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INDIA गुट के लिए दिल्‍ली-यूपी में क्‍यों अनुकूल हैं गठबंधन के हालात, जबकि पंजाब-बंगाल में नहीं

चंडीगढ़ मेयर चुनाव में कुलदीप कुमार की जीत को INDIA ब्लॉक के जिंदा होने का पहला सबूत माना गया, और दूसरा सबूत यूपी में सपा-कांग्रेस गठबंधन के रूप में मिला है. संभावना तो दिल्ली में भी बातचीत अभी खत्म नहीं हुई है, लेकिन क्या कारण है कि पंजाब और पश्चिम बंगाल में गठबंधन का कोई आधार नहीं बन पा रहा है?

4 राज्यों में तीन दलों के बीच चुनावी गठबंधन की 2 परिस्थितियां क्यों बन रही हैं? 4 राज्यों में तीन दलों के बीच चुनावी गठबंधन की 2 परिस्थितियां क्यों बन रही हैं?
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 21 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 8:27 PM IST

चंडीगढ़ मेयर चुनाव में बीजेपी की हार के बाद से ही INDIA ब्लॉक की सांसे सुनाई देने लगी थीं, लेकिन पंजाब में तो हाल ये है कि गठबंधन की चर्चा तक नहीं है - और उत्तर प्रदेश में तो ऐसा लग रहा है जैसे विपक्षी गठबंधन चहलकदमी करने लगा हो. 

और हाल ये है कि उत्तर प्रदेश के साथ साथ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच डील मध्य प्रदेश में भी फाइनल हो गई है. यूपी में समाजवादी पार्टी ने जहां कांग्रेस को 17 सीटें दी है, मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए कांग्रेस एक सीट छोड़ने को तैयार हो गई है - और अब ये मामला ऑफिशियल हो गया है. 

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बातचीत तो चल ही रही थी, और इसी वजह से अखिलेश यादव भारत जोड़ो न्याय यात्रा से भी दूरी बना कर चल रहे थे. सुनने में आया था कि कांग्रेस अपने प्रदेश अध्यक्ष अजय राय के लिए बलिया लोक सभा सीट चाह रही थी, लेकिन समाजवादी पार्टी का जनाधार मजबूत मानते हुए अखिलेश यादव तैयार नहीं हुए. आखिरी बातचीत में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने मुरादाबाद सीट पर भी अपनी जिद छोड़ दी, और बिजनौर सीट पर भी कांग्रेस को दावा छोड़ना पड़ा.

जैसे कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने समाजवादी पार्टी के साथ बातचीत सही दिशा में होने का संकेत दिया था, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कांग्रेस के साथ गठबंधन का मामला प्रगति पर बताया था. कांग्रेस नेता की बात तो अंजाम तक पहुंच चुकी है, लेकिन AAP नेता की बात अब भी अधर में ही लटकी दिखाई पड़ रही है. 

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अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के गठबंधन की बात भी सिर्फ दिल्ली के लिए कही है, पंजाब का जिक्र आने पर तो जैसे रास्ता ही बदल कर चल देते हैं - और बिलकुल वैसा ही रवैया ममता बनर्जी  ने कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में अपना रखा है. 

आखिर क्या कारण है कि न तो पंजाब में कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए अरविंद केजरीवाल तैयार हैं, और न ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी?

यूपी में गठबंधन हो गया, दिल्ली में भी संभावना

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच गठबंधन न होने पर INDIA ब्लॉक को खत्म माना जाने लगा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यूपी में चुनावी गठबंधन को अखिलेश यादव और राहुल गांधी की मंजूरी आखिरकार मिल ही गई. कहते हैं 2017 की ही तरह एक बार प्रियंका गांधी वाड्रा ने ही डील पक्की कराई है. 

अब ये आधिकारिक घोषणा हो चुकी है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश की 17 लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी. रायबरेली और अमेठी के अलावा ये सीटें हैं - कानपुर नगर, फतेहपुर सीकरी, बांसगांव, सहारनपुर, प्रयागराज, महाराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, झांसी, बुलंदशहर, गाजियाबाद, मथुरा, सीतापुर, बाराबंकी और देवरिया.

2019 में कांग्रेस को सोनिया गांधी की रायबरेली सीट पर ही जीत मिली, जबकि अमेठी में राहुल गांधी हार गये थे. बलिया तो नहीं, लेकिन कांग्रेस के हिस्से में वाराणसी की सीट जरूर आई है, जहां पिछली बार समाजवादी पार्टी दूसरे नंबर पर रही थी. 

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मौजूदा उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय भी वाराणसी से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़े थे, लेकिन तीसरे स्थान पर रहे. इस बार कांग्रेस अजय राय के लिए बलिया सीट चाहती थी, लेकिन अखिलेश यादव और उनके लोग तैयार नहीं हुए.  

पसंद और नापसंद की सीटों की अपनी अपनी वजह हो सकती है, लेकिन एक बात जरूर है कि ये डील दो हारे हुए राजनीतिक दलों के बीच हुई है. अखिलेश यादव आजमगढ़ से चुनाव जरूर जीते थे, लेकिन कन्नौज से डिंपल यादव तो चुनाव हार ही गई थीं. 

