
मथुरा में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठक के बीच से एक ऐसी खबर आई है जिसमें राहुल गांधी का खासतौर पर जिक्र है. ये बात अपनेआप में काफी अजीब है क्योंकि राहुल गांधी तो लगातार संघ के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाये रहते हैं.
राहुल गांधी तो RSS से जुड़े एक मानहानि केस में ट्रायल भी फेस कर रहे हैं. ये केस महाराष्ट्र के भिवंडी कोर्ट में चल रहा है. संघ के एक कार्यकर्ता की तरफ से राहुल गांधी के खिलाप IPC की धारा 499 और 500 के तहत केस दर्ज कराया था - और इल्जाम लगाया है कि राहुल गांधी ने 2014 में संघ पर महात्मा गांधी की हत्या का आरोप लगाया था.
राहुल गांधी का कहना है कि संघ और बीजेपी के साथ उनकी विचारधारा की लड़ाई है, और इस काम में सक्षम वो देश के क्षेत्रीय दलों को भी नहीं मानते क्योंकि उनका मानना है कि कांग्रेस की तरह क्षेत्रीय दलों के पास कोई विचारधारा नहीं है.
ऐसे में ये समझ पाना मुश्किल हो रहा है कि राहुल गांधी संघ के कट्टर विरोधी होने के बावजूद संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले को क्यों लगता है कि कांग्रेस नेता से मिलना चाहिये. भले ही वो कह रहे हों कि संघ के लोग तो सभी से मिलते रहते हैं. भले ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भी संघ के नेताओं के संपर्क में होने की बातें सुनी जाती रही हैं, लेकिन राहुल गांधी के रुख से तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता कि वो संघ के लोगों से मिलने के लिए कभी राजी होंगे भी.
जून, 2018 में संघ के बुलाने पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी नागपुर के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे. प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने से पहले कांग्रेस नेताओं की तरफ से जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी. यहां तक कि उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी को भी ये नागवार गुजरा था.
दत्तात्रेय होसबले को कोई खास संकेत मिला है क्या? या, बस यूं ही कांग्रेस की तरफ संघ की तरफ से कोई पासा फेंका गया है?
राहुल गांधी से क्यों मिलना चाहता है संघ?
मथुरा में हुई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठक के बाद मीडिया से सवाल जवाब के बीच राहुल गांधी को लेकर दत्तात्रेय होसबले ने कहा, 'आप नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान चलाना चाहते हैं, पर मिलना नहीं चाहते हैं... हम तो सबसे मिलना चाहते हैं.'
लेकिन राहुल गांधी तो ऐसी बातों से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते. वो अक्सर ही कहते रहते हैं, 'मैं आरएसएस के दफ्तर में कभी नहीं जा सकता... चाहे आप मेरा गला काट दें.'
ये बात तब निकल कर सामने आई, जब दत्तात्रेय होसबले से 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले संघ और बीजेपी के बीच मतभेद की खबरों पर सवाल पूछे गये थे. दत्तात्रेय होसबले का कहना था, 'हम हर राजनीतिक दल के नेताओं... हर उद्योगपति, विभिन्न समुदायों के हर नेता से मिलते हैं... हमारा किसी के साथ कोई तनाव नहीं है, चाहे वो भाजपा नेता हों, कांग्रेस या अन्य संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग हों... मैं यहां नाम नहीं लेना चाहता क्योंकि ये अलग खबर बन जाएगी.'
राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी के संघ नेताओं के संपर्क में होने की बात कई जगह कही गई है. सीनियर पत्रकार नीरजा चौधरी की किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में संघ और इंदिरा गांधी के रिश्तों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है.
किताब में दावा किया गया है कि इंदिरा गांधी और संघ के कई नेताओं के आपसी संबंध अच्छे थे, लेकिन निजी तौर पर दोनों तरफ से एक खास दूरी भी बनाकर रखी गई थी. उसी किताब में ये भी कहा गया है कि संघ के नेताओं ने मदद के लिए इंदिरा गांधी से संपर्क किया था, और बदले में पूर्व प्रधानमंत्री ने भी अपने हिसाब से संबंधों का इस्तेमाल भी किया था - और ये फ्रेंडली रिश्ता इमरजेंसी के दौरान भी दोनो पक्षों के बीच बना रहा.
नीरजा चौधरी लिखती हैं, ‘तत्कालीन संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस ने कई बार उनको पत्र भी लिखा था... संघ के कुछ नेताओं ने कपिल मोहन के जरिये संजय गांधी से भी संपर्क किया.
कांग्रेस के प्रति मुस्लिम समुदाय में नाखुशी की आशंका से इंदिरा गांधी अपनी राजनीति में हिंदुत्व वाला टच देना चाहती थीं. वो इस बात के लिए भी सतर्कता बरतती थीं कि संघ की गुपचुप हामी या उसका न्यूट्रल रहना भी मददगार हो सके.
राहुल गांधी का स्टैंड इंदिरा से अलग है
संघ के प्रति राहुल गांधी और इंदिरा गांधी के विचार बिलकुल नहीं मिलते, और इसकी वजह दोनो की राजनैतिक स्थितियों का अलग होना भी है. ये तब की बात है जब इंदिरा गांधी सत्ता पर काबिज थीं, और राहुल गांधी सत्ता हासिल करने के लिए लगातार संघर्षरत हैं. इंदिरा गांधी के दौर में हिंदुओं के पास मजबूत नेतृत्व का अभाव था. ऐसे में इंदिरा संघ के जरिये हिंदुओं के बीच भी पैठ बनाना चाहती थीं. और वो काफी हद तक कामयाब भी रहीं. लेकिन, राहुल गांधी के पास ऐसे समय में कांग्रेस का नेतृत्व आया जब हिंदुओं के पास भाजपा, खासकर मोदी जैसा मजबूत नेतृत्व मौजूद है.
एकजुट हिंदुओं से नाउम्मीद राहुल ऐसे में मुसलमानों और ऐसे जनसमुदाय को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं, जो हिंदू और हिंदुत्व की संज्ञा से परहेज रखता हो. यानी उनका फोकस ऐसे हिंदुओं से है, जो संघ और संघ के हिंदुत्व की परिभाषा से खुद को बाहर रखना चाहते हैं.
इंदिरा गांधी जहां संघ को साधकर हिंदुओं से जुड़ना चाहती थीं, तो राहुल संघ से परे जाकर. हो सकता है, कभी सत्ता में आने के बाद राहुल गांधी का विचार भी संघ के प्रति बदल जाये, लेकिन अभी तो बिलकुल भी नहीं लगता - और ऐसा तो कतई नहीं लगता कि वो संघ के नेताओं से मिलना भी चाहेंगे.
ऊपर से तो ऐसा ही मालूम होता है, अब अगर अंदर ही अंदर कोई परिस्थिति बनाई जा रही हो तो बात अलग है. राहुल गांधी भले अपने भाषणों में मोहब्बत की दुकान खोलने की बात करें, लेकिन संघ के मामले में उनका विषवमन जारी रहेगा.