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कांग्रेस के पास हिमाचल प्रदेश में सरकार बचा पाने के कितने विकल्प हैं?

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के लिए स्थिति बेकाबू हो चुकी है. सुखविंदर सिंह सुक्खू के सामने आलाकमान की दी हुई कुछ लकीरें भर हैं, जिन्हें वो शिद्दत से पीट रहे हैं. तो क्या कांग्रेस के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है? मुद्दा ये है कि क्या कांग्रेस विकल्पों पर विचार कर रही है? क्या अमल के लिए तैयार है?

सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाये रखकर कांग्रेस हिमाचल में सरकार नहीं बचा सकती सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री बनाये रखकर कांग्रेस हिमाचल में सरकार नहीं बचा सकती
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 28 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 3:01 PM IST

विकल्प कभी खत्म नहीं होते, भले ही उनका इस्तेमाल न हो पाये. वैसे ही जैसे हर समस्या का समाधान होता है, बस निकाले नहीं जाते या निकल नहीं पाते. ऐसा करने के लिए बड़े ही मुश्किल टास्क को अंजाम देना होता है, और वो इतने मुश्किल होते हैं कि करीब करीब नामुमकिन होते हैं - हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के पास जो भी बचे-खुचे विकल्प हैं, ऐसे ही हैं. 

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मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की तरफ से इस्तीफे की पेशकश की खबर आई तो लगा कि ये कांग्रेस की रणनीति का हिस्सा हो सकता है. हालांकि, सुक्खू ने कुछ देर बाद मीडिया के सामने आकर साफ किया कि इस्तीफा नहीं दिया है. वैसे अगर सुक्खू चाहते तो इस्तीफे की पेशकश से बड़ा संदेश दे सकते थे - और ये संदेश उनके विरोधी गुट के लिए होता. 

हिमाचल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और उनके बेटे को कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से ये मजबूत संदेश होता. सुक्खू के इस्तीफे की पेशकश राज्यसभा चुनाव में क्रॉसवोटिंग करने वाले कांग्रेस के 6 विधायकों के लिए भी मरहम होती - और राज्यसभा चुनाव से पहले तक कांग्रेस सरकार का समर्थन करते आये निर्दलीय विधायकों के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होता. बहरहाल, अब तो सुक्खू की बात ही माननी पड़ेगी, लेकिन बगैर किसी चिंगारी के धुआं तो नहीं उठता. ये भी हो सकता है कि ये किसी और रणनीति का हिस्सा हो.

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अब पूरा दारोमदार दिल्ली से भेजे गये कांग्रेस के दोनों पर्यवेक्षकों पर है. दिल्ली से कांग्रेस ने कर्नाटक के डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को ऑब्जर्वर बना कर शिमला भेजा है. 

कर्नाटक में बीजेपी के दो विधायकों से क्रॉस वोटिंग करा लेने के बाद डीके शिवकुमार का आत्मविश्वास भी बढ़ा हुआ होगा. ऐसे प्रयास तो पहले वो कर्नाटक की जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार को बचाने के लिए भी किये थे, लेकिन हर बार कामयाबी मिलती भी तो नहीं है. हिमाचल प्रदेश में भी डीके शिवकुमार के लिए नया इम्तिहान है.

1. जैसे भी मुमकिन हो, विरोधी गुट को मना लेना ही आखिरी विकल्प है

कांग्रेस के लिए राहत की बात यही है कि हिमाचल प्रदेश में लड़ाई के मैदान से बाहर नहीं हुई है. बागी गुट कांग्रेस नेतृत्व के नेटवर्क के बहुत बाहर नहीं है, थोड़ी गंभीर कोशिश हो तो संपर्क साधा जा सकता है, और समझाने की कोशिश भी हो सकती है. देखा जाये तो मध्य प्रदेश और कर्नाटक के मुकाबले कांग्रेस के हिसाब से स्थिति थोड़ी सी ही सही, बेहतर कही जा सकती है. 

हिमाचल प्रदेश में सरकार बचाने के लिए कांग्रेस आलाकमान के पास फिलहाल एक ही विकल्प है, जैसे भी संभव हो वो हर हाल में वीरभद्र सिंह के परिवार को मना ले. अगर एक्सट्रा प्रयास की जरूरत हो तो कांग्रेस की वो भी कोशिश होनी चाहिये.

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और प्रयास का लेवल भी वही होना चाहिये, जैसा बीजेपी की तरफ से राज्यसभा की एकमात्र सीट जीतने को लेकर हुई थी. हर्ष महाजन को राज्यसभा भेज पाना बीजेपी के लिए काफी मुश्किल था. नंबर का फासला भी बहुत बड़ा था, और कांग्रेस उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंघवी के सामने कोई सीधा खतरा नहीं था. बीजेपी ने उंगली टेढ़ी की और पूरा घी निकाल लिया. घी भी इतना निकल चुका है जिससे लोकसभा चुनाव 2024 में हिमाचल प्रदेश की चारों सीटें फिर से हासिल की जा सकें, और सत्ता पर कब्जा भी जमाया जा सके.

कांग्रेस की तरफ से असंतुष्टों को ऐसी पेशकश होनी चाहिये, जो बीजेपी भी देने की स्थिति में न हो - और विधायकों को भी जो सपने दिखाये गये हों, कांग्रेस की तरफ से किये जाने वाले वादे बीजेपी के किसी भी ऑफर पर भारी पड़ना चाहिये.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह के मंत्रीमंडल से इस्तीफे के बाद तो बिलकुल साफ हो गया कि हालात कांग्रेस की पकड़ से काफी आगे निकल चुके हैं. कांग्रेस को तो ये संकेत तभी समझ लेने चाहिये थे जब विक्रमादित्य सिंह ने राम मंदिर उद्घाटन समारोह में शामिल होने का ऐलान किया था, और अयोध्या जाकर समारोह में शामिल भी हुए. 

