
वसुंधरा राजे की छवि ऐसे नेता की बन चुकी है जो मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को सीधे चैलेंज करता है. 2014 के बाद से मोदी-शाह की जोड़ी वैसे ही ताकतवर नेतृत्व बन कर उभरी है, जैसे किसी दौर में इंदिरा गांधी संगठन और सत्ता पर एक बराबर काबिज हुआ करती थीं.
वसुंधरा राजे पुराने दौर की बीजेपी की शायद अकेली नेता होंगी जो अब भी अपनी जिद पर कायम हैं. वरना, बीजेपी नेताओं का हाल तो सब देख ही रहे हैं.
लोकतंत्र के नाम पर बीजेपी में सिर्फ फैसले सुना दिये जाते हैं. किसी को कोई जिम्मेदारी देने से पहले उनसे कुछ पूछा नहीं जाता. बस बता दिया जाता है. मध्य प्रदेश को लेकर बीजेपी उम्मीदवारों की जो सूची जारी हुई है, उसमें और अफसरों के ट्रांसफर के किसी सरकारी सूची में क्या फर्क है. अचानक सूची के सामने आने पर सांसदों की कौन कहे, मंत्रियों तक को मालूम होता है कि उनका उनके होमटाउन में ट्रांसफर कर दिया गया है.
ले देकर कैलाश विजयवर्गीय अकेले नेता रहे जो सरेआम दिल की बात जबान पर ला पाये. साफ बता दिये कि बड़े नेता बन जाने के बाद कौन सोचता है कि ये सब भी करना पड़ेगा. घूम घूम कर लोगों के सामने हाथ जोड़ना पड़ेगा. लेकिन इससे ज्यादा उनके हाथ में कुछ है भी नहीं. लिहाजा, ये भी मान लिये कि क्या किया जा सकता है - पार्टी का हुक्म है, हुक्म की तामील तो करनी होगी ही.
राजस्थान को लेकर भी मोदी-शाह दरबार से मध्य प्रदेश जैसा ही फरमान आने वाला है, लेकिन उसमें एक ही अपवाद होगा और वो हैं - वसुंधरा राजे. आलाकमान से दो-दो हाथ के लिए हरदम तैयार रहती हैं वसुंधरा राजे.
वसुंधरा की ताकत बनी मुसीबत
2019 में वसुंधरा राजे को बीजेपी नेतृत्व ने पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया था. मतलब, बीजेपी ने एक सर्कुलर निकाल कर वसुंधरा राजे को दिल्ली अटैच कर दिया था, लेकिन वो ऐसे कागजों की परवाह कहां करने वाली.
चुनाव हारने के बाद मुख्यमंत्री आवास तो छूटना ही था, लेकिन धौलपुर पैलेस भला कौन ले सकता है. पुरखों की विरासत है. वो भी राजघराने की विरासत - उसके आगे दिल्ली के बंगले भी फेल. वाजपेयी सरकार में वसुंधरा राजे मंत्री रह चुकी थीं, लेकिन मोदी सरकार में ये सब उनको कतई मंजूर न था.
पांच साल होने जा रहे हैं, लेकिन वसुंधरा टस से मस नहीं हुईं. जयपुर से दिल्ली शिफ्ट होने को कतई राजी नहीं हुईं - और अब एक बार जब राजस्थान में फिर से चुनाव होने जा रहे हैं वसुंधरा राजे ठान कर बैठी हैं कि बीजेपी की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री तो वही बनेंगी.
वसुंधरा राजे की ताकत ही अब उनकी मुसीबत बन गई है. असल में राजनीति में भी उन्होंने वसुंधरा घराना बना रखा है. बीजेपी नेतृत्व उस घराने को फूटी आंख नहीं देखना चाहता. ऐसा भी नहीं कि वसुंधरा घराने की ही हर तरफ तूती बोलती हो, लेकिन कुछ क्षेत्रों में दबदबा तो है ही.
वसुंधरा राजे उसी दबदबे की राजनीति कर रही हैं. जब तक मुख्यमंत्री रहीं, उनकी मर्जी के बगैर पत्ता नहीं हिलता था. 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी राज्य में नया अध्यक्ष नियुक्त करना चाहती थी. बीजेपी नेतृत्व जिसे जिम्मेदारी देना चाहता था, वो चेहरा वसुंधरा को नहीं पसंद था. नियुक्ति नहीं हुई. राजस्थान बीजेपी को नया अध्यक्ष तभी मिला जब चुनाव हार जाने के बाद वसुंधरा का असर थोड़ा कम हुआ.
राजनीति भी रजवाड़े वाली स्टाइल में
संभव है वसुंधरा राजे को उनकी लोकप्रियता राजसी अहसास दिलाता हो. ये तो है कि राजस्थान बीजेपी में उनकी टक्कर का कोई और नेता नहीं है. मोदी-शाह और उनकी टीम वसुंधरा को साइडलाइन करने की बार बार कोशिश करती है, लेकिन वो लगातार बाउंसबैक कर लेती हैं.
2006 में राजस्थान की मुख्यमंत्री रहते वो रैंप पर कैटवॉक भी कर चुकी हैं. तब बांग्लादेश के एक फैशन डिजायनर ने जयपुर में शो किया था. खादी वस्त्रों के प्रमोशन के लिए आयोजित शो में लाल साड़ी पहन कर वसुंधरा राजे जाने माने मॉडल राहुल देव के साथ रैंप पर नजर आयी थीं.
70 साल की उम्र हो जाने के बाद भी राजस्थान में वो ऐसी नेता हैं जो अकेले दम पर भीड़ बटोर सकती हैं. जाहिर है जो इतना दमखम रखता हो, गुरूर तो होगा ही. उपलब्धियों पर गुरूर होना स्वाभाविक है, लेकिन कई बार ये बहुत भारी भी पड़ता है - और वसुंधरा के साथ आज जो कुछ भी हो रहा है, उसी का नतीजा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी वसुंधरा राजे का गहरा रिश्ता रहा है, लेकिन कुछ मौके ऐसे भी आये हैं जब वहां भी टकराव की नौबत आ चुकी है. वैसे मोदी-शाह से टकराने की ताकत उनको अपनी लोकप्रियता के अलावा आरएसएस से ही मिलती है.
राजस्थान में भी संघ की जड़ें गहरी है, और वसुंधरा का वहां भी अच्छा खासा प्रभाव है. कर्नाटक की हार के बाद हार के बाद संघ के मुखपत्र में कहा गया था कि सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे करके चुनाव नहीं जीता जा सकता - जीत के लिए क्षेत्रीय क्षत्रप बेहद जरूरी हैं.
राजस्थान के मामले में वसुंधरा राजे ने इसे अपने लिए प्रशस्ति पत्र मान लिया, और फिर से भिड़ गयीं. जिन समर्थकों के बूते वसुंधरा राजे राजस्थान में राजनीति करती हैं, आने वाले चुनाव में फिर से टिकट दिलाने की जिम्मेदारी है. टिकट मिल जाने के बाद हार जीत तो कुछ उनकी वजह से, और कुछ पार्टी के वोट बैंक के चलते होगी. लेकिन टिकट ही नहीं मिला तो कुछ नहीं होने वाला.
वसुंधरा के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह नजीर हैं
पंजाब में वसुंधरा राजे की तरह पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की भी राजनीति चलती रही. कांग्रेस में रहते वो भी वसुंधरा राजे की ही तरह ताल ठोक कर राजनीति करते रहे. ये भी संयोग ही है कि जैसे वसुंधरा राजे धौलपुर पैलेस से राजनीति में आयी हैं, और कैप्टन अमरिंदर सिंह पटियाला स्टेट से.
वसुंधरा राजे और कैप्टन अमरिंदर सिंह की पॉलिटिकल स्टाइल के किस्से भी एक जैसे ही सुनने को मिलते रहे हैं. सरकारी ऑफिस टाइम खत्म होते ही दोनों नेताओं के बारे में कहा जाता रहा है कि राजसी ठाठ हावी हो जाता रहा. जब 2017 में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अमरिंदर सिंह का कैंपेन संभाला तो कैप्टन विद कॉफी कार्यक्रम इसीलिए रखा ताकि डिस्कनेक्ट का जो माहौल बना हुआ है, उसकी दीवारें तोड़ी जा सकें.
लंबे अर्से तक कैप्टन भी उसी तेवर के साथ राजनीति करते रहे जैसे वसुंधरा राजे प्रैक्टिस करती हैं - कहीं ऐसा तो नहीं कि वसुंधरा राजे का भी कैप्टन का ही हाल होने वाला है?