगठनों ने बनाई दूरी
पिछली बार किसान आंदोलन का सबसे चर्चित चेहरा गुरुनाम सिंह चढ़ूनी थे. पर इस बार चढ़ूनी अब तक इस आंदोलन के साथ नहीं है.खबर है कि हरियाणा और पंजाब के किसान संगठनों के दिल्ली कूच से बीकेयू के गुरनाम सिंह चढूनी गुट ने खुद को अलग कर लिया है. चढूनी ने सोशल मीडिया पर अपने असंतोष का बयान किया है. उन्होंने कहा है कि दिल्ली कूच का ऐलान सभी संगठनों की राय से नहीं किया गया है. हालांकि चढ़ूनी ने यह भी कहा है कि अगर, किसान संगठन उन्हें बुलाएंगे तो वह जरूर जाएंगे. लेकिन, अभी तक उनके पास कोई संदेश नहीं आया है. चढ़ूनी की बात से लगता है कि कहीं न कहीं किसान आंदोलन पर इस बार दूसरे लोग हॉवी हैं. एक और संगठन संयुक्त किसान मोर्चा की ओर से भी बयान आया है कि वह इस बार किसान आंदोलन का हिस्सा नहीं होंगे क्योकि उन्हें न बुलाया गया और न उनसे राय ही ली गई.
भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) लाखोवाल के नेताओं ने भी कहा कि वे मंगलवार को प्रदर्शन में भाग नहीं लेंगे. हालाँकि, अगर मार्च करते समय किसानों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है तो वे विरोध जरूर जताएंगे.
4-किसानों की कई मांगों पर सरकार काम कर रही है
किसान डॉ स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानून चाहते हैं. इसके अलावा दूसरी प्रमुख मांग किसान मजदूरों और किसानों के लिए संपूर्ण कर्ज माफी है.भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को राष्ट्रीय स्तर पर दोबारा लागू करने, कलेक्टर दर से चार गुना मुआवजे की गारंटी और किसानों से हस्ताक्षरित सहमति लेने की मांग भी की जा रही है. बिजली संशोधन बिल 2020 को खत्म करने की मांग भी किसान कर रहे हैं.
इन 4 प्रमुख मांगों को छोड़ दें तो और जितनी भी डिमांड किसानों की ओर से हो रही है उनमें से कुछ को छोड़ दिया जाए तो किसी न किसी रूप में सभी मांगों पर सरकार काम कर रही है. जैसे पीड़ित किसानों को न्याय दिलाएं और लखीमपुर खीरी अत्याचार के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करें, सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर प्रतिबंध लगाएं और विश्व व्यापार संगठन से हटें, खेतिहर मजदूरों और किसानों को पेंशन का भुगतान करें, दिल्ली आंदोलन में जान गंवाने वाले किसानों के परिवारों को मुआवजा दें और परिवार के एक सदस्य को रोजगार का अवसर प्रदान करें आदि.
कुछ ऐसी भी डिमांड हैं जिनके बारे में सरकार फैसले ले सकती है. जैसे मनरेगा के तहत, श्रमिकों को खेती से जोड़कर ₹700 की दैनिक आय और सालाना 200 दिन का रोजगार प्रदान करने, नकली बीज, उर्वरक और कीटनाशक बनाने वाले व्यवसायों के खिलाफ कठोर दंड लागू करके बीज की गुणवत्ता बढ़ाने, हल्दी और मिर्च जैसे मसालों का अध्ययन करने के लिए एक राष्ट्रीय पैनल की स्थापना करने और भूमि, जल और जंगलों पर स्वदेशी लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और कंपनियों को आदिवासी क्षेत्रों को लूट से रोकने आदि के लिए कानून बनाने की मांग हो रही है.