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ये ठीक है कि राहुल गांधी ने कांग्रेस के स्टैंड में भूल सुधार भी कर लिया था. पहले कांग्रेस के बयान में कहा गया था कि पार्टी का कोई भी नेता अयोध्या नहीं जाएगा, बाद में राहुल गांधी ने कह दिया कि जिसकी श्रद्धा हो वो जा सकता है. विक्रमादित्य सिंह की ही तरह निर्मल खत्री और आचार्य प्रमोद कृष्णम भी गये ही - और अब तो विक्रमादित्य सिंह भी आचार्य प्रमोद कृष्णम के रास्ते पर भी आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं. 

हिमाचल प्रदेश में चल रहे सियासी तूफान के बीच मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू वास्तव में इस्तीफे की पेशकश किये होते तो विक्रमादित्य सिंह के इस्तीफे के बाद डैमेज कंट्रोल की कोशिश मानी जाती. सुक्खू की पेशकश को वीरभद्र सिंह परिवार और बाकी नाराज विधायकों को मनाने की कोशिश के रूप में ही देखा जा सकता था.

2. कांग्रेस का ऑफर बीजेपी से बहुत बड़ा हो तभी कारगर होगा

हिमाचल प्रदेश में बीजेपी विक्रमादित्य सिंह या प्रतिभा सिंह को एकनाथ शिंदे की तरह मुख्यमंत्री पद का ऑफर दे सकती है - और ऐसा ही ऑफर देकर कांग्रेस बागियों को समझा सकती है कि कांग्रेस में बने रहते उनकी पोजीशन बहुत बेहतर रहेगी, बनिस्बत बीजेपी में चले जाने के बाद की स्थिति के. 

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ऐसे नाजुक वक्त में कांग्रेस की तरफ से वीरभद्र सिंह परिवार को कोई मजबूत संदेश दिया जाना जरूरी हो गया है. संदेश ऐसा कि प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह के सामने नेतृत्व परिवर्तन जैसी कोई उम्मीद की किरण नजर आये, और वे आगे की रणनीति पर फिर से विचार कर सकें. 

शर्त ये है कि कांग्रेस का ऑफर हर हाल में बीजेपी से बहुत बड़ा होना चाहिये - और ये सिर्फ प्रतिभा सिंह या विक्रमादित्य सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया जाना भर ही नहीं है. क्रॉसवोटिंग करने वाले विधायकों को भी संतुष्ट करना उतना ही जरूरी है. 

बेशक ये डील काफी मुश्किल और चुनौतीपूर्ण है, लेकिन समय की डिमांड भी यही है. हालांकि, डील करते वक्त ये भी ध्यान रखना जरूरी होगा कि बैलेंस भी बना रहे. कहीं ऐसा न हो कि प्रतिभा सिंह को मनाने के चक्कर में कांग्रेस की तरफ से ऐसा भी नहीं होना चाहिये कि आने वाले दिनों में सुक्खू ही एकनाथ शिंदे बनने को मजबूर हो जायें.

अगर अभी कोई समाधान निकल भी जाये, तो कांग्रेस नेतृत्व को ऐसे विकल्पों पर भी विचार करना होगा, जो कांग्रेस के दोनों पक्षों को मंजूर हो. जैसे सुक्खू की जगह लेने के मामले में कांग्रेस नेता राजेंद्र राणा और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री के नाम की चर्चा है - ये दोनों भी ठीक न लगें तो कांग्रेस नेतृत्व किसी और के नाम पर भी विचार और पेशकश कर सकता है.

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3. सबक न लेना और नेतृत्व की कमजोरी का नतीजा

असल में हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस नेतृत्व वैसे ही बुरी तरह फंसा हुआ है, जैसे बीते दिनों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में देखने को मिलता था. अशोक गहलोत अपनी काबिलियत से राजस्थान में अपनी सरकार पांच साल चला लिये, लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ तो चूक ही गये - और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का झगड़ा चुनावों में भारी पड़ा. 

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का उलटा एक्सपेरिमेंट किया था. 2018 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट और टीएस सिंह देव की नाराजगी को दरकिनार कर क्रमशः कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाया था. 

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस नेतृत्व को सुखविंदर सिंह सुक्खू में ज्योतिरादित्य और सचिन पायलट की छवि दिखी, और वहां प्रतिभा सिंह को नजरअंदाज कर फैसला लिया. देखा जाये तो कांग्रेस आलाकमान का फैसला ठीक ही था, लेकिन उसके बाद की स्थितियों को संभालने की कोई कोशिश नहीं की गई - जबकि ये सबको पता था कि सुक्खू के विरोधियों के मन में ज्वालामुखी धधक रही है.

और कहां, विक्रमादित्य सिंह और उनके समर्थकों को संतुष्ट करने की कोशिश होती, सुक्खू ने उनको मिले दो में से एक मंत्रालय भी छीन लिया. ये फैसला तो नाराजगी बढ़ाने वाला ही थी, क्योंकि प्रतिभा सिंह अपने समर्थक विधायकों को मंत्री बनाना चाह रही थीं.

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कांग्रेस के सामने हिमाचल प्रदेश में बड़े ही सीमित और मुश्किल विकल्प ही बचे हैं, और समय तेजी से निकलता जा रहा है - अभी तो सब कुछ हादसा जैसा लगता है, लेकिन हकीकत बनने में ज्यादा वक्त नहीं बचा है.

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