
साल 1967 में फिल्म आई थी तकदीर... फिल्म में एक बड़ा ही मार्मिक, हृदयस्पर्शी गीत है,
'सात समंदर पार से,
गुड़ियों के बाजार से,
अच्छी सी गुड़िया लाना
गुड़िया चाहे न लाना
पापा जल्दी आ जाना'
इस गीत को लता मंगेशकर ने अपने सुरों से सजाया था. गाने में सिचुएशन ये है कि एक छोटी बच्ची, अपनी मां और भाई-बहनों के साथ मिलकर पापा के जल्दी आ जाने की प्रार्थना कर रही है. पहले वह कहती है कि मेरे लिए कोई गुड़िया ले आना, लेकिन अगले ही पल वह कहती है, गुड़िया चाहे न भी लाना, लेकिन पापा तुम जल्दी आ जाना.
किसी का बहुत दूर चले जाना और फिर जल्दी न लौट पाना और सिर्फ कब लौट पाना संभव होगा, ये किसी के भी जीवन की सबसे त्रासद घटना है. बड़ी बात ये है कि ये त्रासदी दोनों ही ओर घटती है. एक तो उसमें जो ये सोचकर दिन बिता रहा है, कि वो घर कब लौटेगा, और दूसरी उनमें, जो इस इंतजार में हैं कि जो गए हैं, वो लौटेंगे कब.
त्रासदी वहां अपने चरम पर होती है जब सवाल 'कब लौटना होगा' का नहीं, 'कैसे लौटना होगा' का बन जाए. मन आशंका से घिर जाए कि 'लौटना होगा भी कि नहीं', भयभीत मन पल-पल ये सोचने लग जाए कि लगता है कि 'अब नहीं लौट पाएगा'. सुनीता विलियम्स बीते 9 महीने इन्हीं सवालों के आवरण में रही हैं.
सुनीता विलियम्स लौट आई हैं
खैर... सुनीता विलियम्स घर लौट आई हैं. घर... क्या है घर? धरती के चुंबकीय बल से जुड़े और माया में जकड़े हमारे पैरों को शायद ये महसूस न होता हो, लेकिन बीते 286 दिन अंतरिक्ष में बिताने के बाद सुनीता जरूर भगवद्गीता की उस सूक्ति को समझ गई होंगी, जिसमें लिखा है कि यह शरीर ही आत्मा के लिए घर है, वस्त्र है और आवरण है, आत्मा इसे चुनती है, इसमें रहती है और इसके जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर छोड़ जाती है. आत्मा मोह में नहीं पड़ती, लेकिन शरीर, जिसमें आत्मा होती है, उसे ही आत्मा के होने से भ्रम और मोह हो जाता है और वह आत्मा के ही जाने से डरने लगता है. वह मृत्यु से डरने लगता है, उसे जीवन का मोह हो जाता है.
उनका घर लौटना नए जन्म की तरह
यूं तो सुनीता का घर टेक्सास के ह्यूस्टन में है, लेकिन नौ माह यानी 286 दिन अंतरिक्ष में बिताने के बाद सुनीता अकसर सोचती होंगी कि घर कहां पर है? क्या इस निस्सार संसार में मनुष्य की अजनबी आत्मा का कोई घर है भी? ध्यान देने वाली बात है कि 9 माह यानी यही 280 दिन का दौर एक शिशु का गर्भ में पूर्ण विकसित होकर बाहरी दुनिया में जन्म लेने की तयशुदा अवधि है.
और यह भी देखिए कि, जब धरती पर इस देह की इहलीला समाप्त हो जाती है तो हम उसके जाने की दिशा अंतरिक्ष ही बताते हैं. वही अनंत आकाश, जहां सब शून्य है. सवाल करते हैं कि आत्मा कहां गई, उत्तर मिलता है कि वह तो स्वर्गवासी हो गई.
दोबारा जन्म लेना, यानी द्विज हो जाना
सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में गई थीं और फिर से लौट आई हैं. उन्होंने जीवन की दोनों ही प्रक्रियाओं को देख और समझ लिया है. शास्त्रों और वेदों की भाषा में वह द्विज हो गई हैं. द्विज... यानी जिसने फिर से जन्म लिया हो, या दोबारा जन्म हुआ है. पौराणिक कहानियों में सिर्फ परीक्षित एक ऐसा जीवात्मा है, जिसने दो बार जन्म लिया था. सुनीता विलियम्स का फिर से घर लौट आना क्या दूसरे जन्म से कम है? वह भी तब, जबकि हमारे पास ऐसी स्थिति में कल्पना चावला की दुखद स्मृतियां जब-तब ताजा हो जाती हैं.
...लेकिन, जिनमें बाकी है न लौट पाने का मलाल
खैर, सुनीता लौट आई हैं. लेकिन घर न लौट पाने का सवाल और मलाल तो बना ही हुआ है. उन तमाम लोगों के साथ, जो कहीं किसी आशा में गए, लेकिन लौट न सके. वह लौटने के इंतजार में हैं. उनके परिजन भी और वह खुद भी इस सवाल से घिरे हैं कि आखिर वे कब लौट सकेंगे. वह स्पेस स्टेशनों और अंतरिक्ष यानों में नहीं फंसे हैं, न ही अनंत आकाश के किसी तल पर विपथगा (स्ट्रैंडेड-एस्ट्रोनॉट) बने लटके हैं, लेकिन महानगरों की गगनचुंबी इमारतें उस व्याप्त अंतरिक्ष की ऊंचाई से कम भी नहीं, जहां रोज न जाने कितने ही युवा, आकाश को सिर्फ निहारते हैं और सोचते हैं कि एक दिन वह भी 'घर लौट जाएंगे.'
