हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेकर और मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि दिवस तो कमजोर का मनाया जाता है, जैसे महिला दिवस, अध्यापक दिवस, मजदूर दिवस. कभी थानेदार दिवस नहीं मनाया जाता. तो क्या सच यही है- जो महिलाओं के सम्मान मे एक दिन का दिवस मनाकर उनके अधिकार, उनके श्रम के मूल्य और उनके सम्मान को सीमित कर दिया जाता है? घरेलू काम, महंगाई का चक्रव्यूह, सिसायत का मैदान, रोजगार और कृषि में सरकारों और समाज ने क्या महिलाओं के हक की आवाज सुनी है? क्या महिलाओं को अपनी जिंदगी, घर संभालने में गुजार देने वाले श्रम का वेतन देने का मुद्दा कभी उठेगा? क्या चुनाव में टिकट देने से लेकर असेंबली-संसद तक महिलाओं की भागीदारी पूर्ण हक के साथ सुनिश्चित की जाएगी? या फिर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस बस एक दिन के सम्मान वाला वन डे मातरम रह जाएगा. देखें दस्तक, रोहित सरदाना के साथ.