
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और बीजेपी अभी भी लोकसभा चुनावों में हार की निराशा से उबर नहीं पाई है. पार्टी अभी तक यह समझ नहीं पा रही है कि किसके नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए? सहयोगी पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ा जाए या मैदान में अकेले उतरा जाए? पार्टी में कई तरह की उधेड़बुन चल रही है. इसके पीछे केवल एक कारण यही है पार्टी अभी तक राज्य की जातीय व्यवस्था को समझ नहीं पाई है. पार्टी ने अभी हाल ही में राज्य में होने विधान परिषद के चुनावों के लिए जिन 5 उम्मीदवारों की घोषणा की है वो अति पिछड़ी जाति से आते हैं. इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि पार्टी आगामी विधानसभा चुनावों में मराठा वोटों के बजाय ओबीसी वोटों पर भरोसा कर रही है. जबकि लोकसभा चुनावों में हार का सबसे बड़ा कारण मराठों का सपोर्ट न मिलना बताया जा रहा था.
ओबीसी जातियों पर फोकस
लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बावजूद बीजेपी महाराष्ट्र में अपने पुराने फॉर्मूले पर लौट रही है. निर्वाचन आयोग की वेबसाइट पर विजयी उम्मीदवारों की जाति नहीं पता चलती है, मगर समझा जाता है कि कम से कम 28 मराठा अथवा मराठा-कुनबी उम्मीदवारों ने लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज की है. इसके साथ ही अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले सात उम्मीदवार भी जीते हैं. इसके बावजूद पार्टी ने राज्य में दिग्गज ओबीसी नेता रहे गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा के साथ जिन चार अन्य कैंडिडेट को विधान परिषद चुनावों में उतारा है उनमें माली, धनगर और वंजारी हैं. मतलब साफ है कि बीजेपी की तरफ से फिर अपने कोर ओबीसी वोट बैंक को मजबूत करने का इरादा है. लोकसभा चुनावों में बीजेपी से दलित के साथ ओबीसी वोट का शेयर भी घटा है. यही कारण रहा कि बीजेपी 23 से घटकर नौ सीटों पर आ गई. विधान परिषद चुनावों में ओबीसी को महत्व देने का मतलब सीधा संदेश यह है कि पार्टी को पता है कि विधानसभा चुनावों के लिए मराठा वोट के लड़ाई लड़ने के बजाय जो पहले से कोर वोटर रहे हैं उन्हें ही संभालने पर जोर दिया जाए. लगता है कि पार्टी ने पहले ही मान लिया है कि मराठा वोटों के दावेदार कई हैं. इसलिए बीजेपी की दाल नहीं गलने वाली है.
मराठा फिर बनेंगे मुश्किल
लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित संख्या में मराठा उम्मीदवारों की जीत को देखते हुए उम्मीद थी कि बीजेपी अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए मराठा नेताओं को आगे लाएगी. दरअसल राज्य में मराठों के पास सिर्फ बाहुबल ही नहीं है बल्कि वे चीनी कारखानों, कृषि उपज विपणन समितियों और शिक्षण संस्थानों तक फैले हुए हैं. शायद यही कारण है कि बीजेपी किसी ताकतवर मराठा क्षत्रप को पार्टी में लाना चाहती रही है. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज मराठा नेता को भाजपा में लाने का यही मकसद था.
अजिंक्य डीवाई पाटिल विश्वविद्यालय, पुणे में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केदार नाइक के हवाले से बिजनेस स्टैंडर्ड लिखता है कि महाराष्ट्र में हमेशा कांग्रेस के लिए थोड़ी सहानुभूति रहती है. इसके साथ ही मराठा आंदोलन ने भी भाजपा को प्रभावित किया है. यही कारण है कि भाजपा नीत गठबंधन के लिए विधानसभा चुनावों की राह कठिन हो रही है. नाइक सलाह देते हैं कि मराठा आरक्षण आंदोलन को बीजेपी को बहुत कुशलता से डील करना चाहिए.
इलाकेवार देखें तो दलित-मुस्लिम-कुनबी समीकरण ने विदर्भ में बीजेपी और उसके सहयोगियों की नाव को हिलाया, तो मराठा-मुस्लिम-दलित समीकरण पूरे महाराष्ट्र में बीजेपी का काम खराब कर सकता है. मराठा आरक्षण का प्रमुख केंद्र रहे मराठवाड़ा में प्रमुख मराठा समुदाय ने निर्णायक तौर पर भाजपा के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान नहीं किया. मराठा बनाम मराठा की लड़ाई में मराठों को महाविकास अघाड़ी के पक्ष में गए. भाजपा नीत गठबंधन महायुति मराठवाड़ा में बस एक सीट ही जीत सका जहां से महाविकास आघाडी ने गैर मराठा उम्मीदवार खड़ा किया था.
कांग्रेस से मुकाबले के लिए बीजेपी की रणनीति
भाजपा ने महाराष्ट्र की राजनीति में मंडल युग का सही फायदा उठाया था. ओबीसी जातियों के सही संयोजन के साथ पार्टी ने कांग्रेस को राज्य से बाहर किया था. भाजपा को लगता है कि एक बार फिर इसी फॉर्मूले से कांग्रेस के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी सकती है. दरअसल भाजपा ने महाराष्ट्र में माली-धनगर-वंजारी माधव जातियों को मिलाकर एक नया वोट बैंक तैयार किया है. विदर्भ में कांग्रेस के दलित-मुस्लिम-कुनबी समीकरण से मुकाबले के लिए भाजपा- शिवसेना (अविभाजित) ने पिछड़ी जातियों को मिलाने का काम किया था.
इसी रणनीति के तहत जहां भी कांग्रेस ने महार को उम्मीदवार बनाया, भाजपा और शिवसेना ने उससे मुकाबले के लिए गैर महार जाति के उम्मीदवार को चुनावी मैदान में खड़ा किया. साल 2014 के लोक सभा चुनावों में यही रणनीति हावी थी और उस साल भी भाजपा शिवसेना ने क्षेत्र की सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. साल 2019 के चुनावों में भी यही फॉर्मूला काम आया था.