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व्यंग्य: लोकतंत्र का लकी ड्रॉ... पर्ची खुली, कुर्सी मिली और हो गया अंत्योदय

भारत में रहते हुए पर्ची कल्चर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. गांव में माससाब द्वारा पर्ची पर लिखकर गुटखा मंगवाने की रिवायत हो या सरकारी कार्यालयों में पर्ची पहुंचाकर काम करवाने की अदा, पर्ची हमारे देश में भरोसे का दूसरा नाम है. अस्पतालों में लिखी जाने वाली करोड़ों पर्चियां हर रोज इस देश में न जाने कितने लोगों की जानें बचाती हैं जबकि उस पर क्या लिखा है यह सिर्फ मेडिकलस्टोरिस्ट ही पढ़ पाता है.

लोकतंत्र का लकी ड्रॉ... (फोटो: AI) लोकतंत्र का लकी ड्रॉ... (फोटो: AI)
योगेश मिश्रा
  • नई दिल्ली,
  • 19 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:23 PM IST

भारतीय राजनीति में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 'अंत्योदय' नीति आज भी प्रासंगिक बनी हुई है. अंत्योदय यानी अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्ति का उदय. यह विचार महात्मा गांधी के 'सर्वोदय' यानी सभी के उत्थान से प्रभावित है. अंत्योदय राशन कार्ड इस नीति का एक रेगुलर उदाहरण हो सकता था लेकिन आखिरी बार राष्ट्रीय स्तर पर इस नीति को चरितार्थ होते हुए सभी ने मध्य प्रदेश और राजस्थान में देखा जब भारतीय जनता पार्टी ने अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्ति का उदय कर दिया माने मुख्यमंत्री बना दिया. 

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लोकतांत्रिक व्यवस्था और आदर्श राजनीति तो यह कहती है कि विधायक दल अपना नेता चुनेंगे और सबसे अधिक विधायक जिसके पक्ष में होंगे वही मुख्यमंत्री बनेगा लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि भारत एक पर्ची प्रधान देश है तो इंद्रप्रस्थ इससे अछूता कैसे रहता. चुनाव संपन्न हो चुके थे. लंबे समय बाद लोकतंत्र बहाल हुआ था. इंद्रप्रस्थ के पास सड़कें और मेट्रो तो थीं लेकिन द्वंद्व शुद्ध हवा और स्वच्छ पानी को लेकर था. वादे भी इसी के किए गए थे. इंद्रप्रस्थ की सारी उम्मीदें अब उस पर्ची पर टिकी थीं जो आज खुलने वाली थी. 

पर्ची का इतिहास बहुत पुराना है. प्राचीन सभ्यताओं जैसे मिस्र, मेसोपोटामिया, और भारत में लिखने के लिए ताड़-पत्रों, भोजपत्रों और मिट्टी की तख्तियों का उपयोग किया जाता था. मुगल काल में व्यापारी और वित्तीय लेन-देन करने वाले लोग छोटे कागजों पर नोट्स बनाकर रखते थे. फारसी और अरबी प्रभाव के कारण व्यापार में 'हुनदी' प्रणाली विकसित हुई. कालांतर में इन्होंने ही पर्ची का रूप ले लिया.

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'पर्ची' शब्द की उत्पत्ति फारसी भाषा से हुई है लेकिन फारस या ईरान में आज लोकतंत्र सूली पर इसीलिए टंगा नजर आता है क्योंकि उन्होंने पर्ची कल्चर को संभाल कर नहीं रखा बल्कि भाषा का विस्तार करते रह गए.

लोकतंत्र में पर्ची की महत्ता और गुणवत्ता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. आपको एक तस्वीर याद होगी. राजस्थान में पर्यवेक्षक रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे मंच पर बैठे हुए थे. धीरे से राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे को एक पर्ची थमाई. माना जा रहा था कि इसी पर्ची में होने वाले मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा का नाम था जिसे पढ़कर वसुंधरा राजे चौंक गईं. 

पर्ची से राजा चुनने का इतिहास बहुत पुराना रहा है. भगवान राम को जब वनवास हुआ तो पर्ची पर भरत का नाम लिखा हुआ था जो तब राजा बनने की अंतिम पंक्ति का हिस्सा थे और सिर्फ अपने बड़े भाई की सेवा में समर्पित रहना चाहते थे. 'चोर, वजीर, बादशाह, सिपाही' जैसे खेलों में भी पर्ची से बादशाह के चुनाव का प्रमाण मिलता है.

इंद्रप्रस्थ में आज मुख्यमंत्री चुनने का दिन था. तैयारियां जोरों पर थीं. एक बड़े से मैदान में मंच लग रहा था. भारतीय राजनीति में शपथ ग्रहण के मंच का आकार चुनाव में जीती गई सीटों के अनुक्रमानुपाती होता है. इस बार के मंच का आकार यह चीख-चीखकर बता रहा था कि यह जीत कितनी बड़ी थी. हजारों लोगों के बैठने के लिए कुर्सियां. आगे कुछ सोफों की झालर, फिर स्टील पाइप वाली कुर्सियों का झुंड और उसके पीछे लाल कुर्सियों का एक विशालकाय समुद्र, जो सिर्फ टूटने के लिए ही आई थीं. सबकुछ तैयार था. तैयारियां अपने अंतिम चरण में थीं, कुछ देर में पर्ची बस खुलने ही वाली थी क्योंकि शपथ ग्रहण अगले ही दिन था.

