
उपचुनाव जीतने के लिए योगी आदित्यनाथ भले ही मंत्रियों की टीम बनाते हों, लेकिन बाकी काम तो अफसरों के ही जिम्मे होता है. शासन के सारे काम प्रशासनिक अफसर और कानून व्यवस्था पुलिसवाले संभालते हैं.
विधायकों की कौन कहे, सुनने को तो यहां तक मिलता है कि यूपी के अफसर मंत्रियों तक की बात नहीं सुनते. ऐसे कई मौके सामने आये हैं जब मंत्रियों ने अफसरों की लिखित शिकायत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की है. यूपी सरकार में मंत्री संजय निषाद ने भी अफसरों की मनमानी की शिकायत की थी, और कहा था कि इससे चुनाव पर असर पड़ता है. एक और मंत्री आशीष पटेल ने तो सोशल मीडिया पोस्ट में यहां तक लिखा था कि अगर उनके साथ कोई अनहोनी होती है, तो उसकी जिम्मेदारी यूपी पुलिस की एसटीएफ की होगी.
बीच बीच में ये भी सुनने को मिलता है कि यूपी के अफसर जमीनी तस्वीर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक पहुंचने ही नहीं देते. मतलब ये कि यूपी के अफसर मुख्यमंत्री को अंधेरे में रखते हैं - और इसका ताजातरीन उदाहरण बनारस में देखने को मिला है.
12 मार्च को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के दौरे पर थे - और निरीक्षण के दौरान सड़क पर सांड दिखाई पड़ गया, और उसकी गाज कर्मचारियों पर गिरी है.
होली से पहले क्या हुआ बनारस में?
होली से ठीक दो दिन पहले योगी आदित्यनाथ वाराणसी के कबीरचौरा इलाके में सरकारी कामकाज का निरीक्षण कर रहे थे. तभी सड़क पर सांड घूमता दिखा, और अफसरों में हड़कंप मच गया. असल में, नगर निगम प्रशासन को ये सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था कि मुख्यमंत्री के निरीक्षण वाले रूट पर किसी भी सूरत में आवारा पशु न दिखने चाहिये.
बनारस में आप घर से निकलें और सड़क पर सांड न दिखे तो कैसा लगेगा? कितना अजीब लगेगा. जिन मान्यताओं के तहत बिल्ली का रास्ता काट देना अशुभ माना जाता है, बनारस में वैसी ही धारणा सड़क पर सांड को लेकर जुड़ी हुई है, लेकिन बिल्ली के ठीक उलट. बिल्ली अशुभ है, तो सांड शुभ है. सड़क पर सांड का होना, मतलब शुभ यात्रा का संदेश है.
सांड बोले तो, नंदी. नंदी यानी भगवान शंकर का वाहन. अगर सड़क पर नंदी नहीं होंगे तो शिव जाएंगे कैसे. जो लोग सुबह सुबह गंगा स्नान करने के बाद मंदिर जाते हैं. भोले शंकर को जल चढ़ाते हैं, वे बाहर आकर नंदी की पूंछ पर भी शीश उसी श्रद्धा के साथ नवाते हैं.
जिस काशी की शोहरत ही '... सांड, सीढ़ी और संन्यासी' से हो, वहां नंदी को आवारा पशुओं की कैटेगरी में भला कौन रख सकता है. जाहिर है, ड्यूटी पर तैनात कर्मचारियों पर कार्रवाई अफसरों ने अपने स्तर पर ही की होगी. वे ही अफसर जो अपनी गलतियां मुख्यमंत्री से छुपाना चाहते हैं, क्योंकि नंदी की अहमियत तो योगी आदित्यनाथ को समझाने की जरूरत नहीं ही है.
लगता तो नहीं कि योगी आदित्यनाथ ने नंदी को देखकर कुछ कहा भी होगा. कहने की बात तो दूर, शायद सोचा भी नहीं होगा. भला गोरक्षपीठ के महंत नंदी को आवारा पशु कैटेगरी में कैसे रख सकते हैं. वैसे भी योगी आदित्यनाथ नाथ की बछड़ों को पुचकारते और गौशालों में चारा देते तस्वीरें सोशल मीडिया पर भरी पड़ी हैं.
जो शाश्वत है, उसे छुपाया कैसे जा सकता है?
