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क्या अब राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के बारे में भी सोचने लगे हैं? 

राहुल गांधी की राजनीति में अचानक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है. संसद में एक्टिव होने के साथ साथ जिस तरह वो विपक्षी खेमे के नेताओं से भी संवाद कर रहे हैं, और ऐन उसी वक्त कांग्रेस नेताओं से भी मिल रहे हैं, पहले कभी देखने को नहीं मिला है - आखिर कौन है इस बदलाव के पीछे?

लगता है राहुल गांधी को राजनीति में मजा आने लगा है. लगता है राहुल गांधी को राजनीति में मजा आने लगा है.
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 28 जून 2024,
  • अपडेटेड 7:52 PM IST

क्या राहुल गांधी को राजनीति में मजा आने लगा है? या फिर, जो कुछ भी कर रहे हैं, टारगेट सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना भर है?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी अब तक तो यही बताते और समझाते रहे हैं कि उनको राजनीति, खासकर सत्ता की सियासत, में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं है - और अपनी बात के पक्ष में वो ऐसे संकेत देते रहे हैं, जैसे राजनीति से परे उनको लगता है कि बहुत कुछ करना बाकी है.
 
बहुत कुछ करने के लिए ही वो यूपीए के दस साल केंद्र की सत्ता में होने के बाद भी सरकार में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हुए. वैसे वो चाहते तो प्रधानमंत्री भी बन सकते थे, कोई रोक सकता था क्या?

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किसानों के बीच पहुंचकर उनकी समस्याओं को समझना और फिर संसद में कलावती की कहानी सुनाना, दलितों के घरों में जाना और खाते पीते उनका हाल जानने की कोशिश करना - क्या ये सब काम ही राहुल गांधी करना चाहते थे?

क्या दागी नेताओं के लिए मददगार साबित होने वाले कैबिनेट की मुहर से लैस ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़ कर फेंक देना भी राहुल गांधी के ऐसे कामों की लिस्ट में शामिल रहा होगा? और क्या जनेऊधारी हिंदू शिव भक्त छवि गढ़ने के लिए कांग्रेस नेताओं को मंजूरी देना भी ऐसे कामों की सूची का हिस्सा रहा होगा?

और सबसे बड़ा सवाल, क्या राहुल गांधी अपने हिसाब से अब वो सारे काम पूरा कर चुके हैं, जो वो करना चाहते थे. या फिर आइडिया होल्ड कर लिया है, क्योंकि ऐसा लगने लगा है कि बगैर सत्ता में आये कुछ काम हो भी नहीं सकते.

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तो क्या अब राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के बारे में भी सोचने लगे हैं? 

राहुल गांधी कितना बदल पाये हैं?

1. विपक्ष का नेता बनने को तैयार हो जाना

ये राहुल गांधी ही हैं जो पहले कभी भी छुट्टी ले लेते थे, महत्वपूर्ण मौके हों या चुनाव कैंपेन बीच में ही छोड़कर विदेश दौरे पर चले जाया करते थे - लेकिन भारत जोड़ो यात्रा और उसके बाद भारत जोड़ो न्याय यात्रा पूरा करने के बाद से सब कुछ काफी बदला बदला नजर आ रहा है.

वरना, 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष बन गये, और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा भी दे दिये - कभी कभी तो लगता है, जैसे राहुल गांधी तब इस्तीफे के लिए ठोस बहाना चाहते थे, और वो एकाएक मिल भी गया. 

लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आने के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी ने राहुल गांधी के नेता प्रतिपक्ष बनने को लेकर प्रस्ताव पारित जरूर किया था, लेकिन किसी को भरोसा नहीं था कि वो ये जिम्मेदारी लेना चाहेंगे - लेकिन सारे कयासों को किनारे करते हुए राहुल गांधी विपक्ष के नेता बन चुके हैं, और अपनी जिम्मेदारी निभा भी रहे हैं. 

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2. कांग्रेस नेताओं से मिलना, और सख्त लहजे में पेश आना

अभी तक तो कांग्रेस नेताओं और राहुल गांधी की मुलाकात को लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के सुनाये किस्से ही ध्यान में आते थे, लेकिन हरियाणा कांग्रेस के नेताओं से हुई ताजा मुलाकात ने तो लगता है पुरानी धारणा ही खत्म कर डाली है. 

खबर है कि मल्लिकार्जुन खरगे और भूपेंद्र सिंह हुड्डा सहित हरियाणा कांग्रेस के नेताओं की मीटिंग राहुल गांधी भी मौजूद थे, और बात बात पर जिद पर उतर आने वाले सभी नेता स्कूली बच्चों की तरह अनुशासित नजर आये - और उनको साफ साफ बता दिया गया कि एकजुट होकर काम करोगे तो निश्चित रूप से हरियाणा में कांग्रेस की सरकार बनेगी. हरियाणा में करीब तीन महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. 

कहते हैं कि राहुल गांधी की क्लास के बाद हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्‌डा ने बस इतना ही कहा, 'हम चुनाव के लिए तैयार हैं... एकजुट होकर चुनाव लड़ेंगे... मीटिंग बहुत अच्छी रही.' 

लोकसभा चुनाव से पहले ऐसे ही राहुल गांधी ने यूपी कांग्रेस के नेताओं की भी क्लास ली थी, और तेलंगाना कांग्रेस के नेताओं की तरह महत्वाकांक्षी बनने की नसीहत दी धी. 

