
राहुल गांधी ने वायनाड के प्रभाव से रायबरेली को बचाने के लिए जितने भी जतन किये थे, अमेठी के असर से रायबरेली को बचाने की कोशिश कहीं ज्यादा मुश्किल लगती है - क्योंकि सियासत का बहुत सारा खेल तो अब नैरेटिव का हो गया है.
और नैरेटिव भी मजबूत संगठन और जमीनी कार्यकर्ताओं के बूते कोई लोकप्रिय नेता ही आगे बढ़ा पाता है - और राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की जंग इस बात का बेहतरीन उदाहरण है.
2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी ने अपनी तरफ से खास नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ 'चौकीदार चोर है' स्लोगन के साथ - लेकिन चूक गये, और नतीजा ये हुआ कि अमेठी तक गंवा बैठे.
वो तो वायनाड ने संभाल लिया, और मुमकिन है आगे भी संभाल ले. नामांकन से लेकर वोटिंग होने तक, वायनाड को लेकर कांग्रेस की तरफ से जिस तरह की सावधानी बरती गई है, सब कुछ एक हर किसी के सामने है.
रायबरेली पर गांधी परिवार का कब्जा बनाये रखने की बहुत बड़ी चुनौती है राहुल गांधी के सामने - और उससे भी बड़ी चुनौती होगी रायबरेली और वायनाड में से किसी एक को चुनने की - बशर्ते, राहुल गांधी दोनों लोकसभा सीटों से जीत जाते हैं.
कितना मुश्किल होगा दोनों में से किसी एक सीट को चुन पाना?
अमेठी के लिए तो कांग्रेस नेतृत्व ने एक नाइट वॉचमैन तैनात कर ही दिया है. किशोरी लाल शर्मा जीत गये तो बल्ले बल्ले, हार गये तो भी कोई मलाल नहीं - अमेठी का इंतजाम तो हो गया, लेकिन रायबरेली और वायनाड की समस्या काफी बड़ी लगती है.
जो हाथ से जा चुका है, उससे ज्यादा भला क्या जाएगा? अमेठी का मामला तो करीब करीब ऐसा ही है. अब तो बचे हुए पूरे चुनाव में कांग्रेस के लिए सबसे महत्वपूर्ण सीट रायबरेली ही है.
ये तो नामांकन के समय से ही नजर आने लगा है. सोनिया गांधी से लेकर रॉबर्ट वाड्रा तक हर कोई पहुंचा हुआ था - और अब सब के सब वहीं डेरा डालने की तैयारी में भी हैं.
प्रियंका गांधी वाड्रा तो शुरू से ही अमेठी और रायबरेली में कैंपेन की जिम्मेदारी संभालती रही हैं. ये बात अलग है कि 2019 में जब कांग्रेस महासचिव बना कर जिम्मेदारी सौंपी गई तो अपयश हाथ लगा. अब रायबरेली का चैलेंज है. पूरी ताकत झोंक दी गई है.
कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल को रायबरेली के लिए सीनियर ऑब्जर्वर बनाया है. 2022 के यूपी चुनाव से लेकर हिमाचल प्रदेश तक वो प्रियंका गांधी के साथ वैसे ही साया की तरह बने हुए थे, जैसे 2017 के चुनाव में अशोक गहलोत राहुल गांधी के साथ गुजरात चुनाव में.
भूपेश बघेल खुद भी छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरे हुए हैं. कांग्रेस की पहली ही लिस्ट में केसी वेणुगोपाल के साथ उनका नाम शामिल था, ताकि दूसरे सीनियर नेताओं को चुनाव लड़ने की प्रेरणा दी जा सके. मुश्किल तो ये है कि कोई प्रेरणा लेने को तैयार हो तब तो - आलम तो ये है कि कैंडिडेट सूची में जिनके नाम शामिल किये जाते हैं, वे अपनी उम्मीदवारी ही किसी न किसी बहाने वापस ले लेते हैं - सूरत से पुरी तक एक जैसी ही कहानी है.
भूपेश बघेल से चुनाव लड़ने की प्रेरणा नहीं लेने वाले अशोक गहलोत को अमेठी के लिए ऑब्जर्वर बनाया गया है. ये भी अशोक गहलोत की अपनी हैसियत की वजह से ही है, क्योंकि उनकी ही राह चल रहे कमलनाथ तो छिंदवाड़ा से बाहर कहीं सीन में भी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं.
वैसे चुनाव नहीं लड़ने वालों की लिस्ट में तो प्रियंका गांधी का भी नाम जोड़ा ही जा रहा है. रायबरेली और अमेठी के उम्मीदवारों की घोषणा के वक्त ये बताया गया कि प्रियंका गांधी खुद को चुनाव प्रचार तक सीमित रखेंगी, और आगे का प्लान कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने भी बता ही दिया है - प्रियंका गांधी तो कोई भी उपचुनाव जीत कर संसद पहुंच सकती हैं.
और अभी से बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है कि प्रियंका गांधी कौन सा उपचुनाव जीत कर संसद पहुंचेंगी - रायबरेली से या वायनाड से?
बार बार एक ही सवाल खड़ा हो जाता है - अगर राहुल गांधी दोनों सीटों से चुनाव जीत गये तो छोड़ेंगे किसे, और अपने पास रखेंगे किसे? जब सोनिया गांधी 1999 में अमेठी के साथ साथ बेल्लारी से पहला लोकसभा चुनाव लड़ी थीं, दक्षिण भारत के मुकाबले उत्तर भारत को तरजीह दी थी. कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट पर बीजेपी की जानी मानी नेता सुषमा स्वराज को शिकस्त देने के बाद भी इस्तीफा दे दिया था - क्योंकि रायबरेली को पास रखना था.