और योगी आदित्यनाथ ही क्यों, आज तक किसी बनारसी को सड़क पर सांड होने को लेकर कोई शिकायत नहीं हुई होगी. शहर के एक छोर से दूसरी छोर तक आलम ऐसा ही है. लेकिन खबर आई है कि ड्यूटी में लापरवाही को गंभीरता से लेते हुए नगर आयुक्त अक्षत वर्मा ने कुल 16 कर्मचारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की है. दो बेलदारों को सस्पेंड कर दिया गया है, और ठेके पर काम कर रहे 14 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है. ठेके पर कर्मचारी मुहैया कराने वाली कंपनी को भी चेतावनी दी गई है. आगे से फिर ऐसा हुआ तो ब्लैकलिस्ट कर दी जाएगी.
सवाल ये है कि निरीक्षण के दौरान सांड को सड़क पर आने से रोक कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्या बताने की कोशिश है? यही कि शहर की सड़कों पर सांड नहीं हैं. या कोई और भी आवारा पशु नहीं हैं. ये तो कभी भी देखा जा सकता है. और, कुछ किलोमीटर चलकर देखा जाये तो किसी न किसी सड़क पर या मोड़ पर ऐसा नजारा तो आम है.
आवारा पशुओं से सड़क जाम तो होता ही है, जिससे से आम मुसाफिर परेशान होता है. आवारा पशुओं से फसलें भी बर्बाद होती रही हैं, और किसान परेशान रहता है - लेकिन कभी ऐसी कड़ी कार्रवाई तो देखने को नहीं ही मिलती है. कुछेक अपवाद मिलते हैं तो बात और है.
ड्यूटी में लापरवाही का मामला बेशक गंभीर है, लेकिन जिस बात के लिए कर्मचारियों पर कार्रवाई की गई है, उससे आम जनमानस को भला क्या फायदा होने वाला है. ये मामला ही बता रहा है कि मुख्यमंत्री के निरीक्षण के दौरान खास निर्देश दिये गये थे, लेकिन तब भी उस चीज को रोका नहीं जा सका - मतलब, न तो वो रुका है, न ही उसे रोका जा सकता है.
और ये अक्सर होता है
1. महाकुंभ के दौरान मौनी अमावस्या पर मची भगदड़ में हुई मौतों का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है. महाकुंभ शुरू होने के बहुत पहले से योगी आदित्यनाथ मीटिंग किया करते थे. बीच बीच में निरीक्षण भी करते रहते थे - लेकिन, भगदड़ मची. और, लोग मारे भी गये.
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की शिकायत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में भाषण तो लंबा चौड़ा दिया, लेकिन महाकुंभ में मरने वालों को श्रद्धांजलि नहीं दी - और समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव का दावा है कि जो महाकुंभ से जो एक हजार लोग अब तक गायब हैं, उनके बारे में कोई कुछ क्यों नहीं बता रहा है.
आखिर महाकुंभ के मोर्चे पर स्थिति को संभालने की जिम्मेदारी तो अफसरों की ही थी. और, मौनी अमावस्या की घटना की जानकारी भी बहुत देर से दी गई, अगर कोई राजनीतिक अड़चन नहीं थी तो जानकारी देने की जिम्मेदारी किसकी बनती है. अफसरों की ही तो जिम्मेदारी है.
2. कोविड संकट के दौरान भी कई सारी चीजों को लेकर अफसरों पर गुमराह किये जाने के आरोप लगे थे. बीजेपी के सांसद और मंत्री भी अफसरों पर आरोप लगाते थे, और मुख्यमंत्री के नाम शिकायती पत्र भी लिखे थे.
3. गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौत की घटना से पहले भी योगी आदित्यनाथ ने निरीक्षण किया था. तब योगी आदित्यनाथ कुछ ही दिन पहले मुख्यमंत्री बने थे. आरोप लगा कि अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत हो गई थी.
ये आरोप झुठलाने के लिए पूरा सरकारी अमला सड़क पर उतर आया था. अगर निरीक्षण में सब कुछ दुरुस्त था तो अचानक एक साथ बड़ी संख्या में बच्चों की मौत कैसे हुई? क्या यूपी के अफसरों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को तब भी अंधेरे में रखा था?