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सम्राट चौधरी के रूप में BJP को बिहार में मिल गया नीतीश कुमार का विकल्प

बिहार में नीतीश कुमार की बराबरी का कोई नेता नहीं है. सजा के चलते लालू यादव के रेस से बाहर हो जाने के बाद नीतीश कुमार का एकछत्र राज हो गया. बीजेपी को अरसे से एक ऐसे नेता की तलाश थी जो नीतीश कुमार का मुकाबला कर सके - सम्राट चौधरी ऐसी कई शर्तें पूरी भी कर रहे हैं.

'धीरे धीरे रे मना...' 2015 में नीतीश कुमार ये लाइन अक्सर कहते थे, सम्राट चौधरी ने वही रास्ता पकड़ लिया है 'धीरे धीरे रे मना...' 2015 में नीतीश कुमार ये लाइन अक्सर कहते थे, सम्राट चौधरी ने वही रास्ता पकड़ लिया है
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 30 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 3:56 PM IST

सम्राट चौधरी की पगड़ी की काफी चर्चा हो रही है. कुछ हद तक वैसे ही जैसे पहले अरविंद केजरीवाल के मफलर की होती रही. हालांकि, दोनों मामलों में काफी फर्क भी है. पगड़ी और मफलर धारण करने की दोनों नेताओं की परिस्थितियां भी अलग हैं - बीजेपी के हिसाब से देखें तो बिहार और दिल्ली की राजनीति में कुछ कॉमन बातें भी हैं.

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दिल्ली और बिहार दोनों ही राज्यों में पिछले दो बार से एक ही साल विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. दिल्ली में साल की शुरुआत में, और बिहार में साल के आखिर में - और एक खास बात ये भी है कि दोनों ही राज्यों में बीजेपी की चुनौतियां मिलती जुलती हैं.

बीजेपी के पास न तो बिहार में अब तक नीतीश कुमार का विकल्प मिल सका है, और न ही दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का. दोनों ही राज्यों में बीजेपी अलग अलग नेताओं को बारी बारी आजमाती रही है, लेकिन अब तक सफलता नहीं मिल सकी है. 

लगता है बिहार में बीजेपी की ये तलाश खत्म होने वाली है, क्योंकि सम्राट चौधरी के रूप में बीजेपी को एक ऐसा नेता मिला है जो तमाम अनिवार्य अर्हताएं करीब करीब पूरी कर रहा है. बीजेपी के लिए अच्छी बात ये है कि उसके पास सम्राट चौधरी को ठोक-बजाकर परखने का पूरा मौका भी मिला है. अगला विधानसभा चुनाव होने तक डेढ़ साल से ज्यादा वक्त बचा हुआ है. 

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1. सम्राट चौधरी ने ट्रेलर तो दिखा ही दिया है

ज्यादा दिन नहीं हुए जब सम्राट चौधरी को बिहार बीजेपी की कमान सौंपी गई थी. डॉक्टर संजय जायसवाल से जिम्मेदारी लेने के बाद सम्राट चौधरी धीरे धीरे अपना रंग भी दिखाने लगे. अब रंग जमाने का भी मौका मिल गया है. 

सम्राट चौधरी की पगड़ी की चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि उनका कहना था कि वो नीतीश कुमार की सरकार गिराने के बाद भी पगड़ी उतारेंगे. देखा जाये तो सम्राट चौधरी ने आधा संकल्प तो पूरा कर ही लिया है. 

नीतीश कुमार की जो सरकार थी, उसे तो गिरा ही दिया है. बेशक नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री हैं, लेकिन पहले की तरह ताकतवर नहीं ही रह गये हैं. वैसे सम्राट चौधरी फिर से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन के खिलाफ थे, लेकिन बीजेपी आलाकमान को राजनीति का यही दांव पसंद आ रहा था, लिहाजा बात मान ली. कम से कम इस मामले में तो सम्राट चौधरी का हाल भी नीतीश कुमार जैसा ही रहा होगा. बात मान लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचा होगा. 

