
दुनिया में भारत का लोकतंत्र नजीर क्यों है? हिंदुस्तान में शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली सफल क्यों रही? यूं तो इस प्रश्न के कई जवाब हो सकते हैं लेकिन एक जो सबसे अहम फैक्टर है वो है हमारा चुनाव. इलेक्शन जन भागीदारी का मजबूत और व्यापक माध्यम है. ये हमारे लिए वरदान सरीखा ही है कि चुनाव की इस प्रक्रिया में शामिल होने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत के नागरिकों पर कम से कम फिल्टर लगाए.
चुनाव वो प्लेटफॉर्म है जिसके जरिये भारत का नागरिक वोट के अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग कर सरकारें चुनता या बदलता है. चुनाव में शामिल होकर वो अपना गुस्सा, खीज, संतोष या प्रशंसा जाहिर कर सकता है. चुनाव उसके राजनीतिक विवेक की अभिव्यक्ति है. चुनाव उसके संवैधानिक इकाई होने का सबूत है. इसके जरिये वह देश के लोकतंत्र से खुद को कनेक्ट करता है. इलेक्शन लोकतंत्र में भागीदारी का सबसे मजबूत, भरोसेमंद, विश्वसनीय और जवाबदेह प्लेटफॉर्म है.
मतदाता के राजनीतिक विवेक की अभिव्यक्ति होता है चुनाव
चुनाव में जनता की भागीदारी का अधिकार संविधान द्वारा गारंटीड है. चाहे चुनाव लड़ने के मानक हों या फिर वोट देने की योग्यता- हमारे संविधान निर्माताओं ने संजीदगी का परिचय दिया और अनपढ़, गरीब जनता के लिए चुनाव की प्रक्रिया में भागदारी के लिए कम से कम शर्तें/अहर्ता रखीं.
संविधान का अनुच्छेद 326 लोकसभा एवं राज्य के विधानसभाओं में होने वाले चुनाव से संबंधित है. इस अनु्च्छेद की व्यवस्था है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव सार्वभौम व्यस्क मताधिकार (Universal adult suffrage) के आधार पर होंगे. इसका अर्थ यह है कि देश में एक व्यक्ति, एक मत (One person one vote) की नीति है. 18 वर्ष के व्यक्ति मत डालने के अधिकारी होंगे और सभी मतदाताओं के मत का महत्व समान होगा, इसमें जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा.
इसी तरह चुनाव लड़ने के लिए भी संविधान में बेहद मामूली अहर्ताएं हैं. जैसे वह भारत का नागरिक हो, उम्र 25 वर्ष से कम न हो, किसी अपराध में दोषी न हो और उसे दिवालिया घोषित न किया गया हो (अनुच्छेद 84,173). बस इतना ही. न शिक्षा की बाध्यता, न धन का बंधन.
संविधान लिखने वाले चाहते थे कि भारत का हर एक नागरिक इस प्रक्रिया से जुड़े. इससे उसके अंदर जिम्मेदारी और अधिकार दोनों का बोध पनपने वाला था. इसमें कोई शक नहीं कि संविधान बनाने वालों का ये दर्शन अपने उद्देश्य में सफल रहा. सन् 1975 की घटना को छोड़ दें तो 75 सालों का भारत का संवैधानिक इतिहास हमारे लोकतंत्र की सफलता का दस्तावेज है. वर्ना दक्षिण एशिया में कई प्रजातंत्रों को सैन्य बूटों ने कुचल दिया है.
मिड टर्म इलेक्शन की जरूरत को आम्बेडकर समझते थे
सवाल किया जा सकता है कि मोदी सरकार देश के चुनाव को एक साथ करवाने की कोशिश कर रही है तो इसमें जनता की लोकतंत्र में भागीदारी कैसे प्रभावित होगी? इसके लिए इतिहास के उस दौर को याद करना जरूरी है जब संविधान सभा में चुनाव और चुनाव आयोग पर बहस हो रही थी. 15 जून 1949 को डॉ. बीआर ऑम्बेडकर ने अनुच्छेद 289 को संविधान सभा में पेश किया. ये अनुच्छेद चुनाव आयोग के गठन से जुड़ा है और वर्तमान संविधान में अनुच्छेद 324 के रूप में मौजूद है.
