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आदित्य ठाकरे-तेजस्वी यादव की मुलाकात के पीछे क्या है वजह?

महाराष्ट्र सरकार में पूर्व मंत्री रहे आदित्य ठाकरे ने बिहार जाकर डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव से मुलाकात की. इसके बाद आदित्य ने कहा कि उनकी तेजस्वी के साथ ये पहली मीटिंग है. सभी युवाओं को साथ आना चाहिए और बेरोजगारी के मुद्दे को उठाना चाहिए. तेजस्वी ने आदित्य ठाकरे की मुलाकात बिहार के सीएम नीतीश कुमार से भी करवाई थी.

साहिल जोशी साहिल जोशी
साहिल जोशी
  • मुंबई,
  • 27 नवंबर 2022,
  • अपडेटेड 10:57 AM IST

देश में विपक्ष आखिरकार अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है. लंबे अंतराल के बाद उसे एहसास हुआ है कि बिना उसके कुछ हासिल नहीं हो पाएगा. शायद इसीलिये राहुल गांधी भारत जोड़ो का नारा देकर हजारों मील पैदल यात्रा पर निकल पड़े हैं. महाराष्ट्र से उनकी यात्रा निकली तो मैंने देखा कि लोगों में जिज्ञासा थी कि ये यात्रा है क्या? हाल ही में शिवसेना उद्धव बालासाहब ठाकरे गुट के नेता आदित्य ठाकरे का बिहार के उपमुख्यमंत्री और लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव से मिलना भी इसी श्रेणी में आता है. 

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लालू यादव का विशेष उल्लेख सिर्फ इसीलिए कि आदित्य ठाकरे के दादा बालासाहब ठाकरे लालू यादव को लेकर क्या राय रखते थे ये उन्होने कई बार जाहिर की थी. खुद लालू यादव भी बालासाहब पर तीखी टिप्पणी करने में कोई लिहाज नहीं रखते थे. इस इतिहास को देखते हुए आदित्य को इस बात का ऐतबार था कि इस मुलाकात को लेकर बीजेपी और उनके चाचा की पार्टी एमएनएस लोगों के सामने क्या राय रखेगी, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने ये मुलाकात की.  

इसकी शुरुआत भी कुछ साल पहले हो चुकी थी. दोनों हमउम्र नेता एक-दूसरे से संपर्क में थे, लेकिन आमने-सामने मिल नहीं पाए थे. इसबार उन्होंने मिलकर एक पोलिटिकल स्टेटमेंट दे दिया है. उनकी ये मुलाकात राजनीतिक कंफर्ट जोन से बाहर निकलना क्यों है, ये बात समझना जरूरी है. लेकिन इससे पहले बालासाहब-लालू यादव और महाराष्ट्र-बिहार के बीच रहा दिलचस्प राजनितीक रिश्ता समझना होगा. 

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बिहार में मराठीवादी पार्टियों की यानी शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी एमएनएस की छवि बिहारी, उत्तर भारतीय विरोधी रही है. दोनों ही पार्टियों को ठाकरे परिवार चलाता है. इसीलिए ठाकरे परिवार का भी बिहारी और उत्तर भारतीय विरोधी माना जाना लाजिमी है. राज ठाकरे की एमएनएस को देखें तो 2006 में स्थापना के बाद से ही उसने उत्तर भारतीयों पर अपना निशाना साधना शुरू कर दिया था. मुंबई और आसपास के इलाकों में उत्तर भारतीय वोटरों के बढते प्रभाव को सामने रखकर एकबार फिर मराठी भाषी वोटबैंक को इकठ्ठा करने के लिए राज ठाकरे अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे थे, लेकिन शिवसेना की यानी बालासाहब और उद्धव ठाकरे की शिवसेना की बात करें तो उन्होंने उत्तर भारतीयों के खिलाफ उग्र आंदोलन कभी नहीं किया. 

जब हिंदुत्व के रंग में रंगी शिवसेना

शिवसेना के शुरुआती दिनों में बालासाहब और शिवसेना का निशाना दक्षिण भारतीयों पर रहा. यहां तक कि 1990 के बाद अपनी छवि को पूरी तरह से हिंदुत्व के रंग मे रंगने के बाद शिवसेना ने अपने वोट बेस को हिंदुत्व के सहारे गैर मराठी भाषी यानी गुजराती, बिहारी और उत्तर प्रदेश के मुंबई में बसे लोगों में फैलाने की कोशिश शुरू कर दी थी. इसीलिये मराठी में अपना मुखपत्र सामना शुरू करने के कुछ ही सालों बाद हिंदी मे दोपहर का सामना भी शुरू किया गया. दोपहर का सामना के बिहारी संपादक संजय निरूपम को मराठी सामना के संजय राउत से पहले ही राज्यसभा भेजा गया.  

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उद्धव ने की मी मुंबईकर मुहिम की शुरुआत

मुंबई पीढ़ी दर पीढ़ी रहने वाला मुंबईकर ये नारा देकर ‘मी मुंबईकर’ यानी मै मुंबईकर की मुहिम भी उद्धव ठाकरे ने पार्टी का कार्यकारी प्रमुख बनने के बाद शुरू कर दी थी. बालासाहब और लालू यादव के बीच का संघर्ष मराठी बनाम बिहारी से ज्यादा हिंदुत्व को लेकर था. लालू यादव और मुलायम सिंह यादव उन दिनों अल्पसंख्यक समाज के मसीहा के रूप में उभरे थे. बिहार और उत्तर प्रदेश में मुस्लिम यादव समीकरण हिंदुत्व पर भारी साबित हो रहा था. इसीलिये अपनी हिंदुत्ववादी छवि को तराशने के लिए बालासाहब का निशाना दोनों यादव नेताओं पर था. 

