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अटल बिहारी वाजपेयी के रास्ते से कैसे अलग हो गए नरेंद्र मोदी?

वे सभी चीजें, जिसके आरोप कांग्रेस पर लगाए जाते थे, जिसके लिए कांग्रेस को कोसा जाता था, आज उन सबका पालन बीजेपी में हो रहा है. अपने नए अवतार में बीजेपी स्पष्ट रूप से लंबे समय से चले आ रहे अपने मूल्यों और सिद्धांतों को भूल गई है.

प्रियंका चतुर्वेदी प्रियंका चतुर्वेदी
aajtak.in
  • नई दिल्ली ,
  • 08 जून 2021,
  • अपडेटेड 7:08 PM IST

'चुनावी रास्ते के जरिए अधिनायकवाद स्थापित करने का दुखद विरोधाभास यह है कि लोकतंत्र के हत्यारे जनतंत्र की संस्थाओं का ही-धीरे धीरे, सूक्ष्म रूप से और यहां तक कि कानूनी रूप से इस्तेमाल लोकतंत्र को खत्म करने के लिए करते हैं'- स्टीवन लेविट्स्की

पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार की प्रचंड सत्ता के सात साल पूरे हो रहे हैं, ऐसे में ये याद करने का सटीक मौका है कि कैसे एक पूर्व मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत के संघीय ढांचे की व्यवस्था का प्रबल समर्थक था, और उसने इसी तर्क का प्रयोग करते हुए गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (GST) व्यवस्था को अटकाए रखा था. लेकिन दो बार की ऐतिहासिक जीत के बाद अब उसी शख्स को भारत के संघीय ढांचे को कमजोर करने का जिम्मेदार ढहराया जा रहा है. पश्चिम बंगाल में हुआ टकराव इस दिशा में ताजा उदाहरण है.

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अब जबकि बीजेपी अपनी इच्छा के मुताबिक पावर, चालबाजी और पैसे के दम पर सरकारों को बलात हटाने की कोशिश करती है तो राज्य बनाम केंद्र के संबंध और भी अधिक कलहपूर्ण हो गए हैं. अपने मंसूबे को हासिल करने के लिए इसने राज्यपालों का भी इस्तेमाल किया. हमने इसे महाराष्ट्र में देखा और हाल ही में पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही हुआ. केंद्रीय एजेंसियों के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल का ही नतीजा रहा कि कई राज्यों ने सीबीआई को किसी मामले की जांच के लिए जो पूर्ण अधिकार दे रखे थे उसे उन्होंने वापस ले लिया.

महाराष्ट्र ने देखा कि बीजेपी ने सीबीआई, ईडी, आईटी, एनआईए और एनसीबी का इस्तेमाल राज्य सरकार को शक्तिहीन करने के लिए किया. हालांकि पार्टी इस कोशिश में फेल रही. यहां तक कि हाल ही में चुनाव आयोग को भी राज्यों में चुनाव के दौरान तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा. पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले और इलेक्शन में बीजेपी की हार के बाद हमने देखा कि केंद्र और राज्य के बीच तनाव चरम स्तर पर पहुंच गए थे. केंद्रीय सचिवालय में सेवा दे चुके एक स्पेशल सेक्रेटरी के अनुसार हाल ही में पश्चिम बंगाल से मुख्य सचिव का वापस बुला लिया जाना भारत के प्रशासनिक इतिहास की अभूतपूर्व घटना है. उन्होंने एक अखबार से बात करते हुए न सिर्फ इस घटना को अभूतपूर्व बल्कि प्रतिशोध की भावना से प्रेरित कार्रवाई बताया.

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लोकतंत्र के चार स्तंभ - कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया - एक दूसरे से स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाले माने जाते हैं, लेकिन अब ये सभी अंग एक सर्वशक्तिमान केंद्रीय कार्यपालिका के अधीन कार्य करते प्रतीत हो रहे हैं. भारतीय संविधान भारत को राज्यों का एक संघ कहता है; यह वाक्य स्पष्ट रूप से भारत को राज्यों के संघ के रूप में परिभाषित करता है, हालांकि संविधान ने केंद्र सरकार को राज्यों की तुलना में सुपीरियर रोल अदा करने की शक्ति दी है.

इसका नतीजा ये हुआ कि पिछले सात साल में संविधान की हर खामियों का प्रयोग केंद्र ने राज्यों के ऊपर अपनी अथॉरिटी को स्थापित करने में किया, और इसके परिणामस्वरूप केंद्र और राज्यों के बीच कई तीखे संवादों का आदान-प्रदान हुआ है, विशेष रूप से गैर-भाजपा दलों की नेतृत्व वाली सरकारों के साथ.

देश में बहुदलीय लोकतंत्र का युग तब लोकप्रिय होने लगा जब विभिन्न राज्यों में कांग्रेस का आधिपत्य बिखरने लगा और कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों में विभाजित हो गई. राज्यों के प्रभावशाली छत्रपों ने महसूस किया कि राज्यों के हितों के साथ समझौता किया जा रहा है और उनकी खुद की भागीदारी को भी सीमित कर दिया गया है, क्योंकि उन्हें प्रभावित करने वाले और उनसे संबंधित सभी फैसले एक सशक्त केंद्रीय नेतृत्व से आ रहे हैं.