डॉ. ऑम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि ड्राफ्टिंग कमेटी प्रस्ताव रखती है कि चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त का पद स्थायी होगा ताकि चुनाव के लिए जरूरी मशीनरी ढांचा हमेशा के लिए उपलब्ध हो. आम्बेडकर आगे कहते हैं- 'सामान्य तौर पर चुनाव पांच साल के अंत में हुआ करेंगे.'
हालांकि आम्बेडकर संविधान निर्माता होने के नाते बाई-इलेक्शन, विधानसभा भंग होने जैसी आने वाली परिस्थितियों का पहले ही आकलन कर चुके थे.
डॉ. ऑम्बेडकर आगे कहते हैं, '...लेकिन यहां एक सवाल है वो ये है कि कभी भी उपचुनाव हो सकते हैं, विधानसभा अपने पांच साल की नियत अवधि से पहले भंग हो सकती है. फलस्वरूप, वोटर लिस्ट को हमेशा तैयार रखना होगा ताकि नया चुनाव बिना किसी परेशानी के संपन्न कराया जा सके.'
स्पष्ट है कि आम्बेडकर चुनाव की शुचिता को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करना चाहते थे. चाहे वह महज एक उपचुनाव ही क्यों न हो? विधानसभा भंग होने की स्थिति में वो अगले चुनाव के लिए भी किसी भी प्रकार की देरी नहीं चाहते थे.
सवाल ये है कि क्या मोदी सरकार का वन नेशन वन इलेक्शन (ONOE) का प्रावधान उपचुनाव, विधानसभा भंग होने की स्थिति में होने वाले चुनाव से जुड़ी चिंताओं को दूर करता है. ONOE का प्रावधान कहता है कि अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरने, विधानसभा भंग होने स्थिति में अगला चुनाव मात्र उतने समय के लिए ही होगा जब तक कि उस समय की लोकसभा का प्रावधान है.
अब मान लिया जाए कि ONOE की टाइमलाइन 2029 से 2034 है. 2033 की जून में एक राज्य की विधानसभा भंग हो जाती है. क्या अगले डेढ़ साल के लिए, या फिर इसी ऐसी स्थिति में एक साल के लिए होने वाले चुनाव में जनभागीदारी वैसी ही रहेगी जैसा कि अगर ये चुनाव 5 साल के लिए होता.
क्या 18 से 12 महीने के अंतराल में दो बार चुनाव करवाना संसाधनों की बर्बादी नहीं होगी. जबकि मौजूदा चुनाव फॉर्मेट के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क यही है कि अलग अलग चुनाव करवाना खर्चीला होता है.
ऐसी स्थिति में चुनाव को रोका जा सकता है या फिर वैसी सरकार अपने टर्म को पूरा करेगी जिसके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है. लेकिन चूंकि अगले 10 या 12 महीने में फिर से चुनाव होने हैं इसलिए जनता ऐसी सरकार को मानने के लिए विवश होगी.
चुनाव लोकतंत्र के लिए लग्जरी नहीं, प्राणवायु है...
याद रखें चुनाव लोकतंत्र के लिए लग्जरी नहीं है, इलेक्शन डेमोक्रेसी की प्राणवायु है. भारत का लोकतंत्र सफल है क्योंकि हमारे देश ने अतिरिक्त खर्च सहकर भी जनता को बार-बार चुनने का, वोट डालने का मौका दिया है. ताकि लोकतांत्रिक प्रणाली में उसकी आस्था कायम रहे. उसे ये न लगे कि वोट महज औपचारिकता है. जब देश में चंद वोट से जीत हार तय होती है, तो वोटर को संबल महसूस होता है उसे लगता है कि नहीं मेरे वोट का वजन है. और इससे लोकतंत्र की बुनियाद पुख्ता होती है.