रही बात पगड़ी की तो उसे लेकर भी सम्राट चौधरी ने अपनी बात बता दी है. ये सवाल तो उठा ही है कि सम्राट चौधरी ने पगड़ी उतारने की बात कही थी, और नीतीश कुमार के साथ डिप्टी सीएम पद और गोपनीयता की शपथ लेते हुए भी पगड़ी धारण किये हुए थे. 

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बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने 'पगड़ी वाली कसम' को लेकर कहा है, 'बीजेपी मेरी दूसरी मां है... जब मेरी मां चली गई तो मैंने पगड़ी बांधी थी... आज अगर दूसरी मां के सम्मान के लिए मुझे अयोध्या जाकर सिर मुड़वाना पड़े तो मुझे मंजूर है... अयोध्या में पगड़ी खोलेंगे... भगवान श्रीराम के चरणों में सिर मुड़वाएंगे.'

2. राजनीतिक खांचे में भी फिट बैठ रहे हैं सम्राट चौधरी

बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण कितने हावी हैं, कदम कदम पर देखा जा सकता है. जातीय जनगणना की मांग से पहले के वाकये याद करें तो लगता है कि स्थिति बिलकुल भी नहीं बदली है, और न ही जल्दी बदलने वाली है. 

हाल के राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगभग सभी चुनावी रैलियों में जातीय जनगणनी की मांग जरूर रखते थे. लेकिन चुनाव हार जाने के बाद से वो सत्ता में आने पर जातीय जनगणना कराने का वादा भी नहीं दोहरा रहे हैं. न ही कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव का जिक्र ही कहीं सुनने को मिल रहा है. अगर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव को याद करें तो आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के बयान पर विवाद याद होगा. तब बीजेपी की हार में आरक्षण को लेकर मोहन भागवत के बयान को महत्वपूर्ण माना गया था. 

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नीतीश कुमार के पाला बदलकर एनडीए में जाने के बाद भी यही माना जा रहा है कि बीजेपी के प्रतिद्वंद्वी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के M-Y समीकरण पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. मुस्लिम और यादव के वोट तो लालू परिवार के पास ही रहेगा - लेकिन अब लव-कुश समीकरण का फायदा बीजेपी को मिलेगा, ये भी तय माना जाना चाहिये.

नीतीश कुमार की राजनीतिक ताकत लव-कुश समीकरण में ही छिपी हुई है. ये नाम कोइरी-कुर्मी वोट बैंक को मिला है. नीतीश कुमार खुद कुर्मी समुदाय के नेता हैं और कुशवाहा नेताओं को मिलाकर वो अपनी राजनीति चलाते हैं. उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह जैसे नेता भी इसी समीकरण की राजनीति करते रहे हैं. 

सम्राट चौधरी भी नीतीश के लव-कुश समीकरण के ही नेता हैं. सम्राट चौधरी कुशवाहा हैं, यानी ओबीसी कैटेगरी के नेता हैं - ऐसे में वो नीतीश कुमार वाली राजनीति के खांचे में भी फिट बैठते हैं. 

3. बीजेपी की तरफ से पोजीशनिंग भी सही हुई है

सम्राट चौधरी को बीजेपी की कमान सौंपते वक्त भी आलाकमान के दिमाग में ऐसी बातें निश्चित तौर पर रही होंगी, जरूरी नहीं कि तब ये समझा गया हो कि आगे चल कर नीतीश कुमार के राजनीतिक उत्तराधिकार पर भी दावा जताया जा सकता है.