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कहा जाता है कि जो इतिहास से सबक नहीं सीखते हैं वे इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं. अभी बीजेपी में सत्ता का ऐसा ही घनघोर केंद्रीकरण दिख रहा है. वे सभी चीजें, जिसके आरोप कांग्रेस पर लगाए जाते थे, जिसके लिए कांग्रेस को कोसा जाता था, आज उन्हीं सभी चीजों का पालन यहां हो रहा है. राष्ट्रीय एजेंडे पर राज्यों का चुनाव लड़ा जा रहा है. प्रधानमंत्री के करिश्मे के दम पर सूबों का चुनाव जीता जा रहा है, दिल्ली से राज्यों के मुख्यमंत्री तय हो रहे हैं, या फिर संवैधानिक प्रावधानों का बहाना देकर गैर बीजेपी सरकारें गिराई जा रही है, कांग्रेस पर आपातकाल का आरोप लगाया जाता है लेकिन लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में सभी संवैधानिक संस्थानों को बौना करना भारत का अघोषित आपातकाल है.

कमजोर लोकतंत्र के पहले संकेत तब आते हैं जब फैसले एकतरफा बिना किसी के समर्थन के लिए जाते हैं. या फिर जब बिना विपक्ष को साथ लिए एक व्यापक फीडबैक सिस्टम को बनाए बिना निर्णय किए जाते हैं. नेता प्रतिपक्ष का पद देने से मना कर देना इसी का एक संकेत था. यह न केवल लंबे समय से चली आ रही संसदीय परंपराओं के खिलाफ गया, बल्कि सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने वाली महत्वपूर्ण समितियों में विपक्ष की भूमिका को भी शून्य कर गया. चाहे वह जीएसटी पर यूटर्न हो, बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौता, नोटबंदी, सीएए को लागू करना हो, या फिर हाल ही में इस बात की अनदेखी करना कि राज्यों के दायरे में आने वाले कृषि के मुद्दे पर किसानों के व्यापक विरोध के बावजूद कानून बनाया गया.  

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बीजेपी ने विपक्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है, जो कि किसी भी संसदीय लोकतंत्र का एक समान रूप से महत्वपूर्ण हिस्सा है. यहां तक कि इन्होंने बार-बार विपक्ष का मजाक उड़ाया है. जवाबदेही या पारदर्शिता की किसी भी उम्मीद को ठुकरा दिया जाता है, किसी भी सवाल का उपहास उड़ाया जाता है. यह शासन के लिए एक निरंकुश दृष्टिकोण का प्रतीक है जो सरकार की आलोचना करने वाले किसी भी व्यक्ति को तिरस्कार की दृष्टि से देखता है और सरकार की आलोचना को देश की आलोचना करार दे देता है.

अनियंत्रित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का आगमन, जिनका उपयोग फेक न्यूज और मैनिपुलेटेड नैरेटिव फैलाने के लिए उपकरण के तौर पर किया जाता है, ने संघीय ढांचे की खाई को और चौड़ा किया है. इसने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को भी कमजोर किया है. हालांकि इन प्लेटफार्म्स की पेच कसने की नितांत आवश्यकता है, लेकिन हमें इन पर नियंत्रण करने की बजाय इन्हें जवाबदेह बनाने की जरूरत है जैसा कि केंद्र सरकार ने अभी अपने नए नियमों के माध्यम से किया है. वो पार्टी जिसे इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से सबसे ज्यादा फायदा हुआ, जिसने इस पार्टी को नैरेटिव सेट करने में मदद की, वही पार्टी आज इन्हीं माध्यमों के जरिए स्वयं को एक्सपोज हुआ पाती है.  

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ज्यों ही भारत में पहले कोविड केस की पुष्टि हुई थी, महामारी कानून लागू कर दिया गया था. इस तरह से स्वास्थ्य राज्य का विषय होने के बावजूद कोरोना ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल, दवा, टीकाकरण केंद्र की प्राथमिक जिम्मेदारी बन गई. हालांकि, देश ने ऐसे उदाहरण देखे जहां जब क्रेडिट लेने की बात आई, तो केंद्र सरकार सबसे आगे थी और जब जिम्मेदारी लेने की बात आई तो उंगली राज्य सरकारों पर उठा दी गई. विपक्ष द्वारा किसी भी सकारात्मक फीडबैक का कैबिनेट मंत्रियों द्वारा राजनीतिक रूप से जवाब दिया गया - चाहे वह ऑक्सीजन की किल्लत रही हो, आईसीयू बेड की कमी हो या वेंटिलेटर के लिए मारामारी.  

अब जबकि केंद्र-राज्य के बीच टकराव बार-बार होने लगे हैं, तो समय आ गया है कि शक्ति के संतुलन पर पुनर्विचार किया जाए. राज्यों की स्वायत्तता और राष्ट्रीय एकता का सह-अस्तित्व होना चाहिए. सत्ता के केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण का संतुलन बरकरार रखना होगा. इन दोनों में से किसी का भी अतिशय हमें उन आदर्शों से दूर ले जाएगा जिसकी अभिलाषा हमारे पूर्वजों ने इस राष्ट्र के लिए की थी. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में-'सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए.' अपने नए अवतार में बीजेपी स्पष्ट रूप से लंबे समय से चले आ रहे अपने मूल्यों और सिद्धांतों को भूल गई है.

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