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शिवसेना पर फैसला: अब तो INDIA ब्लॉक में भी किनारे लगाए जा सकते हैं उद्धव ठाकरे

महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के फैसले के बाद मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की सरकार बच गई है. उद्धव ठाकरे के लिए असली संघर्ष के दिन अब आए हैं. उन्हें राज्य में अपनी विरासत को बचाने की बड़ी लड़ाई होगी. और इसकी परीक्षा उन्‍हें सबसे पहले INDIA गठबंधन में सीट शेयरिंग में अपनी बात मनवाते समय देनी होगी.

एकनाथ शिंदे बने रहेंगे सीएम, उद्धव के हाथ से पार्टी भी जाएगी एकनाथ शिंदे बने रहेंगे सीएम, उद्धव के हाथ से पार्टी भी जाएगी
संयम श्रीवास्तव
  • नई दिल्ली,
  • 10 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 8:16 PM IST

महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने आज उद्धव की शिवसेना को बहुत बड़ा झटका दिया है. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना को ही असली मानकर विधानसभा में उनके गुट को मान्यता देने के चलते अब उद्धव ठाकरे पर दोतरफा मार पड़ने वाली है. एक तो शिंदे गुट को मान्यता मिल गई है दूसरे पार्टी पर भी अब एकनाथ शिंदे का ही अधिकार होगा. इसका असर बहुत दूरगामी होने वाला है. उद्धव ठाकरे अपने पिता के खून पसीने से बनी पार्टी से भी हाथ धो बैठेंगे. पार्टी का निशान तो शिंदे गुट को मिल ही जाएगा, अब फंड  और ऑफिस आदि पर भी कब्जे के लिए जंग होगी. शिंदे गुट को ये अधिकार भी आज नहीं तो कल मिल ही जाएंगे. हो सकता है कि उद्धव ठाकरे विधानसभा अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाएं पर उसका परिणाम देखने तक गंगा से बहुत पानी बह चुका होगा.

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पार्टी भी हाथ से गई

इस पूरे मामले में जो सबसे खास सवाल था कि, क्या 21 जून की एसएसएलपी बैठक से विधायकों की अनुपस्थिति अयोग्यता का कारण बनती है? इस पर स्पीकर नार्वेकर ने स्पष्ट कहा कि, इस आधार पर मेरा मानना ​​है कि शिंदे गुट को अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता. उनका कहना था कि क्योंकि शिंदे गुट ही असली पार्टी थी और गुट के उभरने के बाद से ही सुनील प्रभु सचेतक नहीं रहे. इस बात को पहले ही चुनाव आयोग भी कह चुका है.

निश्चित है कि पार्टी पर अधिकार की लड़ाई उद्धव ठाकरे की अब कमजोर पड़ जाएगी. शिवसेना का चुनाव चिह्न तीर कमान पहले ही चुनाव आयोग शिंदे गुट को दे चुका है. पर उद्धव ठाकरे को उम्मीद थी कि हो सकता है कि फैसला उनके पक्ष में हो और वो दुबार चुनाव चिह्न का यूज कर सकें, पर ऐसा नहीं हुआ. अब शिवसेना का दफ्तर और शिवसेना के फंड में पड़े रुपये पर भी अधिकार की लड़ाई तेज होगी. मुकदमेबाजी होगी. हर जगह उद्धव ठाकरे कमजोर पड़ेंगे. क्योंकि चुनाव आयोग और विधानसभा अध्यक्ष दोनों के फैसले को काटना इतना आसान नहीं होगा. 

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चू्ंकि नार्वेकर ने शिव सेना संविधान में नेतृत्व ढांचे की बात जोर देकर कही. उन्होंने कहा कि, असली पार्टी का फैसला निर्वाचन आयोग कर चुका है. 2018 का लीडरशिप स्ट्रक्चर ही विश्वस्त है. उसमें पक्ष प्रमुख यानी पार्टी अध्यक्ष की व्याख्या की गई है. हमने भी उसे ही मान्यता दी है. वही उच्चतम पद है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 19 सदस्य होंगे. 14 चुने जाएंगे पांच मनोनीत होते हैं.

क्या जनता की हमदर्दी हासिल कर सकेंगे?

शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट के नेता संजय राउत ने फैसले के बाद कहा कि जनता समझती है कि असली शिवसेना कौन है. राउत ने कहा कि शिंदे गुट के लोगों को राम का नाम लेने का अधिकार नहीं है. राम अपने पिता दशरथ की खातिर अपना राजपाठ छोड़कर वनवास चले गए थे. एक यह लोग हैं कि सत्ता की खातिर अपने राजनीतिक पिता बाल ठाकरे की पार्टी को वनवास में भेजना चाहते हैं. पर जनता ऐसा होने नहीं देगी. सुनने में ये अच्छा लगता है कि पर पार्टी पर एकाधिकार बनाए रखने के लिए उद्धव ठाकरे ने कुछ ऐसा नहीं किया जो उन्हें पिता की विरासत बचाने में मदद कर सके.

