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अलीगढ़ में मोदी ने कम वोटिंग पर क्यों जताई चिंता, क्या BJP को है नुकसान का अंदेशा?

बीजेपी के समर्थकों ने यह सोचा कि वोट देने क्या जाना मोदी सरकार की वापसी हो ही रही है. दूसरी ओर विपक्ष के समर्थकों को भी ऐसा ही लगा है कि जीतना तो बीजेपी को ही है तो वोट देने की क्या जरूरत है? इसलिए चिंता की लकीरें तो दोनों ही ओर हैं.

अलीगढ़ में पीएम मोदी ने जनता से वोटिंग में बढ़चढ़ कर भाग लेने की अपील की. अलीगढ़ में पीएम मोदी ने जनता से वोटिंग में बढ़चढ़ कर भाग लेने की अपील की.
संयम श्रीवास्तव
  • नई दिल्ली,
  • 22 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 8:31 PM IST

अलीगढ़ में आज सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभी को संबधित करते हुए बीजेपी सरकार की उपलब्धियां तो गिनवाईं ही पर उन्होंने जनता से भारी संख्या में वोट करने की भी अपील की. उन्होंने यहां तक कहा कि वोटिंग के दिन सबसे पहले मतदान करें उसके बाद ही कोई दूसरा काम करें. सुबह-सुबह ही मतदान के उनके आग्रह के पीछे कहीं न कहीं पहले चरण में हुई कम वोटिंग का असर तो नहीं था? शुक्रवार को हुई वोटिंग में लगभग 63% वोट पड़े जबकि इन्हीं सीटों पर 2019 के आम चुनाव में कुल 66.44% वोटिंग हुई थी.

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यह आम धारणा रही है कि कम वोटिंग में बीजेपी का नुकसान होता रहा है. पर इस बार की कम वोटिंग को समझना थोड़ा ज्यादा जटिल है. इसके पीछे एक नहीं कई कारण हैं. आइए समझते हैं कि क्यों कम वोटिंग सत्ता पक्ष ही नहीं विपक्ष के लोगों के लिए भी चिंता का कारण है. जिस तरह पहले चरण में अपेक्षाकृत कम वोट पड़े हैं उससे सभी दलों का गणित बिगड़ गया है. इसलिए नरेंद्र मोदी का चिंतित होना स्वभाविक ही है. कम वोटिंग से किसे लाभ या किसे नुकसान होगा, इसे जानने की कोशिश में तरह तरह के हवाई किले बनाए जा रहे हैं. 

1-क्या कहता है कम और अधिक वोटिंग का ट्रेंड

अब तक आए आंकड़े के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में वोटिंग कम हुई है खासकर तमिलनाडु के शहरों में. बीजेपी और विपक्ष दोनों का कहना है कि उसके वोटर बेहद उत्साह से निकल रहे हैं. सामान्य तौर पर बहुत अधिक वोटिंग होने से ऐसा संदेश जाता है कि यह परिवर्तन के लिए उमड़ी भीड़ है जबकि कम वोट का मतलब होता है कि वोटर्स बदलाव नहीं चाहता है. उसे सत्ता पक्ष में अपने लिए काम होने की उम्मीद दिखती है. 102 सीटों पर हुए मतदान में करीब 63 प्रतिशत मतदान हुआ है. सबसे कम यूपी में 7 फीसदी वोट कम पड़े हैं. जबकि मध्यप्रदेश और बिहार में 6 फीसदी कम वोटिंग हुई. पश्चिम बंगाल में पिछली बार के मुकाबले केवल 4 परसेंट वोट ही कम पड़े हैं. इस तरह की वोटिंग को विपक्ष बीजेपी सरकार के लिए खतरे की घंटी बता रहा है. पर भारत का चुनावी इतिहास बताता है कि कम वोटिंग या अधिक वोटिंग का परिणाम हमेशा एक जैस नहीं रहा है. 

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2009 के चुनाव में 58.21 प्रतिशत वोट पड़े थे, जो 2014 में करीब आठ प्रतिशत से ज्यादा बढ़कर 66.44 प्रतिशत हो गया. इसे परिवर्तन की लहर बताया गया, किंतु 2019 के चुनाव में बढ़कर 67.40 प्रतिशत हो गया. फिर भी सरकार नहीं बदली. इसलिए साबित होता है अधिक मतदान सरकार बदलने के लिए होता है वाला फॉर्मूला भी सही नहीं है. इसी तरह 1999 की तुलना में 2004 में करीब दो प्रतिशत कम वोट पड़े, फिर भी सरकार बदल गई. जाहिर है कि कम या ज्यादा मतदान से हार-जीत का आकलन नहीं किया जा सकता. जनता का मूड समझने वाले किसी फॉर्मूले का ईजाद अभी नहीं हुआ है.

