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रामलला के सिपाही-3: मस्जिद में मूर्ति रखने से राम मंदिर की पहली ईंट रखने तक, हर कहानी में मिलेंगे परमहंस रामचंद्र दास

1949 में मूर्ति के प्रकट होने, फिर 1950 में रामलला के पूजन करने की स्वीकृति मिलने, 1986 में राम मंदिर के ताले खुलवाने से लेकर 1992 में विवादित ढांचा गिराए जाने तक की कहानी में जो एक किरदार हर घटना में कॉमन रूप से मौजदू रहे, वो संत परमहंस दास रामचंद्र जी ही थे.

महंत परमहंस रामचंद्र दास के बिना रामजन्मभूमि आंदोलन का इतिहास पूरा नहीं होता महंत परमहंस रामचंद्र दास के बिना रामजन्मभूमि आंदोलन का इतिहास पूरा नहीं होता
संयम श्रीवास्तव
  • नई दिल्ली,
  • 19 जनवरी 2024,
  • अपडेटेड 6:38 PM IST

अयोध्या में 23 दिसंबर 1949 की सुबह कुछ अलग थी. बाबरी मस्जिद की ओर जा रहा हर रास्ता प्रकट भये राम कृपाला से गुंजायमान था. शहर का हर शख्स जल्दी से जल्दी रामजन्मभूमि की ओर जाना चाहता था. लोगों में कौतूहल था कि राम लला की जो मूर्ति रहस्यमय तरीके से विवादित मस्जिद में प्रकट हुई है, वह दिखती कैसी है? इस पूरे सस्‍पेंस को जिस संत ने अपने हाथों से रचा था, वह राम मंदिर के लिए पहली ईंट रखने तक की दास्‍तान में भूमिका निभाता रहा. आइये, जानें उन्‍हीं संत परमहंस दास रामचंद्र के व्‍यक्तित्‍व और उनके संघर्ष की कहानी को.

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हालांकि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण 500 साल के संघर्ष का परिणाम है. हजारों लोगों ने मंदिर के लिए कुर्बानियां दी हैं. सैकड़ों लोगों के अथक परिश्रम से अयोध्या में राम मंदिर का सपना साकार हो रहा है. पर अगर राम मंदिर निर्माण का श्रेय केवल एक आदमी को देने की बात हो तो निश्चित रूप से परमहंस रामचंद्र दास का नाम ही लिया जाएगा.1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति के प्रकट होने से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक अगर देश का कोई एक शख्स राम मंदिर के हर काज में काम आया तो वो परमहंस रामचंद्र दास ही थे. मूर्ति रखवाने से लेकर मंदिर की लड़ाई को आम जनता की लड़ाई बनाने तक में रामचंद्र दास की बहुत बड़ी भूमिका रही है.  

बाबा ने रखवाई थी मूर्ति और कोर्ट से पूजा की इजाजत भी ली

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फिलहाल रामजन्मभूमि के गर्भ गृह में मूर्तियां रखवाने के आरोप में महंत अभिराम दास, रामसकल दास, सुदर्शन दास सहित करीब 50 अन्य लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई. जाहिर है कि इन संतों का काम इनके जूनियर संतों ने ही किया होगा. जूनियर संतों में उस समय सबसे अगुआ थे परमहंस रामचंद्र दास जी. हालांकि उन्हें कभी आरोपी नहीं बनाया गया पर बाद में उन्होंने 1991 में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि मैं ही हूं जिसने मस्जिद में मूर्ति को रखा था.  

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मूर्ति रखने की बात रामचंद्र दास जी ने भले कभी कभी बोल दी हो पर वो इसका श्रेय लेने की कोशिश नहीं करते थे. हमेशा इस मसले पर चुप्पी साध लेते थे. पर 16 जनवरी 1950 को सिविल जज की अदालत में हिंदू पक्ष की ओर से मुकदमा दायर कर जन्मभूमि में स्थापित भगवान राम और अन्य मूर्तियों को न हटाने और पूजा की इजाजत देने की मांग रामचंद्रदास जी ने ही की थी. दिगंबर अखाड़ा के महंत रहे परमहंस को कोर्ट ने इजाजत भी दे दी. कई साल बाद 1989 में जब रिटायर्ड जज देवकी नंदन अग्रवाल ने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति करार देते हुए नया मुकदमा दायर किया तब कहीं परमहंस ने अपना केस वापस लिया.