राज ठाकरे ने उत्तर भारतीयों पर किए तीखे हमले

वहीं दूसरी ओर शिवसेना में दोनों ठाकरे बंधुओं में अंतर्गत कलह शुरू हो चुकी थी. उद्धव ठाकरे के मी मुंबईकर को काटने के लिये राज ठाकरे जो शिवसेना की युवा विंग भारतीय विद्यार्थी सेना के प्रमुख भी थे उनके समर्थकों ने रेलवे भर्ती की परीक्षा देने उत्तर भारत से मुंबई आए छात्रों की पिटाई की. शिवसेना जैसी मराठी वादी पार्टी में मी मुंबईकर मुहिम को ये बडा झटका लगा और उस वक्त और उसके बाद जब एमएनएस बनाकर राज ठाकरे के हमले उत्तर भारतीयों पर और भी तीखे हुए. मराठी वोट बैंक खोने के डर से शिवसेना और उद्धव ठाकरे को ये पोलिटिकल रीचआउट खत्म करना पडा. 

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अब महाराष्ट्र में हिंदुत्व के तीन और दावेदार

आदित्य ठाकरे पर ये राजनीतिक बोझ नहीं है. उन्हें पता है कि महाराष्ट्र में अब हिंदुत्व के तीन और दावेदार हैं इनमें बीजेपी प्रमुख है. उनसे टूटकर बाहर निकले शिंदे हैं और अब राज ठाकरे भी हिंदू जननायक बनने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में शिवसेना के पारंपारिक वोट बैंक पर ज्यादा दिन टिके रहना मुश्किल है. बालासहब और उनकी उस वक्त की राजनीति मुंबई और आसपास रहने वाली युवा पीढ़ी के लिए समझ के परे है. ऐसे कई साल पहले छूट गया कार्यक्रम शिवसेना की नई पीढ़ी उठाना चाहती है. मराठी वोटों की राजनीति के कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर बालासाहब ठाकरे ने उस वक्त अछूत मानी जाने वाली आक्रामक हिंदुत्ववादी धार्मिक राजनीति को अपनाया, जिसका राजनीतिक लाभ उन्हें हुआ. ठीक उसी तरह उससे बिल्कुल उलटी राजनीति आदित्य अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. बीएमसी चुनाव में जब बीजेपी, एमएनएस और शिंदे गुट के रूप में हिंदुत्व के नाम पर तगडा विरोध का सामना करना पड़ेगा तब कुछ हदतक ये नए राजनीतिक साथी काम आ सकते हैं. ये सोच लेकर आदित्य नए दोस्त जोड़ना चाहते हैं, लेकिन बात सिर्फ यही नहीं है. 

महाराष्ट्र के बाहर नहीं गए बालासाहब

बालासाहब ने भले ही हिंदुत्व की राजनीती की हो, लेकिन महाराष्ट्र के बाहर वो कम ही गए. इतना ही नहीं सालों तक बीजेपी के साथ गठबंधन रहते बीजेपी के शीर्ष नेता और महाराष्ट्र में शरद पवार और चुनिंदा कांग्रेसी छोड़ बाकी राजानीतिक बिरादरी से ठाकरे परिवार दूर ही रहा. 2019 में जब महाविकास आघाडी का प्रयोग हो रहा था तब उन्हें समझ आया कि कांग्रेस के नए नेताओं से उनका संपर्क है ही नहीं. 

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एनसीपी के जरिए होती थी कांग्रेस से बात

कई दिनों तक उनकी बातचीत शरद पवार या एनसीपी के जरिए होती रही. ऐसे में अब जब सालों पुराना दोस्त भी नहीं रहा तो अब राजनीतिक बिरादरी में मिलना-जुलना बढ़ाना होगा. ये बात भी उन्हें समझ में आई. राजनीति में संकट आए तो विपक्ष के बाकी नेताओं से सीधे बातचीत रहनी चाहिए, यह सोच भी इन मुलाकातों के पीछे है. यही वजह है कि तमाम विरोध के बावजूद आदित्य, राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में भी दिखाई दिए और राजनीतिक विचारधारा न मिलते हुए भी राजनीति में विरोधी रहे नेताओं और दलों से ऐसे मुद्दों पर बातचीत शुरू की जा रही है, जो विचारधारा से परे हो. जब केंद्र मे कांग्रेस को हराना नामुमकिन सा लगता था तब लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया और अलग-अलग विचारधारा के दलों को साथ लाने की कोशिश की. तब भी महाराष्ट्र से मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस जैसे नेता बिहार पहुंच गए थे. आज कांग्रेस की जगह बीजेपी है और गैर बीजेपीवाद का नारा बुलंद करने की कोशिश हो रही है. इसबार भी महाराष्ट्र से बिहार जाकर आदित्य ठाकरे ने पहल की है.  

 

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