
लालकृष्ण आडवाणी और राम मंदिर एक दूसरे के पूरक हैं, और भारतीय जनता पार्टी उसकी परिणति. अगर राम मंदिर आंदोलन ने आडवाणी को बनाया है, तो मंदिर आंदोलन के असली आर्किटेक्ट भी आडवाणी ही हैं - भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के उभार की कहानी तो बस इतनी ही है.
लालकृष्ण आडवाणी को आयोजन समिति का न्योता मिलना और बीजेपी नेता का सौभाग्य समझ कर श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना, अयोध्या से आ रही और राम मंदिर से जुड़ी हाल के दिनों में सबसे बड़ी खबर है. सत्ता की राजनीति के शिखर को छूने के बाद राजनीतिक संन्यासी का जीवन जी रहे 96 साल के लालकृष्ण आडवाणी का अयोध्या जाना ही राम मंदिर आंदोलन की पूर्णाहूति है!
आडवाणी बीजेपी के लौहपुरुष यूं ही नहीं कहलाए
बीजेपी की बुलंद इमारत का क्रेडिट लेने वाले चाहे कितने भी क्यों न हों, सच तो ये है कि अगर लालकृष्ण आडवाणी ने भव्य इमारत की नींव रखी है, तो राम मंदिर आंदोलन ने मजबूती देने के लिए ईंट और सीमेंट का काम किया है.
वैसे तो लालकृष्ण आडवाणी कई बार बीजेपी के अध्यक्ष रहे, लेकिन अपनी पहली पारी में जो कुछ भी कर दिया, सब की सब पत्थर की लकीर साबित हुईं. 1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पहले अध्यक्ष बने थे, और छह साल बाद 1986 में लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी की कमान सौंपी गई.
1986 से लेकर 1991 तक के आडवाणी के अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान भारतीय राजनीति में भी काफी उथलपुथल देखने को मिली - और आडवाणी के नेतृत्व में ही 1989 का पालमपुर प्रस्ताव बीजेपी के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ.
हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बीजेपी ने विश्व हिंदू परिषद की अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण से जुड़ी मांग का औपचारिक रूप से समर्थन करने का प्रस्ताव पास किया - और बीजेपी की गाड़ी ने जो रफ्तार पकड़ी तो कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
ऐसा भी नहीं कि राम मंदिर का प्रस्ताव कोई सर्वसम्मत प्रस्ताव रहा. बीजेपी में ही जसवंत सिंह जैसे नेता भी थे जिनको रास नहीं आ रहा था, और कहते हैं कि वो कार्यकारिणी की बैठक से निकल कर सीधे रेलवे स्टेशन के लिए चल पड़े.
कुछ बीजेपी नेताओं की नजर में ये लालकृष्ण आडवाणी का दुस्साहसिक कदम था, लेकिन उनको ऐसा कदम उठाने के पीछे 1984 के आम चुनाव में बीजेपी को मिली महज दो सीटें थीं. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस को मिले भारी बहुमत ने बीजेपी को परेशान कर दिया था, और आगे बढ़ने के लिए बहुत बड़ा कदम उठाने की ही जरूरत थी - और आडवाणी ने बिलकुल वैसा ही किया. आडवाणी के फैसले को बल मिला जब 1984 में दो सीटें जीतने वाली बीजेपी ने 1989 के आम चुनाव में 85 सीटें जीत लीं.
अपने मिशन को आगे बढ़ाते हुए आडवाणी सितंबर, 1990 में खुद ही सोमनाथ से रथ पर सवार होकर अयोध्या के लिए निकल पड़े. हालांकि, बिहार से गुजरते वक्त रास्ते में ही लालू यादव ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया.
ये आडवाणी की रथयात्रा ही है जिसने बीजेपी को एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया जिससे उसके लिए राष्ट्रीय राजनीतिक दल बन कर दिल्ली पर राज करने का रास्ता मिल गया. आडवाणी की रथयात्रा भले ही रोक दी गई, लेकिन 1991 के मध्यावधि चुनाव में भी बीजेपी ने खासी बढ़त बनाई और पिछले चुनाव से 35 सीटें ज्यादा हासिल करते हुए स्कोर को 120 पर पहुंचा दिया. ये वही समय था जब बीजेपी उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनाने में सफल रही और मंदिर आंदोलन के एक और बड़े किरदार रहे कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.
कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री रहते ही कारसेवकों के हुजूम ने, अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में, 'अयोध्या में निकल आये नुकीले पत्थरों को समतल कर दिया' था - और आडवाणी जैसा ही बोल्ड स्टेप लेते हुए कल्याण सिंह ने अयोध्या की घटना की पूरी जिम्मेदारी खुद लेते हुए राज भवन जाकर इस्तीफा सौंप दिया था.
6 दिसंबर, 1992 की घटना और कल्याण सिंह की सरकार के गिरने के बाद बीजेपी की रफ्तार धीमी पड़ने लगी. बीजेपी का ग्राफ नीचे जाते देख अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी ने मंदिर का मुद्दे पर थोड़ा नरम रुख अपना लिया. धीरे धीरे ये स्थिति भी आई कि सहयोगी दलों को साथ लेने के लिए अपने चुनाव घोषणा पत्र में भी बीजेपी मंदिर मुद्दे को डाउनप्ले करने लगी. वाजपेयी सरकार ने 2004 के चुनाव में उतरने से पहले मंदिर मुद्दे की जगह इंडिया शाइनिंग नारा दिया और विकास की बातें होने लगीं, नतीजे में हार का मुंह देखना पड़ा.
अगले आम चुनाव से पहले आडवाणी भी अपनी उदार छवि गढ़ने की कोशिश करने लगे. और उसी क्रम में जिन्ना की समाधि पर जाकर उनको सेक्युलर बता डाले. आडवाणी की लौहपुरुष वाली छवि पर ये 'धब्बा' साबित हुआ. 2009 का आम चुनाव आडवाणी के नेतृत्व में ही लड़ा गया, और राम मंदिर का मुद्दा भी सामने रखा गया, लेकिन पहले जैसा जोर नहीं दिखा. बीजेपी लाख चाहकर भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं रोक पाई.
2014 में बीजेपी ने चुनाव से पहले ही नरेंद्र मोदी को अपने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था, वो लालकृष्ण आडवाणी का आखिरी लोक सभा का चुनाव था, जिसके बाद नये नेतृत्व ने आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया - और धीरे धीरे वो मुख्यधारा की राजनीति से ओझल हो गये.
और आडवाणी का राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा का साक्षी बनना
पहले राम जन्मभूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय के जरिये खबर आई थी कि बीजेपी के दो सीनियर नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को राम मंदिर उद्घाटन समारोह में शामिल नहीं होने को कहा गया है. चंपत राय के मुताबिक, ये पेशकश दोनों नेताओं की उम्र और उनकी सेहत को ध्यान में रखकर की गई है - लेकिन ये जानने के बाद चर्चा होने लगी कि कैसे पहले लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व ने राजनीति से दूर किया, और अब मंदिर आंदोलन की नींव रखने वाले को ही राम मंदिर के उद्घाटन समारोह से दूर करने का प्रयास चल रहा है.
बहरहाल, विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार, आरएसएस के नेता कृष्ण गोपाल और राम लाल, लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात कर राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह का निमंत्रण दिया है, और आडवाणी भी खुशी खुशी शामिल होने को तैयार हैं. बताते हैं कि आडवाणी की उम्र और सेहत को देखते हुए सभी जरूरी मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी.
निमंत्रण मिलने पर लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, बड़े सौभाग्य का योग है कि ऐसे भव्य प्रसंग पर प्रत्यक्ष उपस्थिति का अवसर मिला है... क्योंकि श्रीराम का मंदिर यह केवल एक पूजा की दृष्टि से अपने आराध्य का मंदिर... केवल ऐसा प्रसंग नहीं है... देश की पवित्रता, और देश की मर्यादा की स्थापना पक्की होने का यह प्रसंग है.
आडवाणी ने न्योता देने पहुंचे नेताओं को आश्वस्त किया कि वो जरूर पहुंचेंगे, 'हम प्रत्यक्ष वहां उपस्थित रहेंगे... उस प्रसंग को देखेंगे... उसमें सहयोगी बनेंगे... यह कहीं किसी जन्म में पुण्य हुआ होगा, उसी का फल हमको मिल रहा है... मैं आपका कृज्ञतापूर्वक धन्यवाद करता हूं... ये तो मांग के भी न मिलने वाला अवसर है, वो मिला है... जरूर उसमें रहूंगा.'