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धर्म संसद, शिला पूजन, कारसेवकों का नेतृत्व

महंत रामचंद्र दास के नेतृत्व में ही रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए धर्मसंसद की शुरूआत की गई. 1984 की प्रथम धर्म संसद नई दिल्ली में हुई, जिसमें अयोध्या, मथुरा, काशी के धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव रखा गया. परमहंस रामचन्द्र दास जी की अध्यक्षता में रामजन्मभूमि संघर्ष की कार्य योजना के संचालन हेतु प्रथम बैठक हुई. जिसमें श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ. जन्मभूमि को मुक्त कराने हेतु जन-जागरण के लिए सीतामढ़ी से अयोध्या तक राम-जानकी रथ यात्रा का कार्यक्रम भी इसी बैठक में तय हुआ.

दिसम्बर 1985 में दूसरी धर्म संसद उडुपी (कर्नाटक) में परमहंस जी की अध्यक्षता में हुई जिसमें निर्णय हुआ कि यदि 8 मार्च 1986 को महाशिवरात्रि तक रामजन्मभूमि पर लगा ताला नहीं खुला तो महाशिवरात्रि के बाद ताला खोलो आन्दोलन, ताला तोड़ो में बदल जाएगा और 8 मार्च के बाद प्रतिदिन देश के प्रमुख धर्माचार्य इसका नेतृत्व करेंगे. बाबा की धमकी का असर हुआ और 1 फरवरी 1986 को कोर्ट के फैसले के बाद ताला खोल दिया गया. जिसे कांग्रेस कहती है कि राजीव गांधी ने ताला खुलवाया.

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जनवरी 1989 में प्रयाग महाकुम्भ के अवसर पर आयोजित तृतीय धर्मसंसद में शिला पूजन एवं शिलान्यास का निर्णय परमहंस जी की उपस्थिति में ही लिया गया था. यह उनके दृढ़ संकल्प शक्ति का ही कमाल था कि निश्चित तिथि, स्थान एवं पूर्व निर्धारित शुभ मुहूर्त 9 नवम्बर 1989 को शिलान्यास कार्यक्रम सम्पन्न हुआ.

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30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में कारसेवकों का नेतृत्व व मार्गदर्शन भी किया. 2 नवम्बर 1990 को वो कारसेवकों के बलिदान के वे स्वयं साक्षी थे. बलिदानी कारसेवकों के शव दिगम्बर अखाड़े में ही लाकर रखे गए. अक्टूबर 1992 में दिल्ली की धर्म संसद में 6 दिसम्बर की कारसेवा के निर्णय में भी परमहंस रामचंद्र दास की मुख्य भूमिका थी. अक्टूबर 2000 में गोवा में केन्द्रीय मार्गदर्शक मण्डल की बैठक में परमहंस दास महाराज को मन्दिर निर्माण समिति का अध्यक्ष सर्वसम्मति से चुना गया. जनवरी 2002 में अयोध्या से दिल्ली तक की चेतावनी सन्त यात्रा का निर्णय पूज्य परमहंस रामचन्द्र दास जी का ही था.

मार्च 2002 के पूर्णाहुति यज्ञ के समय शिलादान पर अदालत द्वारा लगायी गई बाधा के समय 13 मार्च को परमहंस दास ने घोषणा की कि अगर मुझे शिलादान नहीं करने दिया गया तो मैं कोई रसायन खाकर अपने प्राण त्याग दूंगा.