उनका क्या, जो कभी घर लौट ही नहीं सके
घर... जिसे वो पीछे छोड़ आए हैं. वो दिनों, महीनों तो क्या सदियों से घर नहीं जा पाएं हैं. ये घर न जा पाने का दर्द तो पुराने समय से भारतीयों का अपना दर्द रहा है. 5000 साल पहले युद्धभूमि में अभिमन्यु को भेजने वाली गर्भवती उत्तरा ने इस दर्द को सीने से लगाया था. यशोधरा ने सिद्धार्थ के चले जाने के बाद यही दर्द महसूस किया था और यही दर्द महसूस किया उन स्त्रियों ने भी, जिनके पति उन्हें चंपारण में छोड़कर झरिया की खानों से कोयला निकालने गए. वह कुछ कह नहीं सकीं, थोड़ा बहुत रोईं और उनकी सिसकियां गीत बन गईं...
फेंक दिहलें थरिया,
बलम गईलें झरिया
पहुंचलें कि ना...
उठे जिया में लहरिया कि पहुंचले कि ना...
(ये एक स्त्री का दुख है, उसका पति कोयला की खदान (झरिया) में खनन मजदूर है. छुट्टी में घर आया था, लेकिन घर की हालत छु्ट्टी लेने भी तो नहीं देते, लिहाजा कुछ नाराजगी और कुछ लाचारी में फिर से झरिया ही चला गया है. अब वो गुस्सा होकर गया है तो पत्नी को चिंता है कि वह कम से कम झरिया तो सकुशल पहुंच गया है कि नहीं)
दिन बीतते गए, युग बदलता गया, लेकिन नहीं बदला तो पलायन का दुख और घर न लौट पाने का दर्द. इसी दर्द को लोक गायिका मालिनी अवस्थी जब लोकभाषा में पिरोकर सामने रखती हैं तो गाती हैं कि
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए,
जउने टिकसवा से पिया मोरे जइहैं,
बरसे पानी टिकस गल जाए रे... रेलिया बैरन...
साल 1949 में फिल्म आई थी पतंगा. इसमें शमशाद बेगम का गाया एक गीत है,
'मेरे पिया गए रंगून,
किया है वहां से टेलीफोन,
तुम्हारी याद सताती है,
जिया में आग लगाती है.'
ये गीत भले ही दुखभरी आवाज में नहीं गाया गया, लेकिन गीत की पंक्तियों में वही दूर चले जाने का दर्द है. दूर भी कितना, रंगून... समझिए इतना कि लौटना असंभव सा लग रहा है. रंगून म्यांमार में है जिसे अब यंगून के नाम से जाना जाता है. लौटने की न के बराबर गुंजाइश की बात होती है तो मॉरीशस का नाम तो सुना ही होगा आपने. अभी हाल ही में पीएम मोदी ने वहां का दौरा किया था.
घर न लौट पाने का मॉरीशस से बड़ा उदाहरण तो कोई हो ही नहीं सकता. ये वो लोग थे जो वहां 'काले पानी' की सजा के तौर पर भेजे गए, कुछ लोग गिरमिटिया मजदूर बनाकर भेजे गए. ये लोग ऐसे गए कि फिर कभी न लौट सके और वहीं का होकर रह जाना उनकी मजबूरी हो गई. आज उन्हीं की पीढ़ियों से मॉरीशस देश है, उनकी आबादी है और उनके सीने में 'घर न लौट पाने की' दुखद स्मृतियां हैं.
सुकून देने वाली है सुनीता विलियम्स की घर वापसी
ऐसे में सुनीता विलियम्स की यह वापसी एक सुकून देती है और उम्मीद जगाती है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी घर लौट आने की एक गुंजाइश तो होती है. उनका घर लौट आना एक वैज्ञानिक घटना से कहीं अधिक बड़ा है. यह एक काव्य है, जो अंतरिक्ष के शून्य और धरती की माटी को जोड़ता है. यह एक नाद है, जो गीता के कर्मयोग और हिंदू दर्शन के पुनर्जन्म को प्रतिबिंबित करता है. जैसे कोई परिंदा थक कर अपने घोंसले में लौटता है, वैसे ही सुनीता धरती की गोद में विश्राम पा रही हैं.
उनका शरीर अब नवजात की तरह कोमल है. हृदय संकुचित है और मस्तिष्क की नसें भी नवजात की ही तरह कुछ सिकुड़ी सी होंगी, लेकिन उनकी आंखों में चमक, उनके कदमों में थकान, और उनके हृदय में अपनों से मिलन की उत्कंठा होगी और यह सब एक ऐसी तस्वीर बनाता है, जिनसे आंखें नमी पाती हैं और आत्मा अपनी ऊंचाई.
अब जब वह धरती पर वापसी कर चुकी हैं तो उन्हें यह खूबसूरत मौका खूब मुबारक... व्रत-तीज-त्योहार की कथा सुनाते हुए हमारे यहां महिलाएं आखिरी में कहती हैं 'जैसे उनके दिन फिरे, सबके फिरें...' सुनीता विलियम्स की तरह घर लौट पाना सबको नसीब हो, जैसे उनके दिन फिरें..