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जातिगत सर्वे के मुद्दे को आईना दिखा देंगे एमपी-राजस्थान के चुनाव नतीजे

जातिगत सर्वे का मुद्दा उठाकर विपक्ष को लगता है कि उन्होंने बढ़त हासिल कर ली. पर राजनीति में जातियों का वोटिंग पैटर्न इतना जिग जैग है कि इतनी आसानी से रिजल्ट नहीं निकाला जा सकता. मध्यप्रदेश और राजस्थान में दोनों मुख्य पार्टियों ओबीसी को लुभाने में जुटी हैं. यह कहना मुश्किल है कि यहां जाति सर्वे का मुद्दा चलेगा.

कितना प्रभावी होगा एमपी और राजस्थान में जाति जनगणना का मुद्दा कितना प्रभावी होगा एमपी और राजस्थान में जाति जनगणना का मुद्दा
संयम श्रीवास्तव
  • नई दिल्ली,
  • 04 अक्टूबर 2023,
  • अपडेटेड 2:35 PM IST

जाति जनगणना का मुद्दा कितना चलता है इन राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव परिणाम स्पष्ट कर देंगे. दरअसल जातियों का वोटिंग पैटर्न आंकड़ों से नहीं निकलता. न्यूटन के दूसरे और तीसरे नियम यहां भी चलते हैं. मतलब कि कई जातियां मिलकर एक तरफ होती हैं तो क्रिया प्रतिक्रिया का नियम भी लगता है. सीधे शब्दों में जैसे जाट अगर कांग्रेस को वोट दे रहे हैं तो निश्चित है कि गैर जाटों का वोट बीजेपी को जाएगा. यही कारण जातिगत सर्वे के नतीजों का असर नहीं के बराबर होने वाला है. हां राजनीति में ओबीसी जातियों का वर्चस्व पहले से बढ़ रहा जो अभी भी जारी रहेगा.

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दोनों राज्यों में कांग्रेस ने ओबीसी कार्ड खेलने के लिए जाति जनगणना कराने का वादा किया है मगर मध्यप्रदेश में उन्होंने एक सवर्ण कैंडिडेट को अपना सीएम कैंडिडेट बनाया हुआ है. जबकि उसका मुकाबला प्रदेश में बीजेपी के सीएम से है जो पिछड़ी जाति के हैं.. इसी तरह राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है वहां का सीएम पिछड़ी जाति का है जबकि बीजेपी की ओर से किसी को सीएम कैंडिडेट बनाया ही नहीं गया है. मतलब साफ है कि चीजें आपस में इतनी गुत्थमगुत्था है कि किसी एक फॉर्मूले से हार या जीत नहीं तय की जा सकती है.

राजस्थान में ओबीसी फैक्टर

राजस्थान में ओबीसी की राजनीति यूपी और बिहार के तर्ज पर प्रभावशाली नहीं हो पाई. इसे इस तरह देख सकते हैं कि यूपी और बिहार में पिछड़ों को नौकरियों और शैक्षणिक संसंथानों में आरक्षण करीब 27 परसेंट मिल रहा है. राजस्थान और एमपी में अब जाकर 27 परसेंट की सिफारिश की गई है. राजस्थान में बीजेपी अलग तरह से चुनाव अभियान चला रही है.प्रदेश में चुनाव अभियान का किसी एक को चेहरा नहीं बनाया गया है. चार अलग-अलग टीमों को सौंपा गया है.पिछड़ा वर्ग आयोग का कहना है कि प्रदेश में 45 से 48 प्रतिशत जनसंख्या ओबीसी की है फिर भी वो एक समूह में नहीं हैं या यूं कहें कि एक झंडे के नीचे नहीं है. अंदर ही अंदर बहुत संघर्ष है इनके बीच. जैसे जाट, जणवा, आंजना, बिश्नोई, जट सिख आदि बाकी ओबीसी पर बहुत भारी पड़ते हैं. सेवा और कारीगर जातियों सुथार, माली, कुम्हार या कुमावत, चारण, सुनार आदि हैं इनका वोटिंग पैटर्न अलग-अलग तरीके से है.

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अपने वर्ग के भीतर अगड़ी जातियों से नाराज होकर अलग होने वाली जातियां भी अतिपिछड़ी हैं. जैसे गुर्जरों के साथ गाड़ोलिया लुहार, राइका, जोगी आदि इनका वोट अपने मूल जातियों से अलग ही जाता है.इसलिए हम यह नहीं कह सकते जाति जनगणना के समर्थन या विरोध  पर ओबीसी जातियों का वोट एकतरफा किसी को मिल जाएगा. अब यह पूर्णतया राजनीतिक प्रबंधन पर निर्भर करता है कौन किसको किस तरह अपने साथ ले ले. यह तय है कि जातिगत सर्वे के बाद भी ये जातियां एक मंच पर नहीं आने वाली हैं.