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भारत में रहते हुए पर्ची कल्चर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. गांव में माससाब द्वारा पर्ची पर लिखकर गुटखा मंगवाने की रिवायत हो या सरकारी कार्यालयों में पर्ची पहुंचाकर काम करवाने की अदा, पर्ची हमारे देश में भरोसे का दूसरा नाम है. अस्पतालों में लिखी जाने वाली करोड़ों पर्चियां हर रोज इस देश में न जाने कितने लोगों की जानें बचाती हैं जबकि उस पर क्या लिखा है यह सिर्फ मेडिकलस्टोरिस्ट ही पढ़ पाता है. उस पर्ची पर लिखे मैसेज को बीच का कोई डिकोड नहीं कर पाता. यह कोडिंग इतनी पुख्ता होती है कि जब कोई डॉक्टर प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्रेम पत्र लिखता है तो प्रेमिका उसका इज़हार पाने के लिए मेडिकल स्टोरी की तरफ भागती है. 

अपार क्षमता वाले वो लड़के जो नंबर सिस्टम से लड़ने को मजबूर हैं और भविष्य में बहुत कुछ कर सकने का दम रखते हैं इन्हीं पर्चियों को बनाते हैं अपना हथियार और क्रैक करते हैं एजुकेशन सिस्टम को. हम कितने भी डिजिटल हो जाएं पर्ची की गुणवत्ता को मिटाया नहीं जा सकता. जब पर्ची इतनी महत्वपूर्ण है और हम एक 'पर्ची लोकतंत्र' में ही पले-बढ़े बालक हैं तो पर्ची से मुख्यमंत्री चुनने में कैसा गुरेज़? 

आज विधायक दल की बैठक में मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा होनी थी. सभी को इंतजार था पर्ची खुलने का. यहां बैठने की व्यवस्था थोड़ी अलग थी. लाल कुर्सियां सबसे आगे मंच के ठीक सामने रखी हुई थीं और सोफे सबसे अंतिम पंक्ति में, जिन पर बाक़ायदा तैलिया भी बिछा हुआ था. लोगों में अंतिम पंक्ति में बैठने की होड़ सी लगी हुई थी. विधायक हाथापाई को भी तैयार थे.

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सभी को लग रहा था कि चूंकि पार्टी 'अंत्योदय' की नीति पर चलती है, लिहाजा इस तरह की पर्चियों पर यह लिखा होता है कि सबसे पीछे बैठे किसी भी व्यक्ति को सीएम बना दिया जाए. कवि सम्मेलनों में भी सारे कवि यही प्रयास करते हैं कि अंतिम पंक्ति में बैठे श्रोता तक बात पहुंच जाए. अंतिम आदमी बनने की इच्छा हमारे भीतर कभी खत्म नहीं होती.

इन पर्चियों में क्या लिखा होता है? किसी का नाम? अगर नाम लिखते हैं तो वो देवनागिरी में होता है या रोमन में? क्या नाम के साथ वर्तमान पद भी लिखते हैं? क्या पर्ची कलम से लिखी जाती है या एक नाम को भी टाइप किया जाता है? और पर्ची ही क्यों, ये कैसा द्वंद्व है, सबसे आधुनिक और डिजिटल तरीके से चुनाव लड़ने वाली पार्टी पर्ची के बजाय व्हाट्सएप या मेल का इस्तेमाल भी तो कर सकती है? ये सवाल विधायकों के बीच ओहापोह पैदा कर रहे थे. 

मंच पर पार्टी के बड़े नेता आए और आई वो पर्ची जिसका इंतजार 48 विधायक लंबे समय से कर रहे थे. औपचारिक संबोधन के बाद पर्यवेक्षक ने पर्ची खोलकर नाम पढ़ा. इंद्रप्रस्थ को इस बार एक महिला सीएम मिली, जो हॉल में सबसे पीछे कोने में खड़ी एक आम कार्यकर्ता थी.

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यह पार्टी की 'अंत्योदय' नीति का नया रूप था जब उन्होंने अंतिम पंक्ति से अंतिम कोने पर शिफ्ट किया था. और इंतजार में बैठे विधायक? उनका हाल वही हुआ जो प्रधानी के चुनाव में उस जनरल कैंडिडेट का होता है जो महीनों तैयारी करता है, पैसे खर्च करता है और आखिर में सीट आरक्षित हो जाती है. 

सबसे दयनीय स्थिति तो उन विधायकों की थी जिन्हें मीडिया ने लगभग मुख्यमंत्री बना ही दिया था. वो अंत्योदय नीति पर चलने वाली पार्टी के असली बैकबेंचर थे. उन्हें लग रहा था कि मीडिया की तरफ से बनाई गई इसी हाइप की वजह से पार्टी ने उन्हें कंसीडर ही नहीं किया. जिस मीडिया पर कल तक वह वात्सल्य रस की वर्षा कर रहे थे आज वही उन्हें कैकेयी और शकुनी लग रही थी.

पौराणिक जड़ों वाली पार्टी के विधायक इससे बेहतर उदाहरण और क्या खोजते. वो बार-बार कह रहे थे, भगवान राम राजा इसीलिए नहीं बन पाए क्योंकि उनका नाम मीडिया में आ गया था, दुर्योधन ने भगवान कृष्ण को पांच ग्राम इसीलिए नहीं दिए क्योंकि ये खबर मीडिया में चल गई थी, आज अगर युधिष्ठिर होते और उनका नाम मीडिया में चल जाता तो महाभारत का युद्ध जीतकर भी वो इंद्रप्रस्थ के राजा नहीं बन पाते.

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