चुनाव की इस प्रक्रिया में जनता के भाग लेने की संवैधानिक शक्ति को किसी भी तरह से संशोधित, सीमित या निलंबित करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.
संविधान सभा में साफ कहा गया- देश में चुनाव होते रहेंगे
संविधान सभा के एक और सम्मानित सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने आर्टिकल 289 पर चल रही बहस में हिस्सा लिया था. शिब्बन लाल सक्सेना के बयानों से स्पष्ट है कि हमारी संविधान सभा वन नेशन वन इलेक्शन के कॉन्सेप्ट पर विचार नहीं कर रही थी. चुनाव आयोग के काम पर चर्चा के दौरान शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा था, "हमारे संविधान में संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह चार साल का निश्चित चक्र नहीं है. चुनाव शायद लगभग हमेशा किसी न किसी प्रांत में होते रहेंगे."
गौरतलब है कि संविधान सभा में जब ये बहस चल रही थी तो डॉ. आम्बेडकर वहां मौजूद थे. भविष्य की संभावनाओं पर रोशनी डालते हुए शिब्बन लाल सक्सेना ने संविधान सभा में कहा था, "राज्यों के एकीकरण के बाद हमारे पास लगभग कुछ ही प्रांत होंगे. हमारे संविधान में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर विधानमंडल को भंग करने का प्रावधान है. इसलिए यह बहुत संभव है कि प्रांत और केंद्र में विभिन्न विधानसभाओं के चुनाव एक साथ न हों. हर समय कहीं न कहीं कोई न कोई चुनाव होता ही रहेगा. यह बिलकुल शुरुआत में हो सकता है या हर पांच या दस साल में. लेकिन दस या बारह साल बाद, हर पल किसी न किसी प्रांत में चुनाव होते रहेंगे."
इसी बहस में चुनाव आयोग के काम की चर्चा करते हुए शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा था, "मुझे नहीं लगता कि काम की कमी होगी क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि हमारे संविधान में सभी चुनाव एक साथ नहीं होंगे बल्कि वे अलग-अलग समय पर होंगे और विभिन्न विधानसभाओं में अविश्वास प्रस्ताव पारित होने और उसके परिणामस्वरूप विधानमंडलों के भंग होने से पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुसार होंगे. इसलिए, मुझे लगता है कि काम की कोई कमी नहीं होगी."
शिब्बन लाल सक्सेना का यह कथन कि "हमारे संविधान में सभी चुनाव एक साथ नहीं होंगे" स्पष्ट रूप से संविधान सभा की एक साथ चुनाव न कराने की विधायी मंशा को दर्शाता है. क्या वन नेशन वन इलेक्शन संविधान सभा की इस मंशा से टकराता नहीं है.
संविधान सभा के एक और सदस्य और कराची में पैदा हुए नामी पारसी रुस्तमजी खुर्शीदजी सिधवा भी मानते थे कि भारत में चुनाव कहीं न कहीं कभी न कभी होते ही रहेंगे. अनुच्छेद 289 पर ही संविधान सभा में 16 जून 1949 को बहस के दौरान उन्होंने कहा था, "अब सभी प्रांतों में कुल मिलाकर हमारे पास 4000 सदस्य होंगे, निश्चित रूप से हमारे यहां उपचुनाव होंगे. निश्चित रूप से हर महीने दो या तीन चुनाव होंगे, कुछ मृत्यु को प्राप्त होंगे, कुछ उच्च पदों पर पदोन्नत होंगे, कुछ इधर-उधर जाएंगे. इस संविधान सभा में थोड़े समय के दौरान हमने कई उपचुनाव देखे हैं, हालांकि हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन जिन जगहों से वे आए हैं, वहां कई चुनाव हुए हैं.''