3. ममता को फोन करना और मना लेना

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो पहले से ही इंडिया गठबंधन में लुकाछिपी का खेल खेल रही थीं, स्पीकर चुनाव से पहले के. सुरेश के रूप में कांग्रेस के अपना उम्मीदवार उतार देने के बाद वो फिर से नाराज हो गईं. टीएमसी महासचिव अभिषेक बनर्जी ने बोल दिया था, हमारी पार्टी से कोई सलाह नहीं ली गई है... किसी ने हमसे संपर्क नहीं किया... ये एकतरफा फैसला है.

जैसे ही राहुल गांधी को ये बात मालूम हुई, फौरन ही ममता बनर्जी को फोन किये, करीब बीस मिनट की बातचीत में सब कुछ सामान्य हो गया - और कांग्रेस की तरफ से बताया गया कि ममता बनर्जी मान गई हैं. 

क्या पहले राहुल गांधी के बारे में ऐसी कोई बात सुनने को मिली है? असल में, ये भी उनके अंदर आये बदलाव का ही बेहतरीन नमूना है. 

4. स्पीकर से मिलना और इमरजेंसी पर आपत्ति जताना

ज्याादा पहले की बातें छोड़ भी दें, तो पिछली लोकसभा में राहुल गांधी एक दिन आये, और अपने फेवरेट शगल कारोबारी गौतम अडानी के बिजनेस पर लंबा चौड़ा भाषण देकर निकल लिये - उसके बाद संसद में क्या हुआ, क्या नहीं हुआ, राहुल गांधी को कोई मतलब नहीं रहा - हो सकता है, किसी करीबी नेता ने उनसे चर्चा की हो, लेकिन बाहर निकलकर तो ऐसा कुछ आया नहीं.

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लेकिन ये बदलाव की मिसाल नहीं तो क्या है, लोकसभा में इमरजेंसी की निंदा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित एनडीए के सांसदों का खड़े होकर मौन रखने को लेकर राहुल गांधी स्पीकर से मिलने चले गये - बातचीत की और अपनी शिकायत भी दर्ज कराई. 

राहुल गांधी ने, रिपोर्ट के मुताबिक, स्पीकर ओम बिरला से कहा कि सदन में इमरजेंसी का जिक्र एक राजनीतिक कदम था, और उससे बचा भी जा सकता था. 

वो है कौन जिसने राहुल गांधी को पूरी तरह बदल डाला

अब तो ये सवाल भी उठता है कि आखिर राहुल गांधी में एक साथ आये इतने बदलाव के पीछे कौन है? क्या राहुल गांधी ने खुद अपने में बदलाव की जरूरत महसूस की, और उसके हिसाब से काम कर रहे हैं? 

क्या राहुल गांधी को सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने समझाने की कोशिश की है, और इस बार ये कोशिश सफल रही है - या देश के राजनीतिक हालात ऐसे बन गये जिसकी वजह से राहुल गांधी राजनीति को लेकर गंभीर हो गये हैं. 

1. क्या भारत जोड़ो यात्रा का कोई असर है : जब कांग्रेस की भारत जोड़ा यात्रा शुरू हुई तो जल्दी किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि राहुल गांधी पूरी यात्रा में बने रहेंगे. राहुल गांधी ने ऐसी सारी आशंकाओं को अपने एक्शन से खारिज कर दिया. ऊपर से, भारत जोड़ो न्याय यात्रा पूरी कर ये तो जता ही दिया कि वो गंभीर होने लगे हैं. 

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बीजेपी नेता उनकी टी-शर्ट से लेकर तमाम चीजों का मजाक उड़ाते और राहुल गांधी की राजनीति को टाइमपास साबित करने की कोशिश करते रहे, लेकिन राहुल गांधी अपने मिशन में लगे रहे. तब भी जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी, तब भी जब नीतीश कुमार फिर से एनडीए में चले गये - और तब भी जब अखिलेश यादव न्याय यात्रा के दौरान बोलकर भी अमेठी या रायबरेली नहीं पहुंचे.

चुनाव कैंपेन के दौरान राहुल गांधी यात्रा से जुड़े अपने अनुभव सुनाते भी रहे, लेकिन अब जाकर लग रहा है कि यात्राओं का राहुल गांधी पर खासा असर हुआ है - और हो सकता है, राहुल गांधी में आये बदलाव की ये भी एक बड़ी वजह हो. 

2. क्या चुनाव में कांग्रेस को मिले समर्थन से ऐसा हो रहा है : चुनावी कामयाबी की तो बात ही और होती है. ये ठीक है कि कांग्रेस या इंडिया गठबंधन को लोगों ने सत्ता नहीं सौंपी, लेकिन एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी तो दी ही है - हो सकता है, राहुल गांधी जनादेश का सम्मान करते हुए गंभीर होकर राजनीति करने के लिए तैयार हुए हों.

3. कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी ही जिम्मेदार है : कहते हैं कि देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय स्तर पर उभार के कई कारणों में से एक कांग्रेस खुद भी रही है. लेकिन कांग्रेस की वो यूपीए सरकार नहीं जो दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही, बल्कि मोदी को लेकर कांग्रेस नेताओं के विवादित बयान हैं.

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सोनिया गांधी के 'मौत का सौदागर' कहने से लेकर मणिशंकर अय्यर के 'चायवाला' बताने तक - ऐसी कई चीजों ने ऐसा माहौल बना दिया कि राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का आभामंडल फैलता गया - और 2014 के आम चुनाव में मोदी को देश के लोगों ने हाथों हाथ लिया.

क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि बीजेपी भी कांग्रेस जैसी ही राजनीतिक गलती दोहरा रही है? राहुल गांधी को इतना टारगेट किया गया कि लोगों पर उलटा ही असर होने लगा? आखिर 10 साल के अंतर पर दो लोकसभा चुनावों के नतीजे मिलते जुलते क्यों लग रहे हैं?

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