जाट और ग़ैर जाट की राजनीति हमेशा से अलग तरीके से चलती रही है. जाट शुरू से ही खभी भाजपा के साथ ख़ुले तौर पर नज़र नहीं आते रहे हैं.शायद यही कारण है कि कुम्हार, सुथार, चारण, रावण राजपूत, यादव, गुर्जर और माली जाति का रुख भाजपा की तरफ है. जाटों को शिकायत है कि प्रदेश में जाटों का वोट लेकर कांग्रेस ने माली जाति का सीएम बनाया हुआ है. कांग्रेस राज्य में बहुत पहले ही ओबीसी जनगणना की मांग कर रही है.मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी जातिगत जनगणना का समर्थन किया.कांग्रेस सरकार का ओबीसी आरक्षण को 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत करने और मूल ओबीसी के लिए अलग से 6 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा गहलोत सरकार का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है.

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ये तो रही ओबीसी वोटों की बात. पर प्रदेश में वोटिंग केवल जाति को ही ध्यान में नहीं होने वाली है . वोटिंग का ट्रेंड प्रदेश में महिलाओं पर हो रहा अत्याचार, नौकरियों में नकल माफिया, सरकार के कल्याणकारी कार्यक्रमों पर भी निर्भर करेगा. 
 

मध्य प्रदेश में ओबीसी फैक्टर 

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस जातिगत जनगणना का मुद्दा जोर शोर से उठा रही है.प्रदेश में पिछड़ा वर्ग भाजपा की ताकत रहा है. पिछड़ा वर्ग आयोग के अनुसार प्रदेश की 50.09% आबादी अन्य पिछड़ा वर्ग की है. चंबल-ग्वालियर और बुंदेलखंड सहित मालवा, भोपाल में पिछड़ी जातियों के गढ़ हैं. भाजपा ने 2003 के चुनाव में जब उमा भारती पर दांव लोध वोटों को ध्यान में रखकर ही लगाया था. उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं हीं बाद में बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान के साथ पिछड़े वर्गों के मुख्यमंत्रियों ने बीजेपी की पहचान पिछड़ी जाति के पार्टी के रूप में बना दी.

कांग्रेस बीजेपी से ओबीसी को तोड़ने के लिए लगातार काम कर रही है. ओबीसी नेता पूर्व मंत्री जीतू पटवारी को चुनाव अभियान समिति का सह अध्यक्ष बनाकर उनका कद बढ़ाया. विंध्य अंचल से आने वाले कमलेश्वर पटेल को राष्ट्रीय कार्यसमिति में स्थान दिया. पटेल को विधानसभा चुनाव से जुड़ी सभी समितियों में स्थान देकर ओबीसी वर्ग वर्ग को खुश करने का संदेश दे दिया.प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमल नाथ से विवादों के बाद पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव किनारे लगा दिए गए थे. पर अब मुख्यधारा में उनकी वापसी हो गई है. 
ओबीसी नेता राजमणि पटेल को राज्य सभा भेजना भी इसी रणनीति का एक कदम था. कांग्रेस यह भी कहती है कि कमल नाथ सरकार ने ही नौकरियों में ओबीसी आरक्षण 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत किया था. हालां कि कोर्ट में मामला फंस जाने से लागू नहीं हो सका.  भाजपा सत्ता में आई और 27 प्रतिशत आरक्षण देने के आदेश भी जारी हो गए पर मामला अभी भी उलझा हुआ है. 

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भाजपा का कहना है कि कांग्रेस जब सत्ता में थी तो उसने जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराई?  भाजपा ने तो कभी भी कभी जातिगत जनगणना का विरोध नहीं किया है.अब देखना है कि जाति जनगणना का मुद्दा मध्यप्रदेश में कितना असर दिखाता है.ओबीसी वोटर्स का वोट भी केवल इस मुद्दे पर नहीं पड़ने वाला है कि जातिगत जनगणना कराने का वादा कौन सी पार्टी कर रही है. मध्यप्रदेश के लोकल मुद्दे , भ्रष्टाचार , महिलाओं के लिए चल रहे कल्याण कार्यक्रम आदि भी प्रभावित करेंगे.

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