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शरद पवार को मिली Z+ सिक्योरिटी महाराष्ट्र में कोई नया समीकरण बनाने वाली है क्या?

शरद पवार को केंद्र सरकार की तरफ से मिली Z+ सुरक्षा का आधार केंद्रीय एजेंसियों की ओर से खतरे के आकलन की समीक्षा है. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ऐसा किया जाना इसके राजनीतिक निहितार्थ और प्रभाव की तरफ भी खास इशारा करता है.

शरद पवार को मिली जेड प्लस सुरक्षा को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले एक राजनीतिक बयान के तौर पर भी देखा जा सकता है. शरद पवार को मिली जेड प्लस सुरक्षा को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले एक राजनीतिक बयान के तौर पर भी देखा जा सकता है.
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 22 अगस्त 2024,
  • अपडेटेड 8:28 PM IST

महाराष्ट्र के दिग्गज नेता शरद पवार को केंद्र सरकार की तरफ से मिली Z+ सुरक्षा दी गई है. और ऐसा केंद्रीय एजेंसियों की ओर से खतरे के आकलन की समीक्षा के बाद किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय एजेंसियों ने संभावित खतरों की समीक्षा के बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री 83 साल के शरद पवार के लिए हाई लेवल सशस्त्र वीआईपी सुरक्षा कवर की सिफारिश गई है - और उसी के आधार पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीआरपीएफ से शरद पवार को जेड प्लस सिक्योरिटी कवर देने को कहा है. 

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माना जा रहा है कि महाराष्ट्र में आरक्षण के मुद्दे पर मराठा और ओबीसी समुदाय के बीच उभरा तनाव भी शरद पवार की सुरक्षा बढ़ाये जाने की खास वजह हो सकती है. और इसीलिए केंद्र सरकार ने विधानसभा चुनावों में शरद पवार के चुनावी दौरों को देखते हुए उनकी सुरक्षा बढ़ाई है.

महाराष्ट्र में जल्दी ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, और उससे ठीक पहले ऐसा किया जाना इसके राजनीतिक निहितार्थ की तरफ खास इशारा करता है, भले ही इसके पीछे सीधे सीधे और सामान्य कारण क्यों न हों. इस बात से तो इनकार नहीं ही किया जा सकता कि केंद्र सरकार के इस कदम का कोई भी राजनीतिक प्रभाव नहीं होगा. 

चुनाव बाद शरद पवार की भूमिका क्या होगी?

राजनीति में जो ऊपरी तौर पर बिलकुल भी महसूस नहीं होता, उसके भी गहरे मायने होते हैं. कई कदम तो दूरगामी परिणामों के पूर्वाकलन के हिसाब से उठाये जाते हैं. तात्कालिक तौर पर कोई नफा-नुकसान हो भी, कई मामलों में ये कभी जरूरी नहीं होता. 

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पांच साल पहले 2019 में बीजेपी से अलग महाविकास आघाड़ी की सरकार बनवा कर शरद पवार ने साबित कर दिया था कि महाराष्ट्र की राजनीति में तो उनकी ही चलती है - और लोकसभा चुनाव के नतीजे भी तो यही बता रहे हैं कि सब कुछ गंवा देने के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति के असली रिंग-मास्टर वही हैं. 

सतारा की जीत से लेकर बारामती में दबदबा कायम रखने तक, तमाम उदाहरण मिलते हैं. चाहे शरद पवार को कमजोर करने की जितनी भी कोशिशें हुई हों,  हर बार नाकाम साबित हुई हों. आज की तारीख में तो असली एनसीपी भी उनके पास नहीं है, न ही चुनाव निशान उनके पास है. जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, तब तक तो चुनाव निशान अजित पवार के कब्जे वाली एनसीपी के पास ही है. चुनाव आयोग भी शरद पवार के हिस्से वाली एनसीपी को असली नहीं मानता. 

जरा सोचिये, बारामती तक से शरद पवार को उखाड़ फेकने के इंतजाम कर दिये गये थे. अब तो अजित पवार भी मान रहे हैं कि बारामती से बहन सुप्रिया सुले के खिलाफ पत्नी सुनेत्रा पवार को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला सही नहीं था - लेकिन शरद पवार की राजनीतिक सेहत पर कोई फर्क आया क्या? 

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वैसे भी जो अपने विल-पावर के बल पर कैंसर जैसी बीमारी को शिकस्त दे चुका हो, उसके लिए राजनीति के मैदान में पावर दिखाना तो बायें हाथ के खेल जैसा ही है - आखिर महाराष्ट्र में पवार के पावर पॉलिटिक्स की चर्चा यूं ही तो होती नहीं.

2019 की तरफ इस बार भी शरद पवार महाविकास आघाड़ी में शरद पवार किंगमेकर की भूमिका में बने हुए हैं. अगर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे भी लोकसभा जैसे आये, फिर तो शरद पवार ही तय करेंगे कि किसे किंग बनाना है, और किसे नहीं. 

