
हर जादूगर की एक ट्रिक तय होती है जो उसे पता होता है कि हमेशा चलेगी. ऐसा नहीं है कि बाकी ट्रिक का इस्तेमाल वो करता नहीं है लेकिन जब उसे लगता है कि उसका खेल चल नहीं पा रहा है तो वो अपनी विश्वसनीय ट्रिक का इस्तेमाल करता है जिससे उसे दर्शकों की तालियां मिलें. नेता भी ऐसा ही करते हैं. धर्म से जोड़कर राजनीति करना उन्हें हमेशा अच्छा रिजल्ट देता है. कुछ ऐसे मुद्दे जो सालों से भाषण में ताली दिलवाते रहे हैं उनमें अब मस्जिदों पर लगने वाले लाउडस्पीकर के मुद्दे को भी शामिल कर लेना चाहिए. जब भी जरूरत पड़ती है नेताओं की पोटली से ये कई बार आजमाया और परखा हुआ मुद्दा निकलता ही है. फिलहाल राजनीति में अपनी खोई जमीन ढूंढने में लगे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने भी यही किया है.
क्या साबित करना चाहते हैं राज ठाकरे?
माना जा रहा है कि आने वाले चुनाव में बीजेपी के साथ संबंध जोड़ने के लिए राज ठाकरे उत्सुक हैं. ऐसे में वे उग्र तेवरों वाले हिंदुत्व की राह पकड़ बीजेपी के पास पहुंचना चाहते हैं. बीजेपी के साथ कुछ बात बने इसका उनपर अपनी पार्टी से दबाव था. इससे पहले 2019 में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के खिलाफ महाराष्ट्र में बाकी पार्टियों का गठबंधन बनाने की भरपूर कोशिश की थी. प्रधानमंत्री और उनके अच्छे दिन के वादे पर सवाल उठाते उनके भाषण काफी चर्चा में रहे. लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में आए अटपटे मोड़ से राज ठाकरे अलग-थलग पड़ गए हैं. कांग्रेस और शरद पवार के उद्धव ठाकरे के साथ सरकार बना लेने से राज ठाकरे ने अपने आप को ठगा महसूस किया. अबतक पवार और कांग्रेस के सहारे नई राजनीति तलाशने में लगे राज ठाकरे को दूर रखकर कांग्रेस और एनसीपी ने बीजेपी को दूर रखने के लिए शिवसेना के साथ हाथ मिला लिया. उद्धव ठाकरे के कांग्रेस-एनसीपी के साथ आने के बाद राज का कांग्रेस या पवार के साथ रहना संभव नहीं है. खुद उद्धव भी ये पसंद नहीं करते. ऐसे में हाशिये पर चले गए राज ठाकरे को ‘जांचा परखा’ मुद्दा हिंदुत्व ही याद आया. ना सिर्फ उन्होंने अपनी पार्टी का झंडा केसरिया रंग में बदल दिया बल्कि कोविड के समय मंदिर खोलो का नारा भी देना शुरू किया. ये वही मुद्दा है जो बीजेपी भी उठा रही थी.
ऐसा नहीं है कि राज ठाकरे या उनकी राजनीति कभी ‘लेफ्ट लीनिंग’ रही हो. वो हमेशा ‘राइट ऑफ सेंटर’ रहे लेकिन अब हिंदुत्व का जो नारा वो दे रहे हैं उतनी कट्टरता उनमें कभी नहीं थी. महाराष्ट्र मराठियों का कहने वाले राज अब कहने लगे हैं कि भाषावाद, जातिवाद हिंदुओं में फूट डालते हैं. अब तो उन्होंने अपने पार्टी कैडर को मस्जिदों से लाउडस्पीकर नहीं उतरने तक उनके सामने लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा चलाने के आदेश दे दिए हैं.
किस प्रकार की राजनीति करते हैं राज ठाकरे?
राज ठाकरे की राजनीति की शुरुआत भले शिवसेना से हुई हो लेकिन उन्होंने शिवसेना से अलग अपनी पहचान बनाने की कोशिश की थी. बसे-बसाए नेताओं को साथ लेने के बजाय उन्होंने ऐसे युवा वर्ग को साथ लाने की कोशिश की जो सालोसाल वही भाषण, वही मुद्दे और वही नेता देख पक चुका था. भले राज ठाकरे मराठी वाद में सॉफ्ट हिंदुत्व मिलाकर बात कर रहे थे लेकिन राजनीति में नया तलाश रहे युवाओं को वो पसंद आ रहे थे. 2014 के बाद सारा परिदृश्य बदल गया. मोदी लहर ने राज ठाकरे का ये वोटर छीन लिया. इसलिए अब लाउडस्पीकर के जरिये हिंदुत्व की राह पर वापसी की राज ठाकरे की कोशिश है. महाराष्ट्र में ये स्पेस उनके चाचा बाल ठाकरे के पास था. उनके गुजर जाने के बाद और अब उद्धव ठाकरे के कांग्रेस-एनसीपी से हाथ मिलाने के बाद बीजेपी और राज ठाकरे दोनों उस स्पेस को लेने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन राज ठाकरे के पास चाचा का करिश्मा है जिसके भरोसे वो पिछले 30 साल से चल रहे मुद्दे को दोबारा हवा देने की कोशिश कर रहे हैं.
बाल ठाकरे भी उठाते थे लाउडस्पीकर मुद्दा
बाल ठाकरे अपने भाषणों में अक्सर मुस्लिम समुदाय के सड़कों पर नमाज पढ़ने और मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर का जिक्र करते रहे हैं. खासकर 1985 के बाद जब शिवसेना ने हिंदुत्व की राजनीति को अपनाया. इसके बाद अब तक दो बार बीजेपी और शिवसेना की सत्ता महाराष्ट्र में आई है लेकिन फिर भी इन दो मुद्दों पर कोई कदम नहीं उठाया गया. इस बार अदालत के फैसले का हवाला देकर एक बार फिर इस मुद्दे को हवा देने की कोशिश हो रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अब उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री हैं, जबकि जिसके साथ शिवसेना दो बार सत्ता में रही वो बीजेपी विपक्ष में है.
बाहरहाल जिस अदालत के आदेश का जिक्र किया जा रहा है वो उस हर लाउडस्पीकर के खिलाफ है जो मुंबई की सड़कों पर बिना इजाजत के या फिर इजाजत के साथ भी 50 डेसिबल के ऊपर शोर करता है. फिर चाहे वो राजनीतिक रैलियों का हो, त्योहर का हो या फिर सामाजिक आंदोलनों का ही क्यों न हो लेकिन ये बात राजनीतिक लाउडस्पीकर के शोर में शायद ही सुनाई दे. राजनीति को बदलने का आगाज करने वाले राजनीति का ऐसा शिकार हुए हैं कि यही सालों पुराना लाउडस्पीकर का मुद्दा उनका सहारा बचा है