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बीजेपी की तरफ से सम्राट चौधरी की पोजीशनिंग भी काफी सोच समझ कर हुई है. सम्राट चौधरी के साथ साथ विजय सिन्हा को भी डिप्टी सीएम बना कर नीतीश कुमार के अगल-बगल बिठाकर बीजेपी ने बिहार के जातीय समीकरण साधने की भी कोशिश की है - हो सकता है, आगे चल कर जातीय जनगणना का भी नीतीश कुमार के नाम पर क्रेडिट लेने की बीजेपी की कोशिश हो. ऐसा न भी हो तो बीजेपी ने ये इंतजाम तो कर ही लिया है कि जातीय राजनीति के मामले में अब कोई उसे निशाना नहीं बना सकेगा.

बिहार में सम्राट चौधरी को बीजेपी ने उसी जगह बिठाया है, जहां महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री रह चुके देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बना कर. मान कर चलना चाहिये, बिहार सरकार में सम्राट चौधरी का भी दखल देवेंद्र फडणवीस जितना ही होगा - क्योंकि नीतीश कुमार भी अब बीजेपी के लिए एकनाथ शिंदे जितने ही काम के रह गये हैं. 

4. सुशील मोदी जैसे भाजपा नेताओं के भी विकल्प हैं सम्राट चौधरी

और सिर्फ नीतीश कुमार ही क्यों, सम्राट चौधरी तो सुशील मोदी जैसे खूंटा गाड़ कर बैठे बीजेपी नेताओं के भी विकल्प हैं. ये भी खबर आई है कि नीतीश कुमार फिर से सुशील मोदी को ही एक डिप्टी सीएम बनाना चाहते थे, लेकिन उनका ये प्रस्ताव बीजेपी नेतृत्व ने नामंजूर कर दिया. मोदी-शाह की बीजेपी में सुशील मोदी पहले जैसी अपनी पोजीशन कायम नहीं रख सके. 2020 के चुनाव नतीजे आने के बाद से ही उनको नीतीश कुमार से दूर कर दिया था. दूरी बनाये रखने के लिए ही उन्हें बिहार से हटाकर राज्य सभा भेज दिया था.  

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बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की कामयाबी के पीछे कई फैक्टर हैं. उनकी अपनी काबिलियत तो है ही,  राज्य के राजनीतिक हालात भी ऐसे हैं कि नीतीश कुमार को पूरा फायदा मिला है, और वो फायदा उठाना भी जानते हैं. मौका तो सभी के पास होता है, बिहार में भी है. लेकिन नीतीश कुमार ने मौके का फायदा उठाया है तो ये उनका अपना हुनर भी है. बिहार में नीतीश कुमार की एंट्री भी ऐसे मौके से हुई जब लालू यादव को कानूनी वजहों से जेल जाना पड़ा था. राबड़ी देवी ने सरकार भी चलाई, लेकिन वो लालू यादव की तरह नीतीश कुमार को चैलेंज करने की स्थिति में नहीं थीं - और नीतीश कुमार एक बार कुर्सी पर काबिज हुए तो जैसे तैसे बने रहे. 

नीतीश कुमार के मुकाबले लालू यादव ने बेटे तेजस्वी यादव को काफी हद तक खड़ा भी कर दिया है, लेकिन बीजेपी अब तक खाक ही छानती रही है. बिहार का प्रभारी रहते हुए भूपेंद्र यादव ने अलग अलग तरीके से लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों को ही कमजोर करने के हर संभव प्रयास किये, लेकिन बीजेपी की तरफ से नीतीश कुमार के कद का कोई नेता नहीं खड़ा कर सके. 

नित्यानंद राय जैसे नेताओं को भी आजमाया गया, और दिल्ली से सैयद शाहनवाज हुसैन को भेज कर भी कुछ कोशिशें हुईं. कहने को तो बिहार में गिरिराज सिंह जैसे नेता भी बीजेपी के पास हैं, लेकिन उनकी काबिलियत पर भी बीजेपी उतना ही यकीन है जितना कैलास विजयवर्गीय जैसे नेताओं पर - तभी तो मोहन यादव और बिहार में सम्राट चौधरी को ही कुर्सी मिल पाती है. 

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