
हफ्ते, महीने और साल निकल गए, लेकिन ऐसा कोई पुरुष नहीं दिखा. बेसब्र उम्मीदों का ज्वार भरभरा के उतर गया. सपनों का शहर तो ये भी नहीं.
घरेलू पिटारे से एक किस्सा और!
दक्षिण के उस शहर में नौकरी के शुरुआती दिन थे. कुछ दिन मैं एक परिचित पति-पत्नी के साथ रही. दोनों में बराबरी का रिश्ता. पत्नी न्यूज पढ़ने में मगन होती तो पति झट से किचन संभाल लेता. मैं हैरत से भरी देखती. एक रात उनमें जबर्दस्त झगड़ा हुआ. रोती हुई लड़की को छोड़कर लड़का कहीं चला गया. मैंने फोन किया तो उधर से एकदम सहज आवाज आई, जैसे या तो कुछ हुआ न हो, या मुझे पता न हो. इधर झांय-फांय रोती पत्नी दम तोड़ने को तैयार थी.
शौहर रातभर नदारद रहा. अगली सुबह पंचायत बुलाई गई. जिगरी दोस्तों से घिरा पति खुशी से चीखता हुआ किसी बाइक की चर्चा में मगन था. रात के घमासान का कोई जिक्र नहीं. झगड़ा खत्म. बिना किसी माफी, बिना नतीजे के. जाहिर है, अंदर-अंदर चीजें बिगड़ती गईं और तीनेक साल बाद वे अलग हो गए. वजह! बकौल पत्नी- पति उससे कुछ शेयर नहीं करता था.
सवाल-जवाब के ऑनलाइन मंच कोरा पर किसी ने पूछा- पुरुष अपने जज्बात क्यों छिपाते हैं?
पहला जवाब था- 'ग्रेट क्वेश्चन. लेकिन मैं इसका जवाब नहीं दूंगा.'
हंसी-मजाक के टोन में लिखी हुई ये बात बहुत कुछ कह जाती है.
मर्द हो तो, न बताना- न जताना. और रोना तो हर्गिज नहीं. इस सोच की शुरुआत 15वीं से 16वीं सदी के बीच हुई, जब ब्रिटेन समेत पूरा यूरोप मिडिल एज से आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा था. यही वो दौर था, जब मसालों और रेशम की खरीद-फरोख्त से ऊपर उठ लोग किताबों-तस्वीरों की बात करने लगे. लेकिन ठीक इसी समय एक और बदलाव हुआ.
मर्दों से उम्मीद होने लगी कि वे फौलाद बन जाएं.
उन्हें सिखाया गया कि रोना-धोना जनानियों का काम है. बताया गया कि वे जितना कम कहेंगे, उतना सुने जाएंगे. कुल मिलाकर सैनिक को जनरैल बनाने की पूरी तैयारी.
इसके बाद से चीजें बिगड़ती चली गईं. नब्बे के दशक में फीफा वर्ल्ड कप के दौरान जब एक अंग्रेज फुटबॉलर रो पड़ा तो दुनिया हैरत से देखने लगी. पॉल जॉन नाम का ये खिलाड़ी यलो कॉर्ड पाकर एकदम से रोने लगा. पहले उसके होंठ हिले, धीरे से लंबा-चौड़ा शरीर थरथराने लगा. एक मर्द खुले मैदान में, सबके सामने रो रहा था. वक्त बीत गया लेकिन आज भी पॉल का नाम उनके खेल से ज्यादा 'सबसे पहले रोने वाली खिलाड़ी' के तौर पर ज्यादा दिखता है.
बात सिर्फ रोने की नहीं- मर्दों को हर बात पर डर लगता है.
वे खो जाने पर पता पूछते घबराते हैं कि वे हारे हुए कहलाएंगे. देखा जाए तो उनका डर किसी हद तक गलत भी नहीं. सोसायटी उन पुरुषों को कमजोर मानती है तो मदद मांगें. ड्यूट यूनिवर्सिटी के फ्यूकुआ स्कूल ऑफ बिजनेस का एक शोध यही कहता है. रिसर्च में शामिल ड्यूक, पिट्सबर्ग और सैन डिएगो के लगभग डेढ़ सौ मेल कॉलेज स्टूडेंट्स ने माना कि वे खो जाने पर भी पता नहीं पूछते.
यहां तक कि खतरनाक जगह, जैसे बर्फीले पहाड़ों या रेगिस्तान में भटक जाने पर भी नहीं जताते कि वे किसी मुसीबत में हैं. कई पुरुषों ने माना कि मुसीबत में फंसने, और बेहद ठहरकर पूछने के बाद भी लोगों ने उनकी मदद नहीं की, या की भी तो जमकर मजाक उड़ाने के बाद.
एक और शोध Sheilas’ Wheels नाम की इंश्योरेंस कंपनी ने किया, जिसमें औरत-मर्द दोनों को बाइक देकर एक तय जगह पहुंचने को कहा गया. बिना पता पूछे. दूरी 444 किलोमीटर थी. रास्ता मुश्किलों से घिरा हुआ. फिर हुआ ये कि बहुत से पुरुष रास्ता भटककर घूमते रहे, यहां तक कि बीमार पड़ गए लेकिन मदद नहीं ले सके. वहीं औरतें फोन पर फफककर रो पड़ीं और तुरंत दल-बल को बुला लिया. बगैर शर्म-झिझक के.
यही पैटर्न रिश्तों में भी दिखता है. मर्द टूटते रिश्ते के साथ टूट जाते हैं, लेकिन मदद नहीं मांगते. वे बोलते तो हैं, लेकिन तब, जब खोने को कुछ बाकी न रह जाए. उन्हें हर हाल में मजबूत जबड़े, चौड़े सीने और फौलादी दिल वाला दिखना ही होगा.
सोचिए, प्राइमरी क्लास के उस छोटे बच्चे को, जो चोट लगने पर होंठ दबाकर रह जाता है, लेकिन बुक्के फाड़कर रो नहीं पाता. वो डरता है कि बाकी क्लास उसे ‘लड़की’ चिढ़ाएगी.
गैर-बराबरी बेशक औरतों को तकलीफ दे रही है, लेकिन मर्दों के लिए भी ये गले की फांस से कम नहीं.
अपनी ही कहती हूं. इंटरनेशनल मेन्स डे है. महिला दिवस आता तो हफ्तादिन पहले कहानियां बन जातीं, लेकिन पुरुषों का दिन! उन्हें कौन तकलीफ है, जो दिन-फिन मनाएंगे! दफ्तर पहुंचे मर्दों को कोई गुलाब नहीं देगा, न चॉकलेट या दूसरा तोहफा मिलेगा. ये एक आम दिन है, जो बिना कुछ कहे बीत जाएगा.