
बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए बिहार में अपने सीट बंटवारे में भाजपा को 17, जेडीयू को 16, चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को पांच और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) और उपेन्द्र कुशवाह की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) को एक-एक सीट दी है. जॉइंट पीसी में कुशवाहा ने शामिल न होकर संदेश दे दिया कि वो बंटवारे से नाखुश हैं. उन्हें कम से कम दो सीटों की उम्मीद थी. सवाल ये है कि छोटे-छोटे कई दलों की कीमत पर नीतीश कुमार को इतनी तवज्जो देने का कारण क्या है. जबकि बाजी तो आज बीजेपी के हाथ में है. नीतीश के पास तो अब कोई ऑप्शन भी नहीं है. उन्हें सीट शेयरिंग में मिले 16 सीट जीतने के दावे पर एक सामान्य आदमी भी प्रश्नचिह्न लगा देगा. फिर बीजेपी की ऐसी क्या मजबूरी है कि वो नीतीश कुमार की हर शर्त के सामने झुकने को मजबूर है? भाजपा ने जेडी यू की तुलना में केवल एक सीट अधिक हासिल की है उसके पीछे भी कारण है. क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनावों में दोनों प्रमुख सहयोगियों ने समान संख्या में 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था. पर जेडीयू 16 सीट ही जीत सकी थी जबकि बीजेपी ने अपनी 17 सीटों पर कामयाबी हासिल की थी.आइए देखते हैं कि बीजेपी की नीतीश कुमार को लेकर क्या मजबूरियां हैं.
1-मजबूत राजद का मुकाबला अकेले संभव नहीं
बिहार में एमवाई समीकरण का मुकाबला करने के लिए बीजेपी अभी भी कोई कारगर उपाय नहीं कर पाई है. 2019 के लोकसभा चुनावों में भले ही एनडीए ने आरजेडी का सूपड़ा साफ कर दिया था. पर 2020 के विधानसभा चुनावों में जिस तरह आरजेडी ने अपनी वापसी की उससे बीजेपी का चिंतित होना स्वभाविक है.चुनावों के बाद सरकार एनडीए ने बना ली थी पर लगातार आरजेडी की तलवार लटकती रही. आखिर कामयाब भी हुई. जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर देखा जाए तो बिहार की आबादी में यादव 14.3 परसेंट और मुस्लिम 17.7 परसेंट हैं. मंडल की राजनीति शुरू होने के बाद बिहार में अगड़े और पिछड़े के वोट इस तरह बंट चुके हैं कि जहां अगड़ों को वोट गिरता हैं वहां पिछड़ों का वोट दूसरे पक्ष के लिए ध्रुवीकृत हो जाता है. पिछड़े वोटों को आरजेडी में जाने से रोकने के लिए नीतीश से बेहतर कोई और साथी नहीं हो सकता . इसलिए बीजेपी किसी भी सूरत में उन्हें नाराज नहीं करना चाहती है.
2- नीतीश को इंडिया गठबंधन ध्वस्त करने का इनाम
बिहार की राजनीति में हो सकता है कि नीतीश कुमार अब अलोकप्रिय हो चुके हों , हो सकता है कि अब उनके नाम पर वोट न मिले पर इतना तो सही है कि नीतीश कुमार को इंडिया कैंप से अलग करके बीजेपी ने इस गठबंधन की ऐसी की तैसी कर दी. नीतीश से बीजेपी को हमेशा ये डर भी रहता है कि कब और किस बहाने वो फिर पलटी मार जाएं. इंडिया गठबंधन को जबसे नीतीश ने बाय बाय किया यह संगठन छिन्न भिन्न हो गया है.शायद बीजेपी के लिए नीतीश की ये ही सबसे बड़ी उपलब्धि है. नीतीश कुमार जिस लेवल पर इंडिया को ले जा रहे थे वो बीजेपी के लिए किसी ग्रहण से कम नहीं था. पर नीतीश के अलग होने के बाद इंडिया गठबंधन के बुरे दिन शुरू हो गए.
3-जेडी यू को कैप्चर करने की तैयारी
बीजेपी का इरादा जेडीयू पर अपना आधिपत्य जमाने का भी है. पार्टी को पता है कि नीतीश कुमार की यह अंतिम पारी हो सकती है. जेडीयू में नीतीश का कोई उत्तराधिकारी नहीं है. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि ऐसे समय में बीजेपी के पास मौका होगा कि वह जेडीयू का अपनी पार्टी में विलय कर ले . इतना तो तय है कि जेडीयू नीतीश कुमार के कमोजर पड़ते ही दो फांक हो जाएगा. कुछ हिस्सा आरजेडी में अपनी जगह तलाशेगा तो कुछ लोग बीजेपी में अपने को मर्ज कर लेंगे.जिस तरह नीतीश कुमार आजकल बयान दे रहे हैं कि अब वो कहीं नहीं जाएंगे. नीतीश कुमार ने एक बार समता पार्टी बनाई थी जिसका मर्जर उन्होंने जनता दल में कर दिया था और जनता दल यूनाइटेड का जन्म हुआ था.
4-बीजेपी को लेकर परसेप्शन चेंज हो जाता है
नीतीश कुमार के साथ रहने से बीजेपी को लेकर आम लोगों के बीच कई तरह के परसेप्शन चेंज हो जाते हैं. नीतीश कुमार की छवि ईमानदार नेता की रही है. बिहार में सबसे बड़ा मुद्दा राजनीतिक भ्रष्टाचार का ही है. आरजेडी पर टार्गेट करने के लिए एक ईमानदार नेता की छवि की जो जरूरत है वो नीतीश के साथ खड़े रहने मात्र से पूरी हो जाती है. इसी तरह बिहार में नीतीश के साथ रहने से बीजेपी कट्टर हिंदू पार्टी से धर्मनिरपेक्ष पार्टी में बदल जाती है. बीजेपी को लेकर अति पिछड़ों की नजर में भी पार्टी का परसेप्शन बदल जाता है. नीतीश हमेशा से ही अगड़ों और पिछड़ों दोनों को साथ लेकर चलते रहे हैं. यही कारण है कि बीजेपी के साथ उनकी ठीक ठाक निभती है.
5-सबसे खराब हालत में भी अति पिछड़ों के 10 परसेंट वोट नीतीश को मिलते हैं
बिहार में अति पिछड़ों के वोटों के मसीहा नीतीश कुमार हैं. बल्कि यूं कहें तो कोई दो राय नहीं हो सकती कि मंडल के बाद अति पिछड़ों की सबसे पहले चिंता करने वालों में वो सबसे ऊपर रहे हैं. बिहार में अति पिछ़डों के आरक्षण में आरक्षण तय करने वाले भी वो पहले मुख्यमंत्री हैं. बिहार सरकार के जाति आधारित सर्वे के मुताबिक़, राज्य की आबादी में 36 फ़ीसदी करीब अति पिछड़ी आबादी है.नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं. कुर्मी वोटर्स और अति पिछड़े वोटर्स बुरे से बुरे हालत में भी करीब 10 परसेंट तो नीतीश के लिए दिल खोलकर खड़े रहते हैं. बीजेपी का भी मुख्य जोर अति पिछड़ों पर ही है. बिहार में मुस्लिम-यादव समीकरण को ध्वस्त करने के लिए अति पिछड़ों को एक जुट करना एनडीए के लिए सबसे जरूरी है.