उद्धव ठाकरे के साथ के कई जमीनी नेता आज एकनाथ शिंदे के साथ है. दूसरे हिंदुत्व का जो मुद्दा कभी शिवसेना का ब्रैंड इमेज होती थी वो अब धूमिल हो चुकी है. आज हिंदुत्व की राजनीति को महाराष्ट्र में भी बीजेपी ने हथिया लिया है. काग्रेस के साथ सरकार बना चुके उद्धव ठाकरे ने अपने कार्यकाल के दौरान धर्मनिरपेक्ष बनने की कोशिश की थी जो शिवसेना के इमेज से बिल्कुल अलग था. उद्धव ने पार्टी में अपने और अपने बेटे को छोड़कर किसी को उभरने का मौका नहीं दिया. यहां तक कि उन पर आरोप थे कि पार्टी कार्यकर्ता की तो छोड़िए विधायकों तक से वे नहीं मिलते थे. पार्टी में नंबर 2 और नंबर 3 के लेवल पर भी कोई जनाधार वाला लीडर नहीं बचा है. जनता की हमदर्दी तो मिल सकती थी पर उसे वोट में बदलने के संगठन चाहिए जो अब उनके पास है ही नहीं या कमजोर हो चुका है. 

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सुप्रीम कोर्ट में अगर जाते हैं तो क्या होगा?

उद्धव गुट विधानसभा अध्यक्ष के फैसले आने के पहले से ही कह रही है कि वो पक्ष में निर्णय न होने पर सुप्रीम कोर्ट जाएगी. मगर सुप्रीम कोर्ट पहले ही जब मामले पर खुद फैसला लेने से मना कर चुका है तो फिर किस तरह दुबारा फैसला करने को तैयार होगा. सबसे बड़ा सवाल तो यही है. अगर सुप्रीम कोर्ट उद्धव ठाकरे गुट की अर्जी को स्वीकार भी कर लेता है तो उसका हश्र वैसा ही हो सकता है जैसा उत्तर प्रदेश में कभी केशरी नाथ त्रिपाठी के फैसले के साथ हुआ था.

वर्ष 2002 के यूपी विधानसभा चुनाव का परिणाम किसी भी एक दल के पक्ष में नहीं आया था. समाजवादी पार्टी को 143 सीटें, बहुजन समाज पार्टी को 98 सीट, भारतीय जनता पार्टी को 88 सीट, कांग्रेस को 25 सीटें और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल को 14 सीटों पर जीत मिली थी. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. बाद में भाजपा और राष्ट्रीय लोक दल ने बहुजन समाज पार्टी को समर्थन दे मायावती को मुख्यमंत्री बना दिया. 3 मई 2002 को मायावती मुख्यमंत्री बन गईं. 2003 आते-आते मायावती और भाजपा के बीच ठन गई. 26 अगस्त 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक में विधानसभा भंग करने को की सिफारिश की और अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया.भाजपा नेताओं ने राज्यपाल से मुलाकात कर समर्थन वापसी का पत्र दे दिया. राज्यपाल ने समर्थन वापसी का पत्र इस्तीफा के पत्र मिलने से पहले माना. विधानसभा भंग करने के बजाय मुलायम सिंह यादव से मुख्यमंत्री पद के लिए दावा पेश करवा दिया. विधानसभा अध्यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी ने 27 अगस्त 2003 को बसपा के 13 विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मुलायम को मुख्यमंत्री के लिए समर्थन देने का पत्र दे दिया, बीएसपी ने इन विधायकों पर दल बदल निरोधक कानून और संविधान की दसवीं अनुसूची के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सदस्यता खारिज करने की मांग की,

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29 अगस्त 2003 को मुलायम मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. केसरी नाथ त्रिपाठी ने बाद में विभाजन को मान्यता दे दी. विधानसभा अध्यक्ष के फैसले का केस कोर्ट पहुंचा. कोर्ट में मामला चलता रहा और मुलायम सिंह यादव की सरकार भी.सुप्रीम कोर्ट ने 14 फरवरी 2007 को बसपा में हुई टूट को अवैध बताया. 13 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द हो गई. तब तक मुलायम सरकार का कार्यकाल पूरा हो चुका था. 

इस कहानी का आशय यह है कि अगर उद्धव मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाते हैं और कोर्ट उनको सही भी मानता है तो भी अब कुछ हाथ नहीं लगने वाला है. अब बहुत देर हो चुकी है. फैसला आने तक लोकसभा चुनाव ही नहीं विधानसभा चुनाव भी हो चुके होंगे.

इंडिया ब्लॉक में भी पूछ घट सकती है

फैसला आने के पहले तक शिवसेना उद्धव गुट अपने सहयोगियों को यही संकेत दे रहा था कि वह 23 लोकसभा सीटों पर अपना दावा पेश करेगा. शिवसेना उद्धव गुट का तर्क देता था कि भाजपा के साथ पिछले चुनाव में चूंकि वो 23 सीटों पर लड़ा था जिसमें से 18 पर उसने जीत दर्ज की थी. हालांकि इन 18 सीटों की जीत में बीजेपी की बड़ी भूमिका रही थी. शिवसेना में टूट के बाद 13 सांसद एकनाथ शिंदे के साथ चले गए हैं और आज फैसले के बाद उन्हें मान्यता मिल गई.जाहिर है कि शिवसेना उद्धव गुट की ताकत अब उतनी नहीं है जो पहले थी. साफ है कि कांग्रेस इसी बात का फायदा उठाना चाहेगी. कांग्रेस अब तक 18 सीटें मांग रही है जबकि एनसीपी भी 18 सीटों पर दावा कर रही है. शिवसेना उद्धव गुट के कमजोर होने से कांग्रेस अब फुल फार्म में होगी. कांग्रेस के नेता पहले ही कह चुके हैं कि शिवसेना में सारे लोग तो उद्धव को छोड़कर जा चुके हैं. उनके पास बचा कौन है?

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