सवाल उठता है कि शिब्बन लाल सक्सेना अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, विधानसभा का भंग किया जाना जैसे प्रावधानों की चर्चा क्यों कर रहे थे? आरके सिधवा उपचुनाव को क्यों प्राथमिकता दे रहे थे? दरअसल अविश्वास प्रस्ताव, विश्वास प्रस्ताव, विधानसभा भंग होना, त्रिशंकु विधानसभा, दल-बदल का प्रावधान, स्वस्थ और जीवंत प्रजांतत्र के पहरेदार हैं. इन सारे प्रावधानों की अंतिम परिणति नए चुनाव के रुप में होती है. ये प्रावधान सुनिश्चित करते हैं कि लोकतांत्रिक शक्ति का संतुलन बना रहे.
इसलिए खर्च या समय का हवाला देकर चुनाव को कम कराने की कोई भी कोशिश डेमोक्रेटिक स्पेस को कम करने जैसा ही माना जाएगा.
पीओके के उदाहरण से एक स्थिति समझिए
वन नेशन वन इलेक्शन का विचार क्षेत्रीय और प्रांतीय आकांक्षाओं पर कुठाराघात करने वाली शामिल होगी. इस दौरान होने वाले चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे स्थानीय मुद्दे पर वजनी साबित होंगे. इसे ऐसे समझा जा सकता है कि माना जाए भारत पीओके को अपने भूभाग में शामिल करने में सफल रहता है. इस ऐतिहासिक घटना के अगले ही साल ONOE के तहत लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव होने को हैं.
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लेकिन इसी समय देश के किसी राज्य में बाढ़, सुखाड़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा आती है और भयानक धन और जन हानि की वजह बनती है, लोग पीड़ित है या फिर दूसरी वजहों की बात करें तो कहीं भाषा संस्कृति का मुद्दा उफान पर है. ऐसे स्थिति में चुनाव के दौरान प्रचंड राष्ट्रीय भावना के बयार में राज्य के मुद्दे का दब जाने का खतरा है. इस हाल में चुनाव में केंद्र में सत्तासीन पार्टी को लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनाव में फायदा होगा और राज्य में क्षेत्रीय मुद्दे को उठाने वाली पार्टी नुकसान में रहेगी. लेकिन ये ट्रेंड राज्य में अंसतोष को जन्म दे सकता है जो दीर्घकालीन और राष्ट्रीय नजरिये से देश के हित में नहीं होगा.
ONOE में केंद्र में सत्तारुढ़ पार्टी के पास कई ऐसे मौके आएंगे जब वो पैन इंडिया इम्पैक्ट रखने वाले मुद्दों के जरिये वो राज्य के इश्यूज को प्रभावित कर सकेगी.
कुछ ही बार हो सके हैं देशभर में एक साथ चुनाव
वन नेशन वन इलेक्शन के समर्थन में तर्क दिया जाता है कि 1952 और 1957 में देश की लोकसभा और विधानसभा के लिए चुनाव एक साथ हुए थे. यहां यह समझना जरूरी है कि 1952 में ही हम रिपब्लिक बने और 52 में ही पहला चुनाव हुआ. इसमें कोई दिक्कत नहीं हुई. 1957 में दूसरा चुनाव भी इसी पैटर्न पर हुआ. लेकिन अबतक लोग इेक्टोरल डेमोक्रेसी के पेच समझने लगे थे. सत्ता को लेकर नेता और जनता की महात्वाकांक्षाएं जागने लगीं. पद की लालसा और कुर्सी का लालच लोगों में आने लगा. फिर शुरू हुआ टकराव.
1957 के चुनाव के बाद दो ही साल गुजरे थे कि 1959 में तत्कालीन पीएम नेहरू ने केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया. इसके बाद तो देश में राज्य सरकारों को सुविधानुसार बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 का बार बार इस्तेमाल हुआ और वहां केंद्र की टाइमलाइन से अलग हटकर चुनाव कराये गये. कहने का आशय है कि वन नेशन वन इलेक्शन भले ही देश में शुरू हुए हो, लेकिन भारत की लोकतांत्रिक जटिलताओं में ये सिस्टम ज्यादा दिन नहीं चल सका.