लोक सभा सीटों की संख्या को छोड़ कर भी देखा जाये तो अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों के लिए 2019 के नतीजे 2014 से खराब रहे. 2014 में तो कम से कम दोनों परिवार अपनी अपनी सीटें जीत ही गया था. 

कुल मिला कर लगता तो यही है कि अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों ही को एक दूसरे के साथ की जरूरत थी. यूपी में कांग्रेस के जनाधार के नाम पर जो कुछ भी बचा है, उसमें विशेष रूप से उल्लेखनीय तो मुस्लिम वोट ही है - और ये दोनों दलों के लिए कॉमन वोट बैंक है. समाजवादी पार्टी के पास अब पूरा ओबीसी तो नहीं, लेकिन अलग से यादव वोटर तो हैं ही. 

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यूपी में राम मंदिर के बाद जो माहौल है, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की अलग अलग कोई खास संभावना तो नहीं थी, लेकिन अब ये जरूर रहेगा कि साथ मिल जाने का कुछ फायदा हो सकता है - और कुछ ज्यादा सीटें मिल भी सकती हैं.  

यूपी की ही तरह दिल्ली में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच सीटों का बंटवारा हो जाने की संभावना जताई जा रही है. दोनों दलों की बातचीत के बीच एक बार फिर पुराने फॉर्मूले की जानकारी सामने आ रही है. 4-3 का फॉर्मूला, जो सबसे पहले सामने आया था. 4 सीटों पर आम आदमी पार्टी, और 3 पर कांग्रेस. जिसे आपने बाद में 6-1 पर पहुंचा दिया था. आम आदमी पार्टी कांग्रेस के लिए सिर्फ एक सीट छोड़ने को तैयार थी. 

2019 के हिसाब से देखा जाये तो आम आदमी पार्टी दिल्ली की सातों सीटों पर तीसरे नंबर पर थी, लेकिन एमसीडी चुनाव की जीत ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का हौसला बढ़ा दिया है. फिर तो उनको लगता ही होगा कि जब विधानसभा में रिकॉर्ड जीत हो रही है, एमसीडी में भी अपना मेयर हो गया है, तो लोक सभा भी जीत ही लेंगे - लेकिन कांग्रेस के लिए एक सीट ऑफर करना ये भी बता रहा है कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को पंजाब जैसा भरोसा दिल्ली में नहीं है.

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कांग्रेस बस एक ही जगह गच्चा खा जाती है, क्योंकि उसके पास पांच साल पुराना वोट शेयर का कागज दिखाने के अलावा कोई और सबूत नहीं है. न दिल्ली विधानसभा, और न ही दिल्ली नगर निगम.

अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के साथ दिल्ली में तो गठबंधन के लिए तैयार हैं, लेकिन पंजाब में तो कुछ सुनने तक को तैयार नहीं हैं. आखिर इसकी वजह क्या हो सकती है, बड़ा सवाल यही है.

पंजाब और बंगाल में INDIA ब्लॉक का प्रभाव क्यों नहीं

जो समानता यूपी के राजनीतिक हालात में है, पंजाब और पश्चिम बंगाल में भी कुछ वैसी ही कॉमन बातें हैं. दिल्ली में तो अरविंद केजरीवाल बिलकुल वैसे ही सोच रहे हैं जैसे यूपी में अखिलेश यादव, लेकिन पंजाब को लेकर अरविंद केजरीवाल की सोच बिलकुल बदल जाती है - और वो ममता बनर्जी की तरह सोचने लगते हैं, जो टीएमसी नेता का ख्याल पश्चिम बंगाल को लेकर है. 

पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी सहित कांग्रेस को 2019 में दो लोक सभा सीटों पर जीत मिली थी, सिर्फ मुर्शिदाबाद की सीट पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही - और पश्चिम बंगाल की 32 लोक सभा सीटों पर कांग्रेस चौथे स्थान पर पाई गई थी. दो साल बाद 2021 के विधानसभा चुनावों में तो कांग्रेस का और भी बुरा हाल रहा. 

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ममता बनर्जी ने तो साफ साफ मना कर दिया है कि पश्चिम बंगाल में लोक सभा चुनाव तृणमूल कांग्रेस अकेले दम पर लड़ेगी. मतलब, अब वो कांग्रेस के लिए दो सीटें भी छोड़ने को तैयार नहीं हैं. यूपी में गठबंधन हो जाने और दिल्ली में संभावना को देखते हुए एक बार तो लगता है कि ममता बनर्जी का मन भी पिघल सकता है, लेकिन पंजाब के मामले में अरविंद केजरीवाल का रुख देखकर तो नहीं लगता कि ममता बनर्जी कम से कम इस मुद्दे पर कोई यू-टर्न लेने वाली हैं. 

ध्यान देने पर मालूम होता है कि जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपनी जीत में हिस्सेदारी नहीं चाहतीं, वैसे ही ही पंजाब में अरविंद केजरीवाल भी समझौते के लिए तैयार नहीं हैं. दोनों को लगता है कि सीटें अपने पास रही तो जीत की संभावना बरकार रहेगी, लेकिन कांग्रेस को दे दिया तो हाथ भी धोना पड़ सकता है. 

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