2- मोदी जीत ही रहे हैं, क्या यही बात उल्टी पड़ रही है

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि बीजेपी का 400 प्लस का नारे से जनता में यह संदेश चला गया कि बीजेपी जीत ही रही है. बीजेपी के समर्थकों ने यह सोचा कि वोट देने क्या जाना मोदी सरकार की वापसी हो रही है. दूसरी ओर विपक्ष के समर्थकों को भी ऐसा ही लगा है कि जीतना तो बीजेपी को ही है तो वोट देने की क्या जरूरत है? लगता है कि बीजेपी  कार्यकर्ता यह सोचने लगे हैं कि सरकार तो नरेन्द्र मोदी की ही बननी है.  चार सौ सीट नहीं तो कम से कम तीन सौ सीटें तो पार्टी जीतेगी ही. यही हाल विरोधी वोटर्स का रहा , उन्होंने सोचा कि सरकार तो बननी नहीं तो वोट देने की जरूरत क्या है? क्योंकि वोट का ट्रेंड यही है.बीजेपी के वोटर्स ही नहीं विपक्ष के वोटर्स भी घरों से नहीं निकले हैं.

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3- विपक्ष के बड़े नेताओं की उदासीनता से जनता का भी उत्साह घटा

इतिहास गवाह है कि जिस तरह विपक्ष ने इस बार चुनाव प्रचार किया है वैसै पहले कभी नहीं किया था. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव हों या कांग्रेस नेता चुनाव प्रचार केवल खानापूर्ति के लिए करते नजर आएं हैं. या तो वे अतिआत्मविश्वास के शिकार हैं या उन्होंने ये मान लिया कि इस बार जीत नहीं मिलने वाली है. जिस अंदाज में नरेंद्र मोदी, अमित शाह , जेपी नड्डा, योगी आदित्यनाथ ताबड़तोड़ सभाएं और रैलियां कर रहे हैं विपक्ष ने उसका चौथाई भी नहीं किया है. यूपी में साथ लड़ रहे अखिलेश और राहुल गांधी की एक संयुक्त रैली अब तक नहीं हुई. स्वयं अखिलेश ने बहुत देर से रैलियां करनी शुरू किए हैं. बीएसपी सुप्रीमो बहुत दिनों तक घर से निकली ही नहीं. न कोई रैली न कोई सभा. इस तरह विपक्ष ने पहले ही यह संदेश दे दिया कि वे इस बार चुनाव मन से नहीं लड़  रहे हैं. फिर भी 2004 की तरह एक उम्मीद है कि हो सकता है जनता उन्हें बुला ले.  

4-विपक्ष के लिए भी चिंता की बात

मतदान के संबंध में एक धारणा यह भी है कि जिस क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय की संख्या अधिक होती है, वहां के बूथों पर वोट ज्यादा बरसता है. पर इस बार पहले चरण का मतदान बता रहा है कि मुस्लिम बहुल आबादी वाली सीटों पर भी वोटरों ने बूथों पर जाने से परहेज किया है.जिन स्थानों पर पिछले दो चुनावों में 70 प्रतिशत से ज्यादा वोट पड़ रहे थे, इस बार पांच से दस प्रतिशत तक कम वोट पड़े हैं. 2019 की तुलना में 2024 में  यूपी में पहले चरण की आठ सीटों में से पांच पर कम वोट पड़े हैं जिसमें सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, कैराना, बिजनौर एवं नगीना मुस्लिम बहुल आबादी वाली सीटें हैं.कम मतदान के बारे में कहा जा रहा है कि वोटरों में सरकार के प्रति उत्साह नहीं है.पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि मुस्लिम वोटर्स को ऐसा लगा है कि विपक्ष ने भी उनके साथ धोखा किया है.

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आबादी के अनुरूप सियासत में हिस्सेदारी की बात करने वाले दलों ने खुद आबादी के हिसाब से टिकट तो दिया नहीं वो सरकार बनने पर न्याय करेंगे.बिहार में राजद ने अपने हिस्से की अनारक्षित कुल 20 सीटों में नौ टिकट यादव बिरादरी को दे दिए, जिसकी संख्या राज्य में 14 प्रतिशत है, किंतु मुस्लिमों की आबादी 17.70 प्रतिशत रहते हुए भी उन्हें सिर्फ दो टिकट दिए. यही हाल उत्तर प्रदेश में रहा. पश्चिम यूपी की आधा दर्जन सीटों पर जहां मुस्लिम समाज की आबादी निर्णायक है वहा से न समाजवादी पार्टी ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट दिया और न ही बहुजन समाज पार्टी ने.एक और कारण जिसकी चर्चा हो रही है वह यह है कि मुस्लिम वोटर्स ने भाजपा को हराने के लिए पिछले दो चुनावों में बढ़-चढ़कर वोट डाला फिर भी संसद में भागीदारी कम हो गई और सरकार भी बीजेपी की बन गई.

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