शरद पवार पहले ही साफ कर चुके हैं कि उनको किसी पद की लालसा नहीं रह गई है. अब उनके लिए तो प्रधानमंत्री पद ही अहमियत रखता है. मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तो वो रह ही चुके हैं - अब किंग कोई भी बने, उसकी हिफाजत के इंतजाम, तो सरकार की ही जिम्मेदारी बनती है. 

एनसीपी नेता के अब तक के रुख को देखें तो वो महाराष्ट्र में बदलाव की बात कर रहे हैं. मतलब, ये यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि महाराष्ट्र में चुनाव बाद सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है.  लेकिन ये सब तो संभावनाओं की बात है, ठीक वैसे ही जैसे 'अबकी बार 400 पार'. 

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2019 के चुनाव के बाद बीजेपी और शिवसेना गठबंधन के टूट जाने और महाविकास आघाड़ी की सरकार बन जाने के बीच की बातें याद करें तो कई तरह की चर्चाएं थीं. सुना तो यहां तक गया था कि बीजेपी और एनसीपी भी सरकार बनाने के बारे में सोचने लगे थे, लेकिन एक-दूसरे की शर्तें दोनो पक्षों को मंजूर नहीं हुईं, और मिशन अधूरा रह गया. 

इस बात का संकेत देवेंद्र फडणवीस ने भी दिया था. देवेंद्र फडणवीस का दावा रहा है कि जब वो 72 घंटे के लिए मुख्यमंत्री बने थे, जिसमें अजित पवार डिप्टी सीएम बने थे, वो सारी घटनाएं शरद पवार के संज्ञान में थीं - और शरद पवार की तरफ से भी ऐसे दावों को जिस तरह खारिज किया गया, वो संतोषजनक नहीं था. 

मतलब, चुनाव से पहले भी और चुनाव बाद भी संभावनाओं का खेल चलता रहेगा - शरद पवार की अहमियत यूं ही बनी रहेगी, देखना है कौन उनका फायदा उठा पाता है, और वो किसका इस्तेमाल कर पाते हैं.

जैसे कोई राजनीतिक बयान हो

संघ और बीजेपी की तरफ ऐसे कदम अक्सर संदेह पैदा करने के मकसद से भी उठाये जाते रहे हैं. ऐसी बातों को न तो कोई सीधा प्रभाव होता है, न ही कहीं कोई गंभीर असर ही होता है, लेकिन एक संदेश तो चला ही जाता है. चर्चा तो होती ही है. कयास तो लगाये जाने तो शुरू ही हो जाते हैं. बड़ा या बड़े पैमाने पर न सही, हल्का फुल्का कोई नैरेटिव तो चल ही पड़ता है - और ये काफी होता है. 

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राजनीति में विरोधी पक्ष को कुछ देर के लिए गफलत में डाल देना भी फायदे का ही सौदा होता है. अगर विरोधी पक्ष थोड़ा सा भी डिस्टर्ब हो गया तो समझो काम हो ही गया. 

जैसे कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी बात के लिए शशि थरूर की तारीफ कर देते हैं, और एक चर्चा चल पड़ती है. ऑक्स्फोर्ड के कार्यक्रम में शशि थरूर के भाषण के बाद बातें तो होने ही लगी थीं. शशि थरूर की बीजेपी से नजदीकियों की चर्चा तक होने लगी थी. और बाद में भी ऐसे कई मौके देखने को मिले हैं. जैसे स्वच्छता अभियान के लिए भी शशि थरूर को नामित कर दिया गया था. 

अब जरा संसद का वो इमोशनल माहौल भी याद कर लीजिये. जब गुलाम नबी आजाद के लिए प्रधानमंत्री मोदी के मुंह से तारीफें सुनने को मिली थीं. बाद में गुलाम नबी आजाद को पद्म भूषण दिया जाना भी काफी देर तक अलग से चर्चा का कारण बना रहा. 

और इसी क्रम में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिये जाने और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से नागपुर के कार्यक्रम में बुलाये जाने को भी जोड़ कर देख सकते हैं. न कुछ होने वाला था, न ही कहीं कुछ हुआ - लेकिन चर्चा तो खूब हुई. और बाकियों की कौन कहे, उनकी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी तक ने पिता को नसीहत तक दे डाली थी, नाखुशी जो जताई वो तो अलग ही था - लेकिन हुआ क्या, असर तो नील बटे सन्नाटा ही रहा.

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अभी लोकसभा चुनाव से पहले भी ऐसा ही एक वाकया हुआ था. भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद को भी सुरक्षा दी गई थी. बेशक अब वो संसद पहुंच चुके हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर उनके राजनीतिक स्टैंड में कोई बदलाव महसूस किया गया है क्या?

शरद पवार को भी मिली जेड प्लस सुरक्षा का एक पहलू बिलकुल ऐसा ही है, जैसे कोई राजनीतिक बयान दिया गया हो. जैसे राजनीतिक बयानों के निहितार्थ होते हैं. जैसे राजनीतिक बयानों के असर होते हैं.

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