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राज्‍यसभा चुनाव नतीजों ने राहुल गांधी और अखिलेश यादव के सामने खड़ी कर दी ये नई चुनौतियां

राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों को राज्यसभा चुनाव में जोरदार झटके झेलने पड़े हैं. हिमाचल प्रदेश में हार के साथ ही राहुल गांधी को तो डबल झटका लगा है, सरकार दांव पर लगी है. सात साल बाद यूपी में हाथ मिलाकर कर चुनाव लड़ने जा रहे हैं दोनों नेताओं के लिए आगे की चुनौतियां भी मिलती जुलती ही हैं.

आपसी सेल्फी में कहीं साथी और पब्लिक बहुत पीछे तो नहीं छूट जा रहे हैं? आपसी सेल्फी में कहीं साथी और पब्लिक बहुत पीछे तो नहीं छूट जा रहे हैं?
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 28 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 8:33 PM IST

राज्यसभा चुनाव के नतीजों में लोकसभा चुनाव 2024 की पहली झलक तो मिल ही गई है - और ये कांग्रेस नेता राहुल गांधी और समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव दोनों के लिए आने वाली चुनौतियों का मजबूत इशारा है.

एक ताजा ओपिनियन पोल भी वैसा ही इशारा कर रहा है, राज्यसभा चुनाव में देखने को मिला है. बेशक सर्वे में अखिलेश यादव की स्थिति कांग्रेस के मुकाबले थोड़ी बेहतर है, लेकिन राहुल गांधी के लिए तो बिलकुल भी अच्छे संकेत नहीं हैं. 

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क्रॉस वोटिंग की बात और है, लेकिन सही नेतृत्व की कमी अपनी जगह है. कहने को तो कर्नाटक में डीके शिवकुमार भी बीजेपी विधायकों से क्रॉस वोटिंग करा लिये, लेकिन हिमाचल प्रदेश और यूपी में जो नमूना नजर आया है, राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों की नेतृत्व पर सवाल उठाने के लिए पर्याप्त है. 

हिमाचल प्रदेश में अलग प्रयोग करके भी कांग्रेस नेतृत्व फेल रहा, और PDA की लगातार रट लगा रहे अखिलेश यादव के पैरों तले जमीन खिसक गई, उनको हवा भी नहीं लगी - न तो वो स्वामी प्रसाद मौर्य को समाजवादी पार्टी छोड़ने से रोक पाये, और न ही मनोज पांडेय को ही साथ रख पाये. 

अब तो जो हाल है, अपने नेताओं को नहीं रोक पा रहे अखिलेश यादव अपने PDA वोटर को साथ रख पाएंगे उसमें भी शक होने लगा है - और यूपी में राहुल गांधी और अखिलेश यादव एक दूसरे को फायदा पहुंचा पाएंगे, भरोसा नहीं हो रहा है. 

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राज्यसभा चुनाव ने नेतृत्व में कमजोरी उजागर कर दी

बीती बातें छोड़ भी दें, तो राज्यसभा चुनाव की क्रॉसवोटिंग ने साफ कर दिया है कि चाहे वो राहुल गांधी हो, या फिर अखिलेश यादव दोनों में से किसी को भी अपने नेताओं का साधना नहीं आया. सिर्फ क्रॉस वोटिंग ही नहीं ये बात तो काफी आगे तक निकल चुकी है. जो हालत यूपी में अखिलेश यादव की पार्टी में दिखा, बिलकुल वही बात हिमाचल प्रदेश में राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस में भी दिखी है. 2022 में चुनाव नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री का नाम फाइनल करते वक्त भी राहुल गांधी को मालूम था कि सुखविंदर सिंह सुक्खू और वीरभद्र सिंह के परिवार में कैसी दुश्मनी है. जो फैसला लिया उसमें भी कोई बात नहीं, लेकिन उसके बाद राहुल गांधी या उनके साथी नेताओं की तरफ से ऐसा कोई उपाय किया गया जिससे चीजों को बैलेंस किया जा सके. ये राहुल गांधी की ही जिम्मेदारी बनती है कि दोनों गुटों को साथ रख सकें, और जो फैसला लिया है उसे सख्ती से पालन करायें - लेकिन कोई सुने तब तो!

एक झटके में एक एक करके तीन महत्वपूर्ण नेताओं ने अखिलेश यादव का साथ छोड़ दिया है. सबसे ज्यादा चर्चा तो मनोज पांडे और स्वामी प्रसाद मौर्य की हो रही है, लेकिन साथ तो पल्लवी पटेल ने भी लगभग छोड़ ही दिया है.

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ये ठीक है कि पीडीए के नाम पर पल्लवी पटेल ने समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी रामजी लाल सुमन को वोट दिया है, लेकिन यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चुनाव के लिए धन्यवाद देकर अपना संदेश भी भेज दिया है. वोटिंग के ठीक पहले जिस तरह से अखिलेश यादव और पल्लवी पटेल की गर्मागर्म बहस हुई थी, तभी साफ हो गया था कि साथ का सफर खत्म हो चुका है. फिर भी सपा उम्मीदवार को वोट देकर पल्लवी पटेल ने अखिलेश यादव को आईना दिखाने की कोशिश की है - और इसीलिए उनकी तारीफ भी हो रही है. 

गुटबाजी तो हर पार्टी में होती है. क्या बीजेपी में नहीं है? और यूपी बीजेपी में तो कई खेमे बने हुए हैं, लेकिन अंदर की कितनी बातें बाहर आ पाती हैं. गोरखपुर या कहीं कहीं से एकाध ऑडियो क्लिप के वायरल हो जाने को तो नजरअंदाज भी किया जा सकता है. 

