
पिछले कुछ सालों से राहुल गांधी पिछड़ों का मसीहा बनने की राजनीति कर रहे हैं. हालांकि कांग्रेस पार्टी के परंपरागत वोटर्स में कभी पिछड़ी जाति का नाम नहीं रहा है. पर जिस तरह राहुल पूरे देश में जाति जनगणना की डिमांड करते फिर रहे हैं उसका लाभ उन्हें आज नहीं तो कल निश्चित ही मिलने वाला है. दिल्ली विधानसभा चुनावों में कभी पिछड़ी राजनीति का असर नहीं रहा है. इसके बावजूद अगर कांग्रेस अपने चुनावी घोषणापत्र में दिल्ली में जाति जनगणना कराने का वादा कर रही है तो साफ जाहिर है कि उसका फोकस पिछड़ी जातियों पर है. कांग्रेस की यह रणनीति अगर कारगर हो जाए तो दिल्ली चुनावों में बड़ा उलटफेर हो सकता है. दरअसल दलित और मुसलमान तो कांग्रेस के कोर वोटर्स रहे हैं. कांग्रेस को उम्मीद है कि यहां से कुछ वोट तो मिलेंगे ही मिलेंगे. अगर पिछड़ों का भी कुछ वोट कांग्रेस को मिल जाता है तो यह उसके लिए भविष्य का आधार तैयार करने जैसा होगा.
1-दिल्ली में अभी तक ओबीसी पॉलिटिक्स नहीं है, कांग्रेस माइलेज ले सकती है
दिल्ली में अभी तक पिछड़ी जाति के वोट लेने के लिए पार्टियां राजनीतिक अभियान चलाती रही हैं पर कभी भी यहां की राजनीति ओबीसी सेंट्रिक नहीं रही है. जिस तरह उत्तर प्रदेश और बिहार आदि में ओबीसी राजनीति हावी हो चुकी है उस तरह की हालत अब तक दिल्ली में नहीं हुई है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली में ओबीसी मतदाताओं की संख्या कम है. जाट-गुर्जर और यादवों की संख्या दिल्ली में अच्छी खासी है. इसके साथ ही अन्य पिछड़ी जातियां भी बहुसंख्या में हैं. चूंकि भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी दोनों ही दिल्ली में ओबीसी सेंट्रिक राजनीति नहीं कर रही हैं इसलिए कांग्रेस के पास माइलेज लेने का मौका है. कांग्रेस ने अपना प्रदेश अध्यक्ष भी एक ओबीसी देवेंद्र यादव को बनाया हुआ है. अब अपने घोषणापत्र में जाति जनगणना का वादा करके पार्टी ने दिखा दिया है कि दिल्ली में ओबीसी का हित केवल कांग्रेस ही सोच रही है.
2-दिल्ली में दलित-ओबीसी-मुसलमान का समीकरण सब पर भारी हो सकता है
दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार दलित, जाट व गुर्जर मतदाताओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होने जा रही है. दिल्ली में 12 विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. यहां करीब 18 प्रतिशत दलित मतदाता हैं. 12 विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. दिल्ली की आरक्षित 12 सीटों के अलावा 18 ऐसी विधानसभा सीटे हैं जहां दलित मतदाताओं की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक है. इस तरह दिल्ली की 30 विधानसभा सीटों पर दलित मतदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. इसी तरह दिल्ली में जाट बहुल 10 सीटें हैं. दिल्ली में गुर्जर मतदाताओं की भी बड़ी संख्या है. इनके प्रभाव वाली छतरपुर, मुस्तफाबाद, तुगलकाबाद, घोंडा, गोकुलपुरी, ओखला पर आम आदमी पार्टी का कब्जा है. वहीं बदरपुर, करावल नगर व पालम पर भाजपा का कब्जा है. दिल्ली के करीब 30 गांव यादव बहुल हैं.अनधिकृत कॉलोनियों में माइग्रेटेड ओबीसी समुदायों की संख्या भी अधिक है. आम आदमी पार्टी (आप) अब तक ओबीसी वोटों के दम पर चुनाव जीतती रही है. कांग्रेस अब इसमें सेंध लगाने की रणनीति पर काम कर रही है.
दिल्ली की कुल आबादी का 12.9% हिस्सा मुस्लिम समुदाय का होने के कारण चुनाव में इनका वोट महत्वपूर्ण हो जाता है. दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से छह पर जिसमें सीलमपुर में लगभग 50% मुस्लिम मतदाता, मटिया महल (48%), ओखला (43%), मुस्तफ़ाबाद (36%), बल्लीमारान (38%) और बाबरपुर (35%) हैं. AAP ने 2020 के विधानसभा चुनावों में इन सभी छह सीटों पर जीत हासिल की थी. इस बार कांग्रेस के लिए मौका अपनी हिस्सेदारी दिखाने का. मुस्लिम मतदाताओं के बाहुल्य वाले अन्य निर्वाचन क्षेत्र हैं सीमापुरी (25%), गांधी नगर (22%), चांदनी चौक (20%), सदर बाजार (20%), विकासपुरी (20%), और करवाल नगर (20%) आदि.
इस तरह दलित-ओबीसी-मुसलमान बहुल वाली कम से कम 50 सीटें हो जाती हैं. यही कारण है कि कांग्रेस पिछड़ी जाति के वोटर्स के लिए जोर लगा रही है. अगर दलित और मुसलमानों के साथ कुछ संख्या में भी पिछड़े कांग्रेस का साथ देते हैं तो कांग्रेस भविष्य में इनका एक समीकरण बना सकती है.
3-दिल्ली में बीजेपी ने भी पिछड़ी जातियों के वोट के लिए अलग से चलाया था अभियान
देखने में ऐसा लगता है कि दिल्ली में पिछड़ी जातियों के वोट महत्वपूर्ण नहीं है. पर दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटरों को गोलबंद करने के लिए खूब काम किया. पार्टी पिछले साल 11 दिसंबर से ही ओबीसी समुदाय और उसकी उपजातियों के साथ बैठकें कर रही थी.