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BJP और मोदी के लिए क्यों श्रद्धेय हैं भारत रत्न पीवी नरसिम्हा राव, सात कारणों से समझिये

पीवी नरसिम्हा राव को मोदी सरकार द्वारा भारत रत्‍न देना भले राजनीतिक फैसला माना जाए, लेकिन आज भारतीय जनता पार्टी जिस रास्ते पर चल रही है उनमें से अधिकतर रास्तों की जमीन पूर्व प्रधानमंत्री राव ने ही तैयार की थी. भारतीय जनता पार्टी वाली केंद्र सरकार ने राव को भारत रत्न देने की घोषणा करके कांग्रेस से एक और आइकॉन छीन लिया है.

नरसिम्हा राव को भारत रत्न देकर बीजेपी ने कांग्रेस का एक और आइकॉन छीन लिया नरसिम्हा राव को भारत रत्न देकर बीजेपी ने कांग्रेस का एक और आइकॉन छीन लिया
संयम श्रीवास्तव
  • नई दिल्ली,
  • 09 फरवरी 2024,
  • अपडेटेड 3:13 PM IST

पूर्व पीएम इंदिरा गांधी और पूर्व पीएम राजीव गांधी के रत्न पूर्व पीएम नरसिम्हा राव को भारत रत्न देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस से एक और आइकॉन छीन लिया है. सुभाषचंद्र बोस, वल्लभभाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री आदि की तरह अब नरसिम्हा राव भी बीजेपी के फेस हो गए. 1991 में राजीव गांधी की हत्या होने के बाद नरसिम्हाराव ने बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में देश को चलाया . उनपर अपनी सरकार को बचाने के लिए कई आरोप लगे पर अपने कार्यकाल में उन्होंने जितना देश के लिए किया वो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. 1991 में देश अभूतपूर्व आर्थिक संकट से गुजर रहा था . नरसिम्हा राव की काबिलियत ही थी कि जो हालत आज पाकिस्तान की है उस हालत में पहुंचने से पहले भारत को बचा लिया था. जबकि उनकी सरकार अल्पमत की सरकार थी. उनकी कई पार्टियों के प्रति जवाबदेही थी.पर चाहे आतंकवाद का खात्मा हो या देश की कूटनीति में गुणात्मक परिवर्तन हो उन्होंने वह सब किया जो देश के लिए जरूरी था. आज भारतीय जनता पार्टी जिस रास्ते पर चल रही है उसके लिए जमीन तैयार करने का श्रेय नरसिम्हा राव को ही जाता है. आइये देखते हैं कि बीजेपी के लिए क्यों श्रद्धेय हैं नरसिम्हा राव और क्यों वो भारत रत्न के असली हकदार थे ? 

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1- जिस अर्थव्यस्था की वकालत बीजेपी करती है उसकी शुरूआत राव ने कर दी थी

आजादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में देश की अर्थव्यवस्था एक बंद अर्थव्यवस्था का रूप ले ली थी. अंग्रेजों के जाने के बाद कांग्रेस में वामपंथी नेताओं का वर्चस्व हो गया जिन्होंने धीरे-धीरे देश को एक बंद अर्थव्यवस्था वाले देश में बदल दिया. नतीजा यह हुआ कि भारत की ग्रोथ रेट 2 से 3 परसेंट पर ही अटक कर रह गई . यही कारण रहा कि भारत की अर्थव्यवस्था को हिंदू विकास दर कहकर अपमानित किया जाता रहा.1991 तक देश की अर्थव्यवस्था का ये हाल हो गया कि जब देश को अपना कर्ज चुकाने के लिए देश का सोना गिरवी रखना पड़ा था.

नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल की शुरुआत के 100 दिनों तक अर्थव्यवस्था पर ही पूरा ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने कई नियमों में बदलाव किए, जैसे कि रुपए की कीमत में गिरावट की गई, न्यू ट्रेड पॉलिसी लागू की गई, देश में व्यापार के लिए बेहतर माहौल बनाया गया और इसके लिए कई कानूनों में बदलाव किए गए. फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट में बदलाव किया गया. विदेशी कंपनियों को भारत में व्यापार करने हेतु आकर्षित करने के लिए फिस्कल स्टेबलाइजेशन प्रोग्राम शुरू किए गए. इसके साथ ही पब्लिक सेक्टर का डिसइनवेस्टमेंट भी शुरू किया गया.आज देश दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की मोड़ पर खड़ा है तो उसका रास्ता नरसिम्हा राव के दिखाए रास्ते से ही होकर जा रहा है. 

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कांग्रेस के कुछ लोग नरसिम्हा राव की सफलता को मनमोहन सिंह से जोड़कर देखते हैं. यह सही है कि मनमोहन सिंह को नरसिंहा राव ने वित्त मंत्री बनाया था. यह भी सही है कि मनमोहन सिंह के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता. पर जब मनमोहन के बॉस राहुल और सोनिया हो गए तो उनकी नीतियों में एक बार फिर कांग्रेस के पुराने दौर वाली बातें दिखनी लगी थीं. जो परफार्मेंस उन्होंने नरसिम्हा राव के कार्यकाल में दिखाया वो बाद के दौर में जब मनमोहन सिंह खुद पीएम बन गए नहीं दिखा सके. पीवी नरसिम्हा राव के ही प्रयास थे कि जो भारत उनके आने से पहले कर्ज में डूबा था, 1994 तक उसकी जीडीपी 6.7 फ़ीसदी तक पहुंच गई थी. जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने उस वक्त भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार केवल 400 मिलियन डॉलर का था. लेकिन उनके अथक प्रयासों की वजह से ही 1994 तक भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 15 गुना बढ़ोतरी हुई थी. 

2- मोदी की विदेश नीति की नींव नरसिम्हा राव ने रखी थी

आज भारत जिस विदेश नीति के तहत आगे बढ़ रहा है उसकी नींव प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने ही रखी थी. उन्होंने भारत को रूस का दोस्त रहते हुए रूसी कैंप से बाहर निकाला. राव के पहले तक भारत के तमाम प्रधानमंत्री मुस्लिम वोट बैंक के चक्कर में इजराइल से एक निश्चित दूरी बनाए हुए थे. नरसिम्हा राव देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अपने कार्यकाल में इजराइल के साथ भारत के रिश्तों को आधिकारिक रूप दिया. 90 के दशक तक भारतीय कूटनीति का पूरा झुकाव सोवियत संघ, यानि रूस की तरफ होता था. पीवी नरसिम्हा दूरदर्शी थे उन्हें पता था कि आने वाला समय अमेरिका का होने वाला है. सबसे पहले रूस के साथ-साथ अमेरिका को बराबर का तवज्जो देने की कोशिश राव की सरकार में ही हुई. 1992 में भारत और अमेरिका ने मिलकर ‘मालाबार नेवल एक्सरसाइज’ किया. दरअसल नरसिम्हा राव को पता था कि हिंद महासागर में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भारत के पास अमेरिका जैसे दोस्त का होना बेहद जरूरी है. ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ भी नरसिम्हा राव की ही देन थी. आज भारत के पीएम नरेंद्र मोदी इसी पॉलिसी को आगे बढ़ा रहे हैं. यही कारण है कि आज भारत के रिश्ते वियतनाम- लाओस- इंडोनेशिया- कंबोडिया और थाईलैंड से मजबूत हो रहे हैं. राव के कार्यकाल में ही संसद के दोनों सदनों का संयुक्‍त सत्र बुलाकर पाक अधिकृत कश्‍मीर को लेकर प्रस्‍ताव पास हुआ कि यह भारत का अभिन्‍न अंग है. और भारत इसे वापस लेने का प्रयास करेगा.