समाजवादी पार्टी में तो काफी दिनों से गुटबाजी चल रही थी, कुछ दिनों से तो झगड़ा ज्यादा ही बढ़ गया था. एक खेमा स्वामी प्रसाद मौर्य की बयानबाजी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए था, तो दूसरा गुट उनके समर्थन में खड़ा था. एक अलग गुट मनोज पांडेय के साथ काम कर रहा था. 

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मनोज पांडेय के समाजवादी पार्टी विधानमंडल दल का मुख्य सचेतक पद छोड़ने पर अखिलेश यादव का कहना था, 'अभी तक वे कद्दावर नेता लग रहे थे... लेकिन कद्दावर नेता निकले नहीं.  

लेकिन अखिलेश यादव न तो स्वामी प्रसाद मौर्य की सनातन पर अनाप शनाप बयानबाजी रोक पा रहे थे, और न ही मनोज पांडेय को स्वामी प्रसाद मौर्य को विक्षिप्त कहने पर कुछ बोल रहे थे. हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और बारी बारी दोनों साथ छोड़ कर चल दिये - न माया मिली न राम.

न माया मिली, न राम

चुनावी जीत के लिए बीजेपी पर हर हथकंडे अपनाने का आरोप लगाने वाले अखिलेश यादव कहते हैं, मुख्यमंत्री फोन कर रहे है... दिल्ली से फोन आ रहा है... हमारे पास देने को कुछ नहीं है.

अगर सत्ता में होने पर ही कुछ दिया जा सकता है, और अखिलेश यादव ऐसा ही मानते हैं तो क्या कहा जाये भला. राजनीति तो विपक्ष में रह कर भी होती है. चुनावों के दौरान ऐसा अक्सर होता है कि कुछ नेता इधर से उधर चले जाते हैं, लेकिन समाजवादी पार्टी में हो जो हुआ है, वो बिलकुल अलग है.

ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव के सारा जोर PDA समीकरण पर डाल देने के चलते सवर्ण नेता नाखुश हो गये, और पीडीए नेताओं का असंतोष भी वो नहीं रोक सके. पीडीए के नाम पर जो सवाल उठ रहा है, वो दलील तो सही है. 

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समाजवादी पार्टी में जया बच्चन और आलोक रंजन के नाम को लेकर जोरदार विरोध चल रहा था, अखिलेश यादव ने परवाह नहीं की. ये भी ठीक है कि जया बच्चन की जीत के साथ सवाल उठाने वालों को जवाब भी दे दिया, लेकिन सवाल इतने से खत्म तो नहीं हो जाते. 

एक सवाल ये भी उठ रहा है कि अगर सबसे ज्यादा मुस्लिम वोटर का सपोर्ट समाजवादी पार्टी को है तो राज्य सभा चुनाव में कोई मुस्लिम उम्मीदवार क्यों नहीं था? अखिलेश यादव का अपना स्टैंड होगा, लेकिन उससे सवाल तो नहीं खत्म हो जाते. सवाल को खत्म करने के लिए सही जवाब की जरूरत होती है - लेकिन अखिलेश यादव ने सिवा बीजेपी पर सारा दोष मढ़ देने के ऐसा कुछ किया.

अब तो ये पूरी तरह साफ हो गया है कि जाति की भागीदारी पर कथनी और करनी का अंतर नहीं चलेगा. अखिलेश यादव पीडीएक की बात करते हैं, लेकिन न तो पल्लवी पटेल और स्वामी प्रसाद को साथ रख पाये, न ही मनोज पांडेय को रोक पाये. PDA कौन कहे, अब तो लगता है अखिलेश यादव सिर्फ यादवों के नेता रह जाएंगे.

ओपिनियन पोल के नतीजे तो खतरनाक लगते हैं

एक टीवी चैनल और सीएनएक्स ने अपने ओपिनियन पोल के जो नतीजे बताये हैं, अखिलेश यादव और राहुल गांधी दोनों के आंख खोल देने वाले हैं. बताते हैं कि ओपिनियन पोल में 1.60 लाख लोगों ने हिस्सा लिया है. 

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नतीजों पर राम मंदिर का सीधा प्रभाव लग रहा है. सर्वे के मुताबिक, बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को लोक सभा चुनाव में 80 में से 78 सीटें मिल सकती हैं. 2014 में ये संख्या 73 थी, लेकिन 2019 में घट गई थी. 

सर्वे के अनुसार यूपी में समाजवादी पार्टी को सिर्फ दो सीटों पर जीत मिलने की संभावना है. और ये सीटें मैनपुरी और आजमगढ़ में जीत मिल सकती है. मैनपुरी से फिलहाल डिंपल यादव सांसद हैं - और आजमगढ़ से अखिलेश यादव के फिर से चुनाव लड़ने की चर्चा चल रही है. अगर ऐसा हुआ तो समाजवादी पार्टी 2014 के बाद से सबसे ज्यादा नुकसान में रहेगी. पिछले दोनों ही चुनावों में समाजवादी पार्टी को 5-5 लोक सभा सीटें मिली थीं. 

कांग्रेस नेतृत्व के लिए तो सर्वे से और भी बुरी खबर है. सर्वे के मुताबिक, लोक सभा चुनाव में न तो कांग्रेस और न ही बीएसपी का ही खाता खुल पाने की संभावना है - तो क्या राहुल गांधी और अखिलेश यादव हाथ मिला कर भी न तो एक दूसरे के लिए कुछ कर पाएंगे, न अपने अपने लिये ही?

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