दलितों को राम मंदिर से जोड़ने वाले सबसे बड़े संत

राम जन्मभूमि आंदोलन को जन जन का आंदोलन बनाने के लिए परमहंस दास जी ने लगातार काम किया. देश के कई मंदिरों में दलित पुजारियों की नियुक्ति करवाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही. 1994 से परमहंस रामचंद्र दास के प्रतिनिधि रहे नीशेंद्र मोहन मिश्रा ने aajtak.in को एक बार बताया था कि परमहंस को बीएसपी प्रमुख और उत्तर प्रदेश की उस समय मुख्यमंत्री मायावती भी बहुत मानती थीं. समय-समय पर मायावती परमहंस के लिए भेंट भेजती रहती थीं. एक बार जब परमहंस अस्पताल में थे तो मायावती उन्हें देखने अस्पताल पहुंच गईं थीं. बताया जाता है कि बिहार के एक मंदिर में परमहंस रामचंद्र दास ने न सिर्फ एक दलित पुजारी को नियुक्त किया, बल्कि उससे खाना बनवाकर खुद खाया भी.

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 9 नवंबर 1989 को जब अयोध्या में राम जन्मभूमि का शिलान्यास कार्यक्रम होना था, तब हजारों साधु-संतों की मौजूदगी में कामेश्वर नाम के एक दलित युवक के हाथों राम मंदिर के लिए पहली ईंट रखवाई गई थी. इस पुनीत कार्य के पीछे भी परमहंस रामचंद दास की ही भूमिका थी.

 बाबा का जीवन

माता सोना देवी व पिता भाग्यरन तिवारी के घर छपरा (बिहार) 1912 में जन्मा बालक चंद्रशेखर करीब 15 वर्ष की अवस्था में संतों के संपर्क में आया. 1930 में वो अयोध्या आ गए थे. उन्होंने पटना आयुर्वेद कालेज से आयुर्वेदाचार्य, बिहार संस्कृत संघ से नव्य व्याकरणाचार्य तथा बंगाल से साहित्यतीर्थ की परीक्षाएं पास कीं. अयोध्या के रामघाट स्थित रामकिंकर दास की छावनी व मार्फा गुफा चित्रकूट में रहकर आध्यात्मिक संत ब्रह्माचारी रामकिशोर दास से परमहंस महाराज ने गुप्त साधनाएं सीखीं.

1934 में वो अयोध्या आंदोलन से जुड़े.पहले वो हिंदू महासभा के शहर अध्यक्ष बने.1975 में वो पंच रामानंदीय दिगंबर अखाड़े के महंत बने और 1989 में रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष बने. वे संस्कृत के अच्छे जानकार थे. वेदों और शास्त्रों में उनकी अच्छी पैठ थी. वे मुंहफट, आक्रामक और मजबूत संकल्पशक्ति वाले जिद्दी साधू थे. शायद यही कारण था कि उन्हें 'प्रतिवाद भयंकर' नाम से प्रसिद्धी मिली थी.

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2003 की जुलाई में तबीयत बिगड़ने पर उन्हें लखनऊ पीजीआई ले जाया गया. लेकिन अंतिम समय में परमहंस रामचंद्र दास ने अयोध्या में रहने की इच्छा जताई. तब 29 जुलाई को उन्हें लखनऊ से अयोध्या ले जाया गया. 31 जुलाई की सुबह अयोध्या के दिगम्बर अखाड़े में 92 वर्ष की आयु में परमहंस रामचंद्र दास का निधन हो गया. उनके निधन की खबर से पूरे अयोध्या में देशभर के संत समाज का जमावड़ा लगने लगा. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, महंत अवैद्यनाथ जैसी हस्तियां अंतिम संस्कार में पहुंचीं थीं.

सरयू तट पर ही परमहंस रामचंद्र दास की समाधि बनाई गई है. योगी आदित्यनाथ का भी उनसे बेहद लगाव रहा है. इसी के चलते योगी लगातार पुण्यतिथि के मौके पर उनकी समाधि पर आते रहे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ये सिलसिला नहीं टूटा. योगी जब भी अयोध्या आते हैं तो दिगंबर अखाड़ा जरूर जाते हैं.

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