सवाल है कि राहुल गांधी मां के दिखाये रास्ते पर ही चलेंगे या कांग्रेस को कोई नया रास्ता दिखाएंगे?
कहने का मतलब ये है कि दक्षिण भारत की राजनीति को ही तरजीह देंगे या उत्तर भारत की तरफ फिर से रुख करेंगे? 2021 के केरल विधानसभा चुनाव में तो राहुल गांधी अपनी राय जाहिर कर ही चुके हैं कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत के लोगों की राजनीतिक समझ बेहतर होती है. और ये बात राहुल गांधी ने अमेठी में अपने राजनीतिक अनुभव के आधार पर ही बताया था - लेकिन अब वो रायबरेली और अमेठी दोनों को ही अपना परिवार बताने लगे हैं.
मुश्किल तो होगा ही राहुल गांधी के लिए रायबरेली और वायनाड में से किसी एक को चुनने का फैसला - और वो फैसला भविष्य के हिसाब से सही होता है या गलत ये भी किसी की राजनीतिक समझ पर ही निर्भर करता है. एरर ऑफ जजमेंट तो कई बार संदेह का लाभ लेने जैसा ही होता है.
राहुल गांधी के लिए रायबरेली और वायनाड की अहमियत
रायबरेली लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल करने के बाद राहुल गांधी ने सोशल साइट X पर अपनी बात रखी थी. रायबरेली से नामांकन को राहुल गांधी भावुक पल बताया, और कहा - 'मेरी मां ने मुझे बड़े भरोसे के साथ परिवार की कर्मभूमि सौंपी है... और उसकी सेवा का मौका दिया है.
अमेठी और रायबरेली के बारे में लिखा था, अमेठी और रायबरेली मेरे लिए अलग-अलग नहीं हैं, दोनों ही मेरा परिवार हैं.
अपने लिए वोट मांगते हुए कहा था, अन्याय के खिलाफ चल रही न्याय की जंग में... मैं, मेरे अपनों की मोहब्बत और उनका आशीर्वाद मांगता हूं... मुझे विश्वास है कि संविधान और लोकतंत्र को बचाने की इस लड़ाई में आप सभी मेरे साथ खड़े हैं.
राजस्थान के रास्ते राज्यसभा के सफर पर निकल जाने के बाद सोनिया गांधी ने रायबरेली के लोगों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी. चिट्ठी में सोनिया गांधी ने वहां के लोगों के साथ बरसों पुराने खानदानी रिश्ते की दुहाई देते हुए, अपील और अपेक्षा की थी कि ये सिलसिला आगे भी जारी रहना चाहिये.
और राहुल गांधी के नामांकन के वक्त चिट्ठी की ही बातें याद दिलाने के लिए सोनिया गांधी रायबरेली में मौजूद थीं. पूरे परिवार के साथ. बेटा, बेटी और दामाद के साथ. लोगों से रिश्ते को जोड़े रखने के लिए. रिश्ते की गर्मी को बनाये रखने के प्रयास में.
और वही रिश्ता सोनिया गांधी ने अपने ही हाथों राहुल गांधी को सौंप दिया है. ये रिश्ता ही गांधी परिवार की राजनीतिक विरासत है, जिसे सोनिया गांधी ने बेटे को सौंपा है. वैसे भी भारतीय राजनीति में वारिस तो बेटा ही होता है. बेटी तो तब होती है, जब बेटे की जगह भाई या भतीजा बरसों बरस हर वक्त खंभे की तरह खड़ा रहता है. और आखिर में हर कोई अजीत पवार नहीं हो पाता. बाकी सभी का हाल शिवपाल यादव और पशुपति कुमार पारस जैसा ही होता है.
राहुल गांधी चुनावी माहौल में भले ही रायबरेली और अमेठी को अपना परिवार बताने लगे हों, लेकिन पांच साल से तो वायनाड को ही अपने बचपन से जोड़ कर पेश कर रहे थे - और ये बात न तो रायबरेली के लोग भूलेंगे, न ही वायनाड के लोग.
राजनीति में दिलचस्पी और ऐसी गतिविधियों पर नजर रखने वाले कुछ लोग कह रहे हैं कि राहुल गांधी वायनाड को अपने पास रखेंगे. और दलील ये दी जा रही है कि केरल में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.
2021 में पी. विजयन ने केरल के दो गठबंधनों के बारी बारी सत्ता पर काबिज होने वाली कहानी को री-राइट कर डाला था, सत्ता में वापसी करके. लेकिन बार बार तो ऐसा होने से रहा. केरल में बीजेपी की कमजोर पकड़ को देखते हुए ये माना जा रहा है कि कांग्रेस के लिए अगली बार पूरा स्कोप है.
बात में दम तो है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि केरल में विधानसभा चुनाव होने में दो साल का वक्त है. और 2026 में अगर केरल में चुनाव है, तो उसके अगले ही साल 2027 फिर से यूपी में भी चुनाव तो होंगे ही.
एक दमदार दलील भी है. जैसे सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी थी, वैसे ही गांधी परिवार का गढ़ रायबरेली भी सौंपी है. अब राहुल गांधी रायबरेली को भी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी ही समझते हैं, या कुछ और ये तो उन पर ही निर्भर करता है.
रायबरेली और वायनाड में से किसी एक को चुनने का फैसला भी एक न एक दिन इसी आधार होना है - और बाद में उसे फैससे की खामी समझा जाये, या एक्सीडेंट क्या फर्क पड़ता है.