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3- देश को बताया कि नेहरू परिवार से अलग भी कोई व्यक्ति 5 साल चला सकता है देश

भारतीय जनता पार्टी ने शुरू से ही कांग्रेस के वंशवाद का विरोध किया है. आजादी के  4 दशक तक देश के लोग यही मानकर चलते थे कि देश को चलाने का हुनर केवल नेहरू-गांधी फैमिली के पास ही है. नेहरू की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए देश के पीएम लाल बहादुर शास्त्री बने. ताशकंद में उनकी मृत्यु के बाद नेहरू की इकलौती संतान इंदिरा गांधी पीएम बनीं.देश में इमरजेंसी लगाने के बाद इंदिरा गांधी को जनता ने 1977 में पैदल कर दिया. पर जनता पार्टी के नेतृत्व में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. पर 1980 आते आते जनता पार्टी में अंतर्कलह के चलते सरकार गिर गई. 1980 में फिर भारी बहुमत से इंदिरा गांधी की वापसी हो गई. 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बनें. इतने दिन के शासन काल में लाल बहादुर शास्त्री , मोरारजी देसाई और चरण सिंह को पीएम बनने का मौका मिला. पर कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका. देश की जनता के मन में एक बात घर कर गई थी कि भारत को चलाने में नेहरू-गांधी फैमिली के लोग ही सक्षम हैं. इन भ्रम को तोड़ा पीवी नरसिंहा राव ने . उन्होंने एक अल्पमत सरकार को 5 साल चलाकर साबित किया कि गैर गांधी परिवार का भी कोई व्यक्ति देश चला सकता है. उसके बाद उन्होंने देश को ऐसी राह दिखाई कि गांधी परिवार का फिर कोई दूसरा शख्स प्रधानमंत्री नहीं बन सका.

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4-राम मंदिर आंदोलन को रास्ता दिया

1992 में जब अयोध्या में कार सेवा के दौरान बाबरी मस्जिद गिराई गई , देश के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ही थे. बहुत से लोगों का मानना है कि यदि नरसिम्हा राव चाहते तो बाबरी का ढांचा बच जाता. छह दिसंबर को ही राव ने अपने निवास पर शाम छह बजे मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह अपनी आत्मकथा 'ए ग्रेन ऑफ सैंड इन द अवर ग्लास ऑफ टाइम' में लिखते हैं कि 'पूरी बैठक के दौरान नरसिम्हा राव इतने हतप्रभ थे कि उनके मुंह से एक शब्द तक नहीं निकला. सबकी निगाहें जाफर शरीफ की तरफ मुड़ गईं.जाफर शरीफ ने कहा, इस घटना की देश, सरकार और कांग्रेस पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. माखनलाल फोतेदार ने उसी समय रोना शुरू कर दिया, लेकिन राव बुत की तरह चुप बैठे रहे.

यह भी कहा जाता है कि जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई जा रही थी, तब राव अपने आवास पर पूजा कर रहे थे. कुछ लोग कहते हैं कि उस दौरान वो सो रहे थे. उन्होंने अपने अधिकारियों से उन्हें डिस्टर्ब न करने को कह रखा था. अर्जुन सिंह के दावे पर भरोसा किया जा सकता है.उन्होंने कहा था कि छह दिसंबर की घटना के दौरान प्रधानमंत्री से उन्होंने संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें कहा गया कि उन्होंने खुद को कमरे बंद कर लिया है और निर्देश मिले हैं कि किसी भी हालत में उन्हें परेशान न किया जाए. ऐसा माना जाता है कि नरसिम्हा राव खुद चाहते थे गुलामी का प्रतीक बाबरी मस्जिद किसी न किसी तरीके से खत्म हो जाए.

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5- विपक्षी वाजपेयी को सरकार के प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाकर संयुक्त राष्ट्र भेजा था

नरसिम्हा राव ने अपने प्रधानमंत्री रहते हुए भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजे गए प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सौंपा था. देश के इतिहास में यह पहली बार और शायद अंतिम बार ऐसा हुआ था कि विपक्ष के किसी नेता को इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई थी. दरअसल, 27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में इस्लामी देशों समूह ओआईसी के जरिए प्रस्ताव रखा. उसने कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा की. बताया यह जाता है कि अगर यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता. वाजपेयी ने अपनी वाक पटुता से भारतीय प्रतिनिधिमंडल का बखूबी नेतृत्व किया और पाकिस्तान को विफलता हाथ लगी. 

6- कांग्रेस नेतृत्‍व ने भले राव के प्रति बेरुखी दिखाई, लेकिन BJP ने उन्‍हें यथोचित सम्‍मान दिया

नरसिंहराव और सोनिया गांधी के रिश्‍ते तब सबसे निचले स्‍तर तक चले गए थे जब राव सरकार ने बोफोर्स केस को खत्‍म किये जाने के दिल्‍ली हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने का निर्णय लिया. जिसका मतलब होता कि गांधी परिवार पर लगे आरोप फिर जिंदा हो जाते. अल्‍वा बताती हैं कि यह खबर मिलने पर नाराज सोनिया ने उनसे कहा कि क्‍या वो (राव) मुझे जेल भेजना चाहते हैं. राव और सोनिया के बीच रिश्‍ते कभी सामान्‍य नहीं हो पाए. निधन के बाद जब राव का शव दिल्‍ली के कांग्रेस मुख्‍यालय के भीतर नहीं लाने दिया गया. उनके शव वाहन को मुख्‍यालय के बाहर फुटपाथ पर ही खड़ा रखा गया, वहीं उसके पास नेताओं के बैठने के लिए कुर्सी लगवा दी गई. और वहीं बता दिया गया कि राव आंध्र प्रदेश के नेता हैं, इसलिए उनका अंतिम संस्‍कार भी आंध्र में ही होगा. और शव को विमान से भेज दिया गया.

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कांग्रेस नेतृत्‍व और राव के बीच फासला उनकी मौत के बाद भी कायम रहा. और कहा जाता है कि आज भी कांग्रेस मुख्‍यालय में प्रधानमंत्री रहे अपने इस नेता की तस्‍वीर नहीं लगी है, जबकि राव से कहीं जूनियर नेताओं की फोटो वहां मौजूद है. मोदी सरकार राव को भारत रत्‍न देकर यह साबित करना चाहती है कि अपने जिस नेता को कांग्रेस नेतृत्‍व ने अपमानित किया और बाद में भुला दिया, उसे वे न सिर्फ स्‍मरण कर रहे हैं. बल्कि उनके योगदान के लिए उन्‍हें देश का सर्वश्रेष्‍ठ सम्‍मान दे रही है. भले वो विपक्षी पार्टी से हों.  राव को भारत रत्‍न देना यदि मोदी सरकार की राजनीति है तो वर्तमान कांग्रेस इसमें फंसती नजर आ रही है. क्‍योंकि, इस खबर पर कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने बड़ी ही बेरुखी से कह दिया कि यदि उन्‍हें सम्‍मान दिया है तो क्‍या?

7- पंजाब के आतंकवाद को शांत किया

80 से लेकर 90 के दशक की शुरूआत तक पंजाब खालिस्तान के नाम पर आतंकवाद और अलगाववाद की गिरफ्त में था. इंदिरा गांधी ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद भी आतंकवाद को कंट्रोल नहीं कर सकी . बल्कि यूं कहें तो उसके बाद पंजाब का आतंकवाद और भड़क चुका था. राजीव गांधी ने भी हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ पंजाब समझौता किया पर नतीजा वही रहा ढाक के तीन पात. पंजाब 1987 से लेकर 1992 तक लगातार 5 वर्षों तक वहां राष्ट्रपति शासन के तहत आपातकाल लागू रहा. इतने सालों तक राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए देश के संविधान में लगभग 5 संशोधन (59वां, 63वां, 64वां, 67वां और 68वां) किए गए. नरसिम्हा राव ने कमान संभालते ही पंजाब के लोगों को अपनी सरकार खुद चुनने का मौका देने का ऐलान कर दिया.

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इसके बाद फरवरी 1992 में वह चुनाव हुए और चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिला. उसके बाद बेअंत सिंह को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और राज्य के डीजीपी केपीएस गिल के साथ ऐसी रणनीति पर काम किया कि जो आगे चलकर पंजाब की शांति का आधार बना.
 

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