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वाराणसी: श्मशान में जलती चिताओं के सामने नगरवधुओं का नृत्य, 348 साल पुरानी अनोखी परंपरा

रोशन जायसवाल
  • नई दिल्ली,
  • 09 अप्रैल 2022,
  • अपडेटेड 9:24 AM IST
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एक तरफ जलती चिताओं पर मातम और दूसरी तरफ जश्न का महौल, चैत्र नवरात्र की सप्तमी तिथि पर वाराणसी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट का नजारा कुछ ऐसा ही रहता है. यहां नर्तिकाएं और नगरवधुएं जलती चिताओं के सामने नृत्य कर काशी विश्वनाथ स्वरूप बाबा मसान नाथ के दरबार में हाजरी लगाती हैं. 378 साल पुरानी इस परंपरा को इस वर्ष भी जीवंत रखा गया.

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कोरोना की महामारी के चलते बीते दो वर्षों से आंशिक रूप से होने वाली इस प्राचीन परंपरा का एक बार फिर से भव्य आयोजन किया गया. चैत्र नवरात्र की सप्तमी तिथि के दिन यहां ना केवल वाराणसी, बल्कि आस-पास के कई जिलों की नगरवधुएं और नर्तिकाएं बाबा मसान नाथ के तीन दिवसीय वार्षिक श्रृंगार के अंतिम दिन नृत्यांजलि पेश करती हैं.

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जलती चिताओं के साथ होने वाला यह अनोखा उत्सव देर रात तक चलता है. यहां एक तरफ अंतिम यात्रा पर शवों के आने का सिलसिला जारी रहता है तो वहीं दूसरी ओर इंस्ट्रुमेंट्स और म्यूजिक सिस्टम पर नर्तिकाओं के कदम थिरकते रहते हैं. बाबा मसान नाथ के दरबार में होने वाली इस बेमेल प्रथा के पीछे नगरवधुओं और नर्तिकाओं की एक खास मान्यता छिपी है.

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ऐसा कहा जाता है कि बाबा मसान नाथ के दरबार में जलते शवों के समानांतर नृत्य करने से इस नारकीय जीवन के बाद मिलने वाला जुन्म सुधर जाता है. एक नगरवधु सरिता का कहना है कि बाबा के दरबार में नृत्य करके वे कामना करती हैं कि उन्हें इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिल जाए और उनका अगला जीवन बेहत हो. एक अन्य नर्तकी का कहना है कि साल में एक दिन अपनी नृत्यांजलि के जरिए वह बाबा मसान के दरबार में अपनी आस्था प्रकट करती हैं और उनसे अगला जन्म संवारने की प्रार्थना करती हैं.

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कैसे शुरू हुई प्रथा?
बाबा श्मशान नाथ मंदिर के प्रबंधक गुलशन कपूर बताते हैं कि 17वीं शताब्दी में काशी के राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर श्मशान के स्वामी मसान नाथ के मंदिर का निर्माण किया था. वे यहां एक संगीत कार्यक्रम कराना चाहते थे. लेकिन जलती चिताओं के सामने संगीत और नृत्य की कला आखिर पेश कौन करता. आखिरकार संगीत कार्यक्रम में कोई कलाकार नहीं आया, आई तो सिर्फ तवायफें.

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तवायफों ने गंगा किनारे स्थित मसान नाथ के दरबार में जलती चिताओं के साथ अपना नृत्य प्रस्तुत किया. बस तभी से इस प्राचीन परंपरा को हर साल जीवंत रखा जा रहा है. एक तरफ चिताओं के जलने का सिलसिला जारी रहता है तो दूसरी तरफ नगरवधुएं और नर्तिकाएं अपना नृत्य पेश करती हैं.

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गुलशन बताते हैं कि इसके पीछे काशी की वही पुरानी परंपरा है जहां मातम भी उत्सव के रूप में मनाया गया था. मंदिर कमेटी के संरक्षक जंतलेश्वर यादव बताते हैं कि 84 लाख योनियों में जन्म लेने के बाद मनुष्य का जन्म मिलता है. इसलिए लोग सच्ची श्रद्धा के साथ बाबा से मनोकामना करते हैं कि वे उन्हें मोक्ष के मार्ग पर ले जाए.

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