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तेलंगाना में केसीआर की हैट्रिक? जानिये कौन से नुस्खे हो सकते हैं कारगर

2018 में के. चंद्रशेखर राव ने समय से पहले विधानसभा चुनाव कराने का जोखिम उठाया और अपनी लोकप्रियता, गवर्नेंस की शैली और कल्याणकारी योजनाओं के बूते सत्ता में शानदार वापसी कर ली - इस बार बीजेपी-कांग्रेस की तरफ से मिली चुनौतियों के बावजूद अपने 9 साल के शासन की बदौलत ही वो हैट्रिक के मुहाने पर आ खड़े हुए हैं.

केसीआर अगर चुनाव जीत जाते हैं तो 'परिवारवाद' का मुद्दा चुनावों में कमजोर समझा जाएगा केसीआर अगर चुनाव जीत जाते हैं तो 'परिवारवाद' का मुद्दा चुनावों में कमजोर समझा जाएगा
मृगांक शेखर
  • नई दिल्ली,
  • 30 नवंबर 2023,
  • अपडेटेड 5:43 PM IST

तेलंगाना विधानसभा चुनाव 2023 में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के सामने जो चुनौती थी, 2014 और 2018 के मुकाबले काफी अलग थी. 2014 के चुनाव में कांग्रेस मान कर चल रही थी कि अलग तेलंगाना राज्य बनाने का फायदा उसे ही मिलेगा, लेकिन लोग तो पहले से ही केसीआर को नेता मान चुके थे. तब बीजेपी उतनी असरदार भी नहीं थी, और उसकी नजर केंद्र की सत्ता पर थी. 

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2018 में भी कांग्रेस ने केसीआर को घेरने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं मिला - और तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लगता है इस बार भी खाली हाथ रहना पड़ेगा. वो भी तब जबकि उसी छोर से बेहद मजबूत बीजेपी नेतृत्व भी केसीआर पर बराबर स्पीड से बाउंसर फेंक रहा था.

तेलंगाना की लड़ाई में शुरू से ही केसीआर के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी के बीच मची होड़ ने त्रिकोणीय मुकाबले की झलक दिखा रही थी, लेकिन चुनाव की तारीख नजदीक आने तक केसीआर और उनके परिवार को मैदान में श्योर शॉट जीत की गारंटी कुछ हद तक समझ में आने लगी थी. बीआरएस के सत्ता में होने और अपनी सरकार की योजनाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों के बूते केसीआर ने राजनीतिक विरोधियों के आक्रामक हमलों की धार को समय रहते बेअसर करना शुरू कर दिया था. केसीआर और उनका पूरा परिवार मिल कर लोगों के बीच जाकर अपनी तारीफ और कांग्रेस-बीजेपी के राजनीति इरादे समझाते रहे हैं.  
 
केसीआर के खिलाफ परिवारवाद और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने बेहद आक्रामक कैंपेन चलाया था, लेकिन बीआरएस नेता की समय से पहले की तैयारी, और लगातार कोशिशों ने उनको सत्ता की हैट्रिक के मुहाने पर पहुंचा दिया है.

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केसीआर की अब तक की कामयाबी का असली राज क्या है

2013 में जब यूपीए 2 की मनमोहन सिंह सरकार ने तेलंगाना के अलग राज्य के रूप में गठन पर मुहर लगायी तो, चुनावी तैयारियों के लिए साल भर का भी वक्त नहीं बचा था. 3 अक्टूबर, 2013 को तेलंगाना का गठन हुआ और अप्रैल, 2014 में चुनाव की तारीख आ गयी. केसीआर ने तेलंगाना राष्ट्र समिति 2001 में बनाई थी, और अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया था. 

1. केसीआर की पहली पारी: 2014 में तेलंगाना के चुनाव भी आंध्र प्रदेश के साथ ही हुए थे. तब 294 में से आंध्र प्रदेश को 175 सीटें दी गई थीं, और तेलंगाना के हिस्से में 199 सीटें आई थीं. तब बीजेपी की नजर तो वैसे भी लोक सभा चुनाव पर थी, लेकिन कांग्रेस को आंध्र प्रदेश के साथ साथ तेलंगाना में भी सरकार बना लेने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन दांव उलटा पड़ गया. राज्य के बंटवारे से नाराज आंध्र प्रदेश के लोगों ने कांग्रेस की तरफ से हाथ खींच लिये, लिहाजा दोनों ही राज्य हाथ से निकल गए. 

सफल आंदोलन के बाद चुनावी लड़ाई में भी केसीआर को वैसी ही सफलता मिली. 34.3 फीसदी वोटों के साथ केसीआर ने 119 में से 63 सीटें जीत ली - और केसीआर तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री बन गये. 

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कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट कर रह गयी, उसे 25.2 फीसदी वोट मिले. आंध्र प्रदेश में तो चंद्रबाबू नाडयू ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली, लेकिन तेलंगाना में टीडीपी तीसरे नंबर पर जा पहुंची और 15 सीटें ही जीत सकी. 

7 सीटें तो बीजेपी के हिस्से में भी आयी थीं, फिर भी वो असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM से पीछे रही. AIMIM को 7 सीटें मिली थीं.

2. शानदार वापसी के साथ दूसरी पारी: केसीआर को भी दूसरी पारी के लिए तभी मैदान में उतरना था, जब देश में 2019 के आम चुनाव होते. केसीआर ने 9 महीने पहले ही विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी - और चुनाव आयोग ने उन चार राज्यों के साथ ही तेलंगाना में भी विधानसभा चुनाव करा दिये, जिनके कार्यकाल पूरे हो रहे थे. 

2019 को लेकर तैयारी तो कांग्रेस ने भी जबरदस्त की थी, लेकिन बीजेपी तो बहुत आगे चल रही थी. केसीआर ने ये सब पहले ही भांप लिया था. केसीआर को लगा होगा कि कांग्रेस के साथ साथ बीजेपी से भी अलग से मुकाबला करना होगा, क्योंकि मोदी लहर का भी तो कुछ न कुछ असर होना ही था. 

केसीआर की तेलंगाना में समय से पहले चुनाव करा लेने की रणनीति भी कामयाब रही. 2018 में केसीआर ने 88 सीटों पर जीत के साथ सत्ता में शानदार वापसी की. पहली पारी की 63 सीटों के मुकाबले तब 25 सीटों का फायदा मिला था. कांग्रेस दो सीटों के नुकसान के साथ 19 सीटें जीत सकी, लेकिन बीजेपी को सिर्फ एक ही सीट पर जीत मिल पायी. 

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2018 की चुनावी जीत केसीआर की सरकार पर जनता के भरोसे की मुहर थी, जिसे एक बार फिर वो उसी तरीके से भुनाने की कोशिश में चुनाव मैदान में उतरे थे. 

3. अबकी बार, फिर केसीआर: हाल के चुनाव प्रचार में केसीआर सहित बीआरएस के सभी नेताओं की रैलियों और रोड शो में मुख्य तौर पर तीन चीजों पर जोर देखने को मिल रहा था - एक, केसीआर सरकार की कल्याणकारी योजनाएं. दो, 2014 बीआरएस शासन के दौरान तेलंगाना का विकास - और तीसरा ये कि कैसे बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति तेलंगाना के हितों के खिलाफ हो सकती है.

केसीआर ने इस बार समय से पहले चुनाव कराने जैसा कदम तो नहीं उठाया, लेकिन अपनी पार्टी का नाम जरूर बदल दिया. बदलाव के साथ तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम भारत राष्ट्र समिति हो गया है. 

अपनी पार्टी का नाम बदलना भी केसीआर की रणनीति का ही हिस्सा है. यहां तो हम मुख्यमंत्री के रूप में केसीआर की हैट्रिक की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन तेलंगाना में वो अपनी तीसरी पारी की अलग ही कहानी सुना चुके हैं. 

पिछले साल मीडिया से बातचीत में के. चंद्रशेखर राव कहा करते थे, 'जब मेरा जन्म हुआ होगा तब क्या मेरे पिता ने सोचा होगा... एक दिन मैं मुख्यमंत्री बनूंगा... राजनीति में कुछ भी संभव है!'

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कहानी केसीआर के बयान के आगे और पीछे हुआ करती थी. 2023 के चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस को काउंटर करने के लिए केसीआर अक्सर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एनटी रामाराव का नाम जरूर लिया करते थे. कांग्रेस के 'इंदिराम्मा राज्यम' को तेलंगाना के लोगों के खिलाफ बताने के लिए केसीआर का सवाल रहा है, अगर सब अच्छा ही था तो एनटीआर को अलग पार्टी क्यों बनानी पड़ी थी? 

केसीआर ने अपनी राजनीतिक पारी एनटीआर के साथ ही शुरू की थी, और वही उनकी दूसरी पारी थी. दूसरी पारी वो रही जब वो तेलंगाना के मुख्यमंत्री बने - लेकिन तीसरी पारी वो नहीं है, जब वो एक बार फिर तेलंगाना के मुख्यमंत्री बनने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं - बल्कि, अपनी तीसरी पारी वो दिल्ली में होने के संकेत देते रहे हैं.  

टीआरएस के बीआरएस में तब्दील होने के पीछे केसीआर की रणनीति तीसरी पारी को लेकर ही है - आगे की बात और है, अगर वो मुख्यमंत्री पद की हैट्रिक लगा लेते हैं, तो भी वैसा